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बिकने लगी...

बिकने लगी इंसानियत कौड़ी के दामों में, बेइमानियों ने घर किया मंद मुस्कानों में, फरेबियों ने पहने हैं जबसे मुखौटे इमानों के खुद का जहर जिनसे संभाले संभालता नहीं, वही ढूंढ रहे आजकल सांप आस्तीनाे में। - नीलम दुबे।

By Neelam Dubey
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