Teacher by profession and a writer by hobby.
Share with friendsदिन के प्रखर प्रकाश में रजनी के संत्रास में भोर की अनुपम बेला में सांझ के बढ़ते ग्रास में मेरे मन मस्तिष्क के भीतर उर के हर प्रयास में तेरी ही एक आस है शामिल मेरे हर आभास में @रुचि मित्तल
कर रही कलोल मुझ से ये मेरी तन्हाइयाँ हँस रही है आज मुझपे फिर मेरी परछाइयाँ क्या कहूँ किस से कहूँ कौन समझेगा मुझे बढ़ती जाती है मुझ ही से मेरी ही रुसवाईयाँ। ©रुचि मित्तल
जन्म-जन्म का है ये साथ, सामंजस्य,प्यार और विश्वास। एक ही सुर,एक ही भाषा, जीवनसाथी की यही परिभाषा।। ...रुचि मित्तल...
मुझसे मिलना और बिछुड़ना, हो सकती कोई मज़बूरी एक नहीं, दो नहीं “अज़ल" जन्मों के अन्तर की दूरी। ...रुचि मित्तल....
काश मेरे "सहल लफ़्ज़"...उसके "दिल" पर...ऐसा "असर" करें..... वो मेरे "करीब" आ कर कहें...चलो "जी" भर के..."इश्क" करें..... .....रुचि मित्तल....