सोचता हुँ मेरा कातिल कितना मासूम है
दर्द देकर मुझे न जाने वो कहाँ गुम है |
#विवेक रौशन
दरो-दिवार पर ये खून का धब्बा कैसे है
सब अच्छे हैं फिर सरहदों पर लकीरें कैसे है |
#विवेक रौशन
जिनकी नज़रें मंज़िल पर होती है
वो रास्तों की ठोकरों से नहीं डरते
जिनके हौंसले बुलंद होते हैं
वो हारने से कभी नहीं डरते |
#विवेक रौशन
चल पड़े जो रास्तों पर तो रुकना नहीं
रुकावटें हज़ार आए पर कभी झुकना नहीं
पत्थर से पत्थर टकराती है तो हीं चिंगारी निकलती है
बार-बार ठोकर खाकर हीं तो मंज़िल मिलती है |
# विवेक रौशन