Govind Singh
Literary Lieutenant
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जब भी वो यहां आता था, मुझसे ज़रूर मिलता था.. उसका मुझसे और मेरा उससे बड़ा ही प्यारा रिश्ता था.. अब वो बड़ा चंचल हो गया फोर्ट ऑफ संचल हो गया.. जलता रहा मैं दोस्ती में और तप कर वो कंचन हो गया.. गोविन्द

खता पता हो तो भी कुछ कर नहीं सकते... जिंदगी है, जिए बिना मर भी नहीं सकते..

ढलते-ढलते.. ढल जाएंगे.. बिना “जल” के “जल” जाएंगे। बिना जल के “जलते-जलते” हम सोचो कैसा कल पाएंगे ?

था रावण तूं बड़ा चंगा, पर नीयत का रह गया नंगा। दस जोड़ी नैन लिए था, पर रह गया फिर भी अन्धा।।

रात भर तो नींद से मैं करके बगावत रूठा रहा.. आज-कल हर रात मुझसे नींद भी नाराज़ है..


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