कल रात यहाँ मेज़ सजा था , आज वीरानी छायी है। मेहमान भर पेट खा कर विदा हो गये, पर, खाली पेट घूम रहे लोगों के , खाने को अब केवल झूठे पत्तल रह गये।
आज समंदर किनारे , रेत में बनाए तुम्हारे रेत के महल की याद आ गई। न अपना घर बसा पाए और न मेरा आशियाना बसने दिया।
वक्त बेवक्त यूं न आया करो याद, भूलना हमें भी अब आ गया है, वक्त ने सिखा दिया है, यादों से बाहर निकलना ।
यूं ही रोज चलते चलते , जिंदगी से मुलाकात हो जाती है, कहती है चलो साथ साथ चलते हैं, हँस कर टाल देता हूं कि, बेवफा से वफा की चाह कैसे कर सकता हूं।