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ज़ख़्म की दास्ताँ

ज़ख़्म की दा

जब हमारे ज़ख़्म एक से हों और हमारे दर्द की दास्तानें भी तो मरहम लगाने में इतनी झिझक सी क्यों उठती है ज़ेहन में ? इस कविता को सुनने के बाद खुद से ये सवाल ज़रूर कीजिएगा क्यूंकि इसका जवाब आपके अंदर ही घर करके बैठा है जिसे बस थोड़ी मोहब्बत की ज़रूरत है और शायद थोड़े मरहम की भी |

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ज़ख़्म की दास्ताँ

जब हमारे ज़ख़्म एक से हों और हमारे दर्द की दास्ता

आइना

एक आइना ही तो है जो सब सच बताता है, हमारे और आप

परदेसियों का इश्क़

इश्क़ की कोई परिभाषा नहीं होती, और ज़रूरी तो नहीं

कहानी ईमारत की

कुछ इमारतें जो बंज़र हो जाया करती हैं ज़रूरी नहीं

फुर्सत के वो दिन

इस ज़िन्दगी की भाग दौड़ में दिल की बस एक ही आरज़ू