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गुरु की व्यथा ,मेरी गाथा ,,
मेरे भीतर का शिक्षक ,
व्यथा सुनाता है;
बीत गया दौर सम्मान का,
अब भय से थर्राता है।
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ऊँची -ऊँची अट्टालिकाओं से,
उसका मन घबराता है।
छोटे -छोटे गुरूकुलुओं को।
भूल न पाता है।
मेरे भीतर का शिक्षक
व्यथा सुनाता है।
ज्ञान अर्जन बहुत किया ,फिर भी अज्ञानी कहलाता है।
अर्थ का लोभ उसे भी,
ऐसा सुनने में आता है।
मेरे भीतर का शिक्षक—-
कभी चाण्यक ,आर्यभट्ट कभी कृष्नन् स्मरण हो आता ह
”