श्याम अब्र गगन पर छाये विरहन के मन को तड़पाये सांझ सकारे तेरा पंथ निहारे नयन नीर झरे दिल भी हारे इंदु कोठारी ✍️
कर गुंजित वह कुंज गली उपजा मधुकर हिय अनुराग हुआ सुवासित सारा उपवन बिखरा परिमल झरा पराग इंदु कोठारी ✍️
नसीर बना कर पंछी को क्यों निज भाषा सिखा रहे मानव हो मानव ही बने रहो क्यों यह दानवता दिखा रहे इंदु कोठारी ✍️
उदयाचल पर देख भानु को हर्षाया व्योम धरा मुस्कराई हो सर्वत्र समता विश्वबंधुत्व दिखे मानव मन की परसाई इंदु कोठारी ✍️