सुनों..
बहुत गुफ्तगू करती हूं मैं
अक्सर तुमसे
अपनी कविताओं में ,
..चुप रह जाने के बाद भी !!
कभी-कभी..
आसमान समेंटने की कोशिश में
..छूटते जाते हैं जमीं से भी !!
बहुत कुछ कहा..
..रह फिर भी अनकहा !!
..पता नहीं आज तुमसे ही इतनी बात क्यों ?
इश्क हो चला है
अपने ख्वाबों से भी अब,
..तुम रोज जो चले आते हो !!
धुंध छाई है इस तरह
कि अपनें दिखते ही नहीं हैं,
..जो दिखते हैं
वो अपने हैं ही नहीं !!
कभी-कभी जरूरी नहीं होते "शब्द"
..महसूस कर लेते हैं
बिना कुछ कहे ही !!
दर्द ठहर जाता है जब
ठहरे आंसुओं की तरह
सदैव असहनीय ही रहता है !!
बेशक मेरी कविताएं अधूरी हों
लेकिन उनके सवाल वाजिब हैं
.. और पूरे भी !!