ANIL BAKSHI
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सोचता हूँ - एक बार मर जाऊँ। मरकर - मौत का अंज़ाम देख लूँ. ताकि, जीने का अंदाज, बदल सकूँ... सुना था - ज़िदंगी चार दिन की... पर कमबख्त, पाँचवा दिन भी आया। जब सोचा - ज़िदंगी बहुत लम्बी... हर जगह, लाशों का ढ़ेर पाया।।

उनकी झील-सी आँखों में, डूबा हूँ इस कदर... कि मुझे, मय़खाना और मंदिर, दोनों ही नज़र आते हैं। सोचता हूँ, अब मैं - जाऊँ तो जाऊँ किधर... कि कभी - वो मुझे शैतान, तो कभी - भगवान नज़र आते हैं।।

मुझे जिस दिन, गम ना मिलें, मैं खुश नहीं होता... ये मेरी वो खुशी, जिसका मुझे, गम नहीं होता........


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