Mohammed Khan
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जाने ये कैसा मंजर दिख रहा है मुझे अपना ही घर जलता दिख रहा है हर रूह इंसाफ पुछ रही है लहु से इंकलाब सींच रही है कही शहेर जल रहा है कही लाशें बिछ रही है जाने ये कैसा मंजर दिख रहा है मुझे अपना ही घर जलता दिख रहा है

नफरत की आग मे जलता शहेर देखा है उस मासुम की आँखों मे मैने कहेर देखा है !! बड़े हौसलों से उठा कर, जो कंधों पे फिरते है लाशें दबी सहेमी रात का वो मंजर देखा है !! जब कीड लग जाती है सियासात की जड़ो मे, तब कट्टता हुआ हर एक शजर देखा है !!


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