मैं कुआँ था और वो डोर से बंधी एक बाल्टी,
वो हर रोज़ मुझे खली करती रही, और मैं खुद को भरता रहा...
शायद उसकी एक छुवन का आदि हो गया था मैं
दिन और महीने गुजर गए उस बाल्टी के दीदार को
और बिना पानी निकाले ही ये कुआँ सूख गया
वो वर्षो से डटा था उसके इसी कहने पे,
की कुछ और वक़्त दो,
टूट कर बिखर गया वो टुकड़ो में,
जब सुना की तुम मेरे कोई थे ही नहीं.