पथ के कांटे बने अपने हैं चुनकर कैसे मंजिल पाऊँ। हासिल करना लक्ष्य जरूरी चुभते हरपल कैसे इन्हें हटाऊँ।।
ऐ इन्साँ! न बढ़ा अपनी जरूरतें, न पहुँचा किसी को नुक्साँ। न दिल किसी का इस कदर दुःखा, कल फिर निग़ाहों से मिलाना निगाहें, न हो तेरे लिए आसाँ।।
औरतें ही क्यों फर्ज की बेदी पर हर रोज़ चढ़ाई जाती हैं। पुरुष है सदृश्य भगवान क्यों हर रोज़ सिखाई जाती हैं।