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ना हो जिसकी...

ना हो जिसकी कोई मंज़िल अब मैं वो परिंदा हूँ, थम चुकी होती अब तक ये सांसे बस एक आस पर ज़िंदा हूँ, तेरे बदलने का कोई ग़म नही बस अपने ऐतबार पर शर्मिंदा हूँ।

By Arun Saini
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