बड़े 'अजीब हो और इतने 'अजीब की, अपनी तबाही का जरा भी अफ़सोस नहीं। उसी दिवार-ओ-दर पे अभी भी खड़े हो, जहाँ से निकाले हुए ज़माने हो गया।। मधु गुप्ता "अपराजिता"
हम अपने आप को तेरे दर पे छोड़ आये है, लाये है ज़िस्म ख़ाली ये धड़कन तोड़ आये है। संभालो या मिटा दो अब तक़दीर की लकीरों को, हम हर फै़सला अब तुम्हारे हाथों छोड़ आये है।। मधु गुप्ता "अपराजिता"
देखो रात कितनी ख़ामोश हैं फ़िर सबको थामे अपने साथ हैं। हर पलंग हर बिस्तर पे संग हंसती-रोती साथ हैं।। मधु गुप्ता "अपराजिता"
ख़याल उसका मुझ में कुछ....,इस तरह से घुल गया। नदिया की धारा को जैसे सागर का किनारा मिल गया।। मधु गुप्ता "अपराजिता"
दोस्तोंं ने भी क्या ख़ूब फर्ज़ को अंजाम दिया है। बुना ऐसा जाल कि सारा आलम बेहाल किया हैं।। नकाबों के पीछे ऐसा चेहरा छुपा के रखा हैं। हो गए देख कर बेदम ऐसा भरोसे का खून किया हैं।। मधु गुप्ता "अपराजिता"
जब वो आगे निकल जाता हैं, तो हम पलके बिछाते हैं। बड़ी मुश्किल से हम उसके अश्कों को तब पढ़ पाते हैं।। मधु गुप्ता "अपराजिता"
कितना अच्छा होता जो तुम हमको मिल जाते। पानी के सारे बुलबुले दामन में हमारे भर जाते।। मधु गुप्ता "अपराजिता"
इतनी संजीदगी से उसने हाल अपना सुनाया। कि यक़ीन मेरा ना तनिक भी उस पे से डग़मगाया।। मधु गुप्ता "अपराजिता"