इम्तिहान-ए-नुमूद हमारा कई बार हुआ
बार-बार मरके हमारा जीना कई बार हुआ
मग़्मूम बहुत से चेहरे यहाँ घूमते हैं
हँसी में हम आँसू लिए घूमते हैं
तरन्नुम की ख्वाहिश में मरकज़-ए-इश्क़ बनाया है
उन्हें हमने अपने दिल का मुहाफ़िज़ बनाया है
बरसों से कैद हूँ अपने ही महबस-ए-ख़याल में
खुद ही एक सवाल हूँ अब ज़िंदगी के सवाल में
उस आलिम का नाम भी जाहिलों में शुमार हो गया
जिसने देखा था इबादत को मजहब की नज़रों से
उस आलिम का नाम भी जाहिलों में शुमार हो गया
जिसने देखा था इबादत को मजहब की नज़रों से
नज़ारा-ए-मिस्मार-ए-ज़ीस्त ज़माना देखने आया
कसर ना रह जाए कोई बर्बादी में ये देखने आया
नन्हें से कंधो पर बोझ उठाया करती हैं
जीने के तरीके फिर आज़माया करती है
आगे नाथ न पीछे पगहा
जीवन कटे फकीर सा
ना धन भावे बस अन्न पावे
लक्ष्य बस हर भोर का