दीप हर शाम अक्सर जलाते रहे,
फिर भी मन का अंधेरा गया ही नहीं।
हिय में प्रेम के अंकुर उपजै, वृहद विटप बनि जाय।
प्रेम रस जो नर चाख्यो चाहे, खुद हिय में ही समाय॥
गम की बदरी जो जीवन में आए कभी,
मन का विश्वास खुद पर से ना छोड़ना।
भूख अब तक कभी मुद्दआ ना बना,
फिर भी महसूस दिल में ये सबके हुई।
तंज अक्सर गरीबों पे कसते रहे,
किस कदर देख लो सबकी नियत हुई।
आदमी आदमीयत से डरने लगा,
वक्त ऐसा अभी तक दिखा ही नहीं।
चलना राही संभल संभल के
मानवता तेरे कंधे पर है