एक ही परिधि में चक्कर लगाते - लगाते सोच संकुचित और खुदगर्ज़ हो जाती हैं।
बहुत-सी बातें मन मुताबिक नहीं होतीं लेकिन बचपन इस सोच को स्वीकार नहीं करता और चाहता है-- हर चीज़ उसकी मर्ज़ी, मन मुताबिक, उसके इशारों पर चले, दौड़े, रुके, मिले।
प्यार वह है जहाँ जुबां खामोश होती है पर आँखें बोलती हैं और दिल सुनता है।
श्रम एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें हानि या घाटा का डर नहीं होता।
साहित्य नारा नहीं है, एक उद्देश्य है और गोष्ठियाँ साहित्यिक उर्जा ग्रहण करने का स्थान।
लेखक सृजनकर्ता नहीं है। कायनात में सृजनकर्ता केवल एक ही है - ईश्वर। लेखक उस के द्वारा सृजित चरित्रों, व्यवहारों को सिर्फ़ लिपिबद्ध करता है।
प्यार एक उत्तेजना है पर उत्तेजना के लिए ज़रूरी शर्त है आकर्षण और इन्हीं दोनों का मिश्रित रूप है अपनत्व का एक अटूट सिलसिला। यानी उत्तेजना से उपजी भावना का ही नाम प्यार है।