Akash Srivastava
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सींचा जिस बगीचे को उसने अपने लहू से, हमारी पहेचान उसी बगीचे से आती है। एक अरसा हुआ उसे मुरझाए हुए, मगर उसकी महक आज भी हमसे आती है।।

गुम था हर शख्स ख्वाहिशों को पर लगाने में आज मशरूफ है अपना किरदार बचाने में बे दाम हैं वो ख्वाहिशें आज वक़्त की दुकानों में कोई नहीं है इनका खरीदार बाजारों में

मुझे मेरी नाकामियों से न आंक ऐ ज़िंदगी ये वो चोटे हैं जो मुझे तराश रही हैं

हर शक्स यहां हताश है। सांसे सांसों की म्हौताज़ हैं। पिघल रही है उम्मीदें सियासत की गर्म हवाओं में। ये कैसा मंज़र आज मेरे गांव में।


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