PRIYA DAGAR Res. Scholar, School of Biochem. Engg. IIT (BHU)

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कतरा कतरा टूट रहा है एक पल कुछ यू जलता है, जला तो गुरूर में था ,कमबख्त अब राख बनने को तरसता हैं।।

कमेस्कम लिख कर महफूज़ कर दे मुझे सुना है अब तेरे ज़िक्र से भी बेदखल हूं ।।

हवाओं से कह दो थोड़ा आहिस्ता कदम उठाए यहां बस तस्वीरें बची हैं, चिराग कही और बुझाए।।

कितनो की किताब का हिस्सा है जो अपनी कहानी की किरदार नहि ।।

कुछ उधडे से होंगे फिर दिन आखिरी शाम कुछ यूं भारी होगी।।

वक़्त की कलम पकड़े कोइ हिसाब लिखती रही मेरे इश्के की महक हवा में मिलती रही, यह आखरी टुकड़ा है ऊँगलीयों में से छोड़ दो, उतार दो पन्नों पर की धुंधली सी लगे बातें, फकत, बस इसी बात पर कलम मुझसे लड़ती रही ।।

ना कर यादों का कारोबार ,इसमें मुनाफा कम है, जला तस्वीरें , बहा बाते , वक़्त की शाख पे अब रिश्ते कम हैं ।

तुम्हे उल्फत नहीं मुझसे, मुझे नफरत नहीं तुमसे, बस शिकवा रह गया , तुम्हे मुझसे, मुझे तुमसे।।

कोई सुलह कराओ उलझनों से हमारी, कबसे मुस्कुराने की तलब लिए बैठे हैं ।।


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