मान भी लो कभी तो,
जो ठान लिया वो मंदगति या द्रुतगति से पाना है, आसमान को छूकर ही वापस आना है
छोटे से पर हैं उस पतंग के,
जाने कितने दूर तक जायेगी,
पर ये तय है जाएगी जहाँ तक,
इक मुकाम बनाकर आएगी|
खेल कहाँ समझ लिया है इस जिंदगी को जनाब आपने,
यहाँ मोहरे भी होते हैं तो असल हजूरी करते हैं|
कहते नहीं तो क्या कभी सहते नहीं,
क्यूँ समझ लेते हो फिर,
दिखते नहीं तो कभी रोते नहीं।
बिन फेरे तुझे अपनायें कैसे,
भले ही बजूद से मतलब ना हो फिर भी,
दुनिया का दौर बुरा मान जाएगा|
श्राध्द कर दिया गया है उन संस्कारों का,
जो गाँव से शहर की ओर गए थे.
कठपुतलियां के भी कुछ राज तो जानता होगा ये इंसान,
तभी औरों के जैसे उनको भी नचा लेता है।
बिटिया जो कही लक्ष्मी जाती,
पराया धन क्यूँ कह दी जाती,
क्या अमानत ही समझकर लाड़ किया जाता है उससे,
या कलेजे का टुकड़ा सिर्फ लड़का ही होता है|
अब ना हो उस सीता की अग्नि परीक्षा,
राम भी तो हमेशा सही नहीं होते।