फ़कीर सा बंदा हूंँ, शब्दों का धनी।
Share with friendsवक्त संग इस ढलते दिन जैसे ढलते देखा है मैंनै कुछ रिश्तों को, गुम होते सूरज जैसे ही गुम होते देखा है कुछ लोगों को, इन झड़ते पत्तों सा ही टूट कर बिखरा हूंँ मैं भी, मगर बस चाँद सा कोई ना मिला इन नम अंधेरी रातों में उजाला करने को।
Your thoughts are like the weeds that bother, they too pop up out of somewhere every time unwantedly!