दुनियां में रचे युद्ब सारे हुए न होते कभी जो
समझी होती सभ्यता ने चुम्बन की भाषा ।।
मैं, मैं नहीं तुम हो जाऊँ दिल से होकर
मन तेरे की हो जाऊँ ,
आँगन तेरे की मैं तुलसी हो जाऊँ ,
रंग में तेरे रंग के मैं पूरी हो जाऊं ।।
कुछ ऐसी है इन लबों की गुज़ारिश ...
की आज तुम मुझमे उतरो ऐसे जैसे ,
उतरती है आसमान से बारिश...।।
की जकड़ लो मुझे यूँ बाहों में अपने जैसे ,
चाँद ने जकड़ी है चांदनी।।