गुज़ारा चल जाता है अपनों के बिना,
लेकिन नहीं मुमकिन है जीना सपनों के बिना ।
मेरी पहचान मेरे पापा से है,
अब बस उनका सहारा बनने की कोशिश है।
जीतकर भी हार जाती हूँ,
जब लड़ाई अपनों से होती है।।
हवाओं पर लिखा हैं मैंने,
बस अपना एक खाब।
लिखते ही मेरे सवालों को,
मिल गया जवाब ।।
ख़्वाहिशें तो मंजिल पाने की थी,
ना जाने कब इस सफ़र से ही प्यार हो गया ।
कुछ लफ्ज़ सांसों में ही समाए होंगे,
तो कुछ लफ्ज़ जुबां पर भी आए होंगे,
काश!! समझ पाते वो इन आँखों के राज़ ,
इन आँखों ने उन्हें तो बताए होंगे ।।