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ठुल कुड़ी (बड़ा घर)

ठुल कुड़ी (बड़ा घर)

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फिर उसने अमा से चिरौरी की “‘ठुल कुड़ी’ दिखा दो अमा... परसों कॉलेज खुल जायेगा और वो शहर चली जायेगी।” कितने सालों से वो चाहती थी कि पहाड़ी गांव के बीचों बीच बने 'रंगूनवालों की कुड़ी' देखने की! दो तल्ले का हवेलीनुमा घर है, जिसे बूबू ने बर्मा में लकड़ी के कारोबार और ठेकों की कमाई से बनवाया था। जिसमें बड़े बड़े लकड़ी के बने झरोंखे, छज्जे खूबसूरत नक्काशी किये हुये थे। चॉकलेटी रंग का पेन्ट कभी हुआ होगा उसकी चुगली भर बची है अब, दिवारों में कई जगह प्लास्टर उधड़ने लगा है।


"अमा प्लीज आज तो दिखा दो ना, अब मैं बड़ी हो गई हूँ। तुम कहती थी, ठुली है ज्यों तब दीखूंल। अब मैं एम.ए.कर रही हूं... जानती हो एम.ए मतलब...पन्द्रहवीं कक्षा में आ गई हूं और कितनी बड़ी होना है मुझे?”


"मां बाबू से कहती हूं हवेली दिखाओ तो वे कहते हैं, अपनी अमा से कह, वे ही मालकिन है उस भुतहा हवेली की और तुम टालती रहती हो... अमा खुदा न खास्ता अगर तुम्हें या मुझे कुछ हो गया तो हवेली के किस्से ऐसे ही मर जायेंगे ना!”


ये शब्द सुनकर अमा ने चौंक कर उसे देखा। उनकी आंखें पनीली हो आई, धीरे से उठी और अपने लंगड़ाते हुये पांव को सहारा देने के लिये अपनी लाठी और चाबी का बड़ा सा गुच्छा उठाया और बोली 'हिट!’ वो खुशी खुशी अमा के साथ निकल पड़ी, अमा बड़ी मुश्किल से पहाड़ी ढ़लान में उसका हाथ पकड़ कर धीरे धीरे उतरने लगी।


हवेली के चारों और बेतरतीब झाड़ियां, घास उग आई थी, कभी कभी गांव के लोग गाय के लिये घास काट लेते पर मां और अमा को कभी वहां से घास लाते किसी ने नहीं देखा। ठुलकुड़ी के बाहर से ऊपर तल्ले में जाने की सीढ़ीयां बनी थी, ऊपर चढ़ते हुये एक पल के लिये अमा के पांव कांप उठे, उसने आकर सहारा दिया और हाथ पकड़ कर सीढ़ी चढ़ाने लगी, मुख्य द्वार पर जंग लगा ताला खोलना भी मेहनत भरा काम था।


दरवाजा खुलते ही सीली सीली सी बदबू के झोंके से उसने सिरहन सी महसूस की। बीस बाय बीस के लाईन से बने छः कमरे और उतनी ही लम्बी चाख(कॉरीडोर) अन्तिम सातवां कमरा जो बहुत बड़ा था, उसमें कोई दरवाजा नहीं था। खूब बड़ा सा आर्क खूबसूरत नक्काशीदार लकड़ी के पिलर से बना हुआ, कुछ पुराना धूल और मकड़ी के जाले से भरा फर्नीचर पड़ा था। जिसमें सबसे आकर्षक एक आराम कुर्सी और ऊपर टंगा झूमर था जिसमें कभी पचासों कैंडल साथ जलती होंगी, दीवारों में धुंधली हो आई ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें लगी थी, जिन में बूबू अपने गोरे मित्रों के साथ बंदूक लिये खड़े थे, एक खुली जीप में पांच खूंखार शिकारी कुत्तों के साथ बैठे हुये थे, एक फोटो में बूबू अपने दोनों भाइयों के साथ कुर्सी में बैठे थे, पीछे तीनों की पत्नियां खड़ी थी।


अमा की फोटो की ओर इशारा करके वो बोली, "अमा ये तुम हो ना?” अमा ने सर हिला के सहमति दी, एक फोटो में जिसमें बूबू काफी कम उम्र की बर्मीज महिला के साथ खड़े थे, कुछ फोटो धूल धूसरित जमीन में पड़ी हुई थी, कईयों के शीशे टूटे हुये थे। उसने मुस्कुराते हुये पूछा, “अमा ये कौन?"


“ये ही तो है वो छिनाल... वहीं से लेकर आये तेरे बूबू इसे... इसी ने किया सर्वनाश सबका, हुड़कानियों को बिठा कर गवाया, पतुरियों को नचाया, रात बिताई... सब सहा मैंने... चार बच्चे थे मेरे... कहां जाती मैं...पर उस दिन तेरे नन्का(छोटा चाचा) को बुखार था, कहती रही मैं वैद्य को दिखा दो, अंग्रेजी डाक्टर को दिखा दो... मरा वो रात की दावत की तैयारी में था, उसके जैसे आवारा यार दोस्त आने वाले थे।”


“रात तक छुटके का बुखार सर में चढ़ गया, सब कुकूर जैसे पी पाके पतुरियों के साथ कमरों में बंद हो गये... मेरा छुटका चला गया उसी रात... फिर मैंने आपा ही खो दिया था, दरवाजे को हाथ पांव से पीटती रही, उसी छिनाल ने खोला था दरवाजा... अपनी भाषा में कुछ कहां तेरे बुबू से... अधनंगा नशे में धुत्त दनदनाता हुआ आया और मेरी बात सुने बिना बहुत जोर से लात मारी थी मुझे! बोला, कल सुबह से इस घर में दिखी तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा, कल ही बच्चों को लेकर पुराने घर में चली जा!”


“पर मैंने भोर भी नहीं होने दी, उसी रात तेरे मरे नन्का को कंधे में डाला और बच्चों को लेकर अपनी पुरानी कुड़ी में आ गई। सुबह गांव वालों ने मदद की थी हमारी। तेरा बबा हरि तो चौदह साल का था, सब समझता था, एकदम बड़ा हो गया था उसी रात से, कम खाया गम खाया... सब संभाला हरि ने, मुझे, दोनों बहनों को, उनकी शादी की, अपना घर बसाया... कभी बाप की सम्पत्ति की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखा।”


"चौतीस साल हो गये है कभी कदम नहीं रखा इस बड़ी कुड़ी में मैंने!! आज तेरी जिद्द ने मेरी कसम तोड़ दी। मेरी और छुटके की आह तो लगनी ही थी। एक दिन वो छिनाल सब लटी पटी(धन दौलत) लेकर नौकर के साथ चम्पत हो गई, दो-तीन दिन बाद ठुल कुड़ी से बास आने लगी गांव वालों को शक हुआ कुछ तो है गड़बड़! बड़ा द्वार खाली भिड़ा हुआ था, अन्दर इसी आराम कुर्सी में तेरे बूबू मरे पड़े थे... गांव वालों ने बदनामी के भय से चुपचाप अन्तिम संस्कार करने की राय दी... तर गया था पापी उस दिन ... तेरे बबा का तो जनेऊ संस्कार भी नहीं हुआ था... भतीजे अम्बा ने अन्तिम काज किया उसका, पर इस कुड़ी में रहने को वो भी तैयार नहीं!”


“और जो लंगड़ाते पांव को देख रही है ना वो उसी रात का इनाम था मेरा!”


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