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अकेला चल चला चल

अकेला चल चला चल

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सुबह के सवा सात बजे थे और शेखर की ट्रेन आठ बजे छूटने वालीथी। यानी कि अभी प्लेटफॉर्म पर खड़े-खड़े पूरे पौन घण्टे बिताने थे। वह अभी सोच ही रहा था कि आधा पौन घण्टा कैसे बिताया जाय? इसी बीच शेखर कीनिगाह सामने तेजी से लगभग भागते हुए आ रहे व्यक्ति पर पड़ी। वह व्यक्ति खादी का कुर्ता पायजामा पहने था। घुंघराले बालों में कुछ सफ़ेदी आंखों पर चश्मा। पर सबसे ताज्जुब वाली बात उसके दोनों मुड़े पतले-पतले हाथों में लटका वजन था। उसके एक हाथ में अटैची और दूसरे में बैग लटका था। इतना बोझा लेकर उस व्यक्ति को इतनी तेज चलते देख प्लेटफॉर्म का हर व्यक्ति चौंक जा रहा था। काफ़ी नज़दीक आ जाने पर शेखर ने उसे पहचान लिया। अरे यह तो अपना शशांक है। प्रोफ़ेसर शशांक शेखर। एक विश्वविद्यालय में इंगलिश डिपार्टमेंट का हेड। शेखर ने आगे बढ़कर शशांक का गर्मजोशी से स्वागत किया।

 “अरे शेखर तुम यहां?” प्रोफ़ेसर शशांक ने अभिवादन का उत्तर देकर पूछा।

 ” हां, भई ज़रा पटना तक जा रहा हूँ। अभी मेरी ट्रेन आधे घण्टेबाद है। लेकिन तुम इतना सामान लेकर इतनी तेजी से ...?”

 “भाई शेखर, मैं दिल्ली निकल रहा हूँ। ट्रेन छूटने में सिर्फ़ पांच मिनट बाकी है। इसलिए थोड़ा तेजी से जा रहा हूँ।” प्रो0 शशांक जल्दी से बोले।

“तो लाओ तुम्हारा कुछ सामान मैं पहुंचा दूं। ” शेखर ने सहायता की पेशकश की।

 “पर तुम्हारा सामान?” शशांक के चेहरे पर असमंजस के भाव थे।

 “मेरे सहयोगी देख लेंगे। मैं तुम्हें ट्रेन पर बैठाकर लौट आउंगा।”

 “तो ऐसा करो शेखर, तुम मेरा नहीं बल्कि पीछे आ रहे मेरे विद्यार्थी से एक अटैची ले लो। उस बेचारे के पास तीन-तीन अटैचियां हैं।” कहते हुए प्रो0 शशांक ने पीछे आ रहे अपने एक विद्यार्थी की ओर इशारा किया। शेखर ने आगे बढ़ कर उस विद्यार्थी से एक अटैची ले ली। प्रो0 शशांक के साथ वे दोनों भी तेजी से ओवरब्रिज की तरफ बढ़ चले। शशांक की ट्रेन प्लेटफॉर्म पर ही लगी थी। शेखर ने प्रो0 शशांक को ट्रेन पर बैठा दिया और विदा करके अपने प्लेटफॉर्म पर आ गया। थोड़ी ही देर में उसकी भी ट्रेन आ गई और वह जाकर अपनी बर्थ पर बैठ गया और कुछ ही देर में उसकी भी ट्रेन चल पड़ी।

ट्रेन हरे भरे खेतों के बीच से भागी जा रही थी। खिड़की के पास बैठकर ठंढी हवा का आनन्द लेता हुआ शेखर प्रो0 शशांक के बारे में सोचने लगा। गजब के जीवट और हिम्मत वाले व्यक्ति हैं प्रो० शशांक। शेखर, शशांक को बचपन से ही जानता है। तब से जब शशांक को गांव के बच्चे चिढ़ाया करते थे। क्योंकि बचपन से ही शशांक के हाथ कुछ छोटे-छोटे और एकदम पतले

दुबले थे। एकदम पोलियो के मरीज़ों की तरह। लेकिन उसमे भी उसकी क्या गलती थी?

शशांक का जन्म एक गरीब कायस्थ परिवार में हुआ था। उसके पैदा होने पर माँ बाप को बेटा पैदा होने की ख़ुशी तो ज़रूर हुई पर उसके हाथों कदेखकर गहरा सदमा भी लगा। उसके हाथ सामान्य से छोटे थे। इतना ही नहीं पतले-पतले दोनों हाथ आगे से थोड़ा मुड़े भी थे। ऐसा लगता था हाथों में लकवा मार गया हो। गांव के वैद्य से लेकर शहर के कई बड़े-बडे़ डॉक्टरों को भी दिखाया गया, पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। डॉक्टरों द्वारा सुझाए गए कई तेलों की मालिश भी उसके दोनों हाथों में सालों तक की गई। उससे इतना फ़र्क तो ज़रूर पड़ा कि हाथों में थोड़ी मजबूती आ गई लेकिन हाथ पूरी तरह ठीक नहीं हुए। अन्त में थक हार कर शशांक के माता पिता चुप बैठ गए। उन्होंने अपने मन को यही ढांढस दिया कि चलो तीन भाइयों के बीच एक भाई अपंग ही सही। कम से कम उसका दिमाग और बाकी शरीर तो ठीक ठाक है। कट जाएगा इसका भी जीवन किसी तरह।

शशांक के हाथ ज़रूर कमज़ोर थे लेकिन उसकी बुद्धि काफ़ी तेज थखेलते समय पैदा हुई बच्चों की हर समस्या व अड़चन को वह मिनटों में सुलझादेता था। किसी के द्वारा बताई गई कोई बात या घटना उसे हमेशा याद रहती थी।

हां,ये ज़रूर था कि गांव में खेलते समय बच्चे उसे चिढ़ाते बहुत थे। लेकिवह बच्चों द्वारा चिढ़ाए जाने पर गुस्सा नहीं होता था। बल्कि गुमसुम हो कर या कहें रूठ कर किसी पेड़ के नीचे अकेला बैठ जाता था। कुछ देर बाद ही वही बच्चे जाकर उसकी मान मनौव्वल करते और उसे अपने साथ खेलने के लिए ले जाते।

 शशांक के पिता जी ने अपने दोनों बड़े बेटों को तो पढ़ने के लिगाँव के ही स्कूल में भेजना शुरू कर दिया। पर शशांक को स्कूल भेजने में उन्होंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। जब दोनों बड़े भाई स्कूल चले जाते तोशशांक घर पर बैठा उनकी किताबें उलट पलट कर देखता रहता। कभी ज़मीन पर बैठा-बैठा पैरों से कच्ची फ़र्श पर गोचा गाची करता रहता। एक दिन शशांक भी बड़े भाइयों के साथ स्कूल जाने की ज़िद करने लगा। उसकी ज़िद देखकर पिता ने उसे डांट दिया, “शशांक, तू क्या करेगा स्कूल जाकर। लिख पढ़ तो पाएगा नहीं। फालतू में समय और पैसे की बर्बादी होगी और कुछ नहीं।”

“नहीं पिता जी मैं भी स्कूल जाउंगा। सारा दिन घर में बैठे-बैठे ऊबता रहता हूँ। ”शशांक मचलता हुआ बोला।

तो बाहर जाकर खेलकूद लिया कर। अब तेरे भाग्य में स्कूल जाना, पढ़ना लिखना नहीं है। भगवान ने तेरे हाथ ही ऐसे बना दिए कि तू कुछ लिख पढ़ ही नहीं पाएगा।” पिता जी ने उसे समझाने की कोशिश।

“भगवान ने मेरे हाथ ऐसे बना दिए तो क्या? उन्होंने मुझे लिखने पढ़ने से तो रोका नहीं। मैं भी लिख पढ़ कर भगवान को दिखला दूंगा। कहते-कहते शशांक का चेहरा तमतमा उठा था। पिता जी तो शशांक के चेहरे के दृढ़ विश्वास और निश्चयात्मक भावों को देखते ही रह गये। इतना छोटा साबच्चा और ये आत्मविश्वास।

“वह तो ठीक है बेटा पर तू लिखेगा कैसे?” पिता अब भी शशांक के आत्मविश्वास को लेकर संशय में थे।

 “रूकिए मैं अभी आपको दिखा देता हूँ। मेरे हाथ खराब हैं तो क्या?” वह तुंरत ही आंगन में पड़ी दातून उठा लाया और ज़मीन पर बैठकर दातून को हाथों में कलम की तरह फंसा लिया। फिर उसने पैरों की सहायता से टेढ़ा मेढ़ा ‘अ’‘आ’ बना दिया। उसके माता पिता के साथ दोनों भाई भी आश्चर्य में पड़ गए।

“बेटा शशांक तुमने ये लिखना कैसे सीख लिया?” पिता ने पूछा।

सभी के चेहरे पर अभी भी आश्चर्य के भाव थे। शशांक ने उन्हें समझाया, “पिता जी,जब छोटे भइया स्कूल से आते थे तो मैं उनकी तख्तियों पर लिखे अक्षर देखा करता था और उन्हें इसी तरह पैर की सहायता से ज़मीन पर लिखने की कोशिश करता था।”

 “शशांक ठीक कह रहा है। यह रोज़ दोपहर में अकेले बारामदे में बैठा कुछ गोचा गाची करने की कोशिश करता रहता था। अब मेरी समझ में आया कि यह लिखने की कोशिश करता था। शशांक की माँ बोलीं। माँ ने कुछ देर सोचा फिर पिता जी से बोलीं,“सुनिए, मेरा कहना मानिए तो आप इसका भी दाखिला कल ही स्कूल में करवा दीजिए।”

 “ठीक है तुम कहती हो तो कल ही मैं स्कूल जाकर पंडित जी से बात कर लेता हूँ।” पिता जी ने कहा।

इस तरह शशांक भी गाँव के स्कूल में जाकर पढ़ाई करने लगा। शुरूमें तो उसे थोड़ी कठिनाई हुई थी। लेकिन बहुत जल्द ही शशांक की बुद्धि का लोहा उस स्कूल के सभी अध्यापक मान गए। वह जो बात एक बार सुन या पढ़ लेता उसे फौरन याद हो जाती। कठिन अभ्यास से उसने सामान्य बच्चों की तरह लिखना भी शुरू कर दिया। उसकी राइटिंग देखकर तो सब आश्चर्य चकित हो जाते थे। टेढ़े हाथों में कलम फंसा कर पैरों की सहायता से भी कोई बच्चा इतने सुन्दर मोती जैसे अक्षर लिख सकता है।

ट्रेन किसी प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी। शेखर ने एक अख़बार बेचनवाले से कोई पत्रिका खरीदी। एक प्याला चाय लेकर पी। इसी बीच ट्रेन फिर चल पड़ी। शेखर पत्रिका के पन्ने पलटने लगा। पर उसका मन नहीं लगा। पत्रिका किनारे रखकर वह फिर खिड़की से बाहर देखने लगा। उसका मन अब भी शशांक के बचपन के बारे में ही सोच रहा था।

उस समय वे कक्षा पांच में थे। शेखर को याद है एक दिन स्कूल में डिप्टी साहब आने वाले थे। स्कूल के सभी बच्चों से कहा गया था कि वे नहा धोकर, साफ़-सुथरे कपड़े पहन कर आएं। कुछ बच्चों को कविता भी याद करा दगई थी। शशांक के तेज दिमाग को देखते हुए स्कूल के प्राचार्य ने उसे डिप्टी साहब के सामने शिक्षा के महत्व पर एक छोटा सा भाषण देने के लिए कहा था।

डिप्टी साहब ने जब शशांक का भाषण सुना वे गद गद हो गए। उन्होंने सभी के सामने कहा कि, “प्राचार्य जी देख लीजियेगा एक दिन शशांक बहुत बड़ा विचारक बनेगा।” फिर थोड़ा संकोच करते हुए उन्होंने एक शंका भव्यक्त की, “प्राचार्य जी, शशांक लिख कैसे पाता होगा?”

डिप्टी साहब की इस शंका का समाधान भी शशांक ने किया। उसने उनके सामने ही अपने हाथों में कलम फंसा कर पैरों की सहायता से लिखकर दिखाया। शशांक के लिखने के ढंग और मोतियों जैसे अक्षर देखकर तो डिप्टी साहब की ख़ुशी की सीमा न रही। उन्होंने ख़ुश होकर प्राचार्य जी से कहा कि“मैं आपके इस होनहार विद्यार्थी को कक्षा छः से पढ़ाई पूरी होने तक सरकारद्वारा वज़ीफ़ा दिए जाने की संस्तुति करुंगा।” डिप्टी साहब की घोषणा सुनकर सिर्फ स्कूल के ही नहीं पूरे गाँव के लोगों की ख़ुशी का ठिकाना न रहा।आख़िर गाँव के एक बच्चे ने यह साबित कर दिया कि हाथों की खराबी पढ़ाई लिखाई या किसी क्षेत्र में बाधक नहीं बन सकती।

इसी घटना के बाद शशांक की वैचारिक या रचनात्मक यात्रा की शुरूआत हो गई। जूनियर कक्षाओं के दौरान ही शशांक छोटी-छोटी कविताएं, कहानियां लिखने लगा था। स्कूल की वाद-विवाद, भाषण प्रतियोगिता में वह हमेशा बाजी मार ले जाता। बल्कि शेखर तो कभी-कभी उससे कहता भी था कि, “देख शशांक, कम से कम एक बार तो तू किसी दूसरे बच्चे को भाषण, वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम आने का मौका दे।” शेखर की बात सनुकर शशांक कुछ उत्तर नहीं देता था बल्कि सिर्फ मुस्कुरा देता।

अपनी इण्टर कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही शशांक के अन्दरआन्दोलनों, राजनीतिक दलों, स्वतंत्रता आन्दोलन, स्वराज, तानाशाही आदि शब्दों और बातों की अच्छी समझ विकसित हो चुकी थी। वह अंग्रेज़ों के ख़िलाचलाए जा रहे आन्दोलनों के ऊपर अपनी प्रतिक्रिया, टिप्पणी भी दोस्तों के सामने व्यक्त करता। उसके इण्टर कॉलेज के सहपाठी उसके वैचारिक चिन्तन के

स्तर को देख कर उससे कभी-कभी ईर्ष्या भी करते थे। इण्टर की पढ़ाई के दौरानही शशांक लियो टॉल्स्टॉय, मैक्सिम गोर्की, हरमन मेलविल, ब्रेख्ट जैसे रचनाकारों और अरस्तू, प्लैटो, कार्ल मार्क्स, लेनिन जैसे विचारकों से

रूबरू हुआ।

बी0ए० की पढ़ाई के लिए विश्वविद्यालय में दाखिला लेते-लेतेशशांक एक युवा समाजवादी विचारक बन चुका था। उस समय तक शशांक ने अख़बारों में वैचारिक लेख भी लिखना शुरू कर दिया। वह लोहिया, नेहरू, गांधी जैसे राजनीतिज्ञों के विचारों पर अपनी प्रतिक्रियाएं लेखों के रूप में व्यक्त करता। इनमें भी लोहिया के विचारों से वह अधिक प्रभावित था। उसका पूरा विश्वास था कि एक न एक दिन हमारे भी समाज में लोगों की सोच बदलेगी और क्रान्ति आएगी। विश्वविद्यालय की पढ़ाई के दौरान ही शशांक ने कहानियां,कविताएं भी लिखनी शुरू कर दी। उसकी कविताएं, कहानियां, साहित्यिक लेख सभी मुख्य पत्रिकाओं में छपने लगे। कभी-कभी शेखर उससे कहता भी कि, “शशांक, मैं एक बात समझ नहीं पा रहा हूँ कि तू बनना क्या चाहता है? साहित्यकार,

लेखक या राजनेता?”

शेखर के इस प्रश्न पर शशांक कुछ देर मुस्कुराता रहता और फिर कहता, “देखो शेखर, भगवान ने मुझे जो बनाना था बना दिया और अब मैं अपने से क्या बता दूं कि क्या बनूंगा? हां, मेरी आत्मा जब, जो जैसा करने का निर्देश देती है मैं वही करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि पूरे जीवन में मुझसे कभी किसी व्यक्ति का बुरा न हो। जो कुछ मुझे ईश्वर दें, चाहे वह ज्ञान हो या धन, मैं उसका ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सा लोगों को बांट सकूं।” शेखर उसकइन दार्शनिक विचारों को सुनकर हंस पड़ता।

     

यह संयोग ही था कि बचपन से एक साथ ही स्कूल फिर एक ही विश्वविद्यालय में पढ़ाई करके शशांक उसी विश्वविद्यालय में लेक्चरर हो गयाऔर शेखर प्रशासनिक सेवा में चला गया। उसके बाद दोनों के रास्ते अलग-अलग हो गए थे। कुछ दिनों तक कभी-कभी मुलाकात होती रहती थी फिर वह भी होनी बन्द हो गयी और इस बार प्लेटफॉर्म पर हुई क्षणिक मुलाकात तो लगभग बीस

वर्षों के बाद हुई थी।

इस बीच शशांक की शादी हुई, बच्चे हुए। शशांक अपने विभाग का हेड भी बन गया। शशांक की शादी के बाद एक बार वह उससे मिलने इलाहाबाद गया भी था पर मुलाकात नहीं हो पाई। शशांक उस समय बाहर गया हुआ था। उसकी पत्नीगायत्री देवी और बच्चों से भेंट हो गई थी। गायत्री देवी को देखकर तो शेखर ठगा सा रह गया। इतनी सुंदर, शांत, सौम्य महिला उसने जीवन में कभी नहीं

देखी थी। एक बार तो उसे शशांक के भाग्य से ईर्ष्या भी होने लगी।

ऐसा नहीं था कि पिछले बीस वर्षां में शेखर ने शशांक की कोई ख़बर नहीं ली थी। उसे अख़बारों, पत्रिकाओं में छपने वाले शशांक के लेखों सउसके विचार मिलते रहते थे। उसके उपन्यास, कविता संग्रह, कहानी संग्रह, आलोचनात्मक ग्रन्थों के छपने पर शेखर उसकी प्रति ज़रूर खरीदता था। उसे पत्र भेज कर बधाइयां देता था। पर मुलाकात न हो पाती। कभी-कभी तो मुलाकात के अवसर पास आकर भी वह शशांक से न मिल सका। उसे याद है जब शशांक को साहित्य का सर्वोच्च सम्मान भारत-भारती मिलने की घोषणा हुई थी तो उसने फौरन पत्र लिख कर उन्हें बधाई दी थी और सम्मान समारोह में शामिल होने का कार्यक्रम भी बनाया था। लेकिन ऐन मौके पर उसे अमेरिका जाना पड़ गया और इसबार भी वह शशांक से मिलने से वंचित रह गया था।

लेकिन एक बात का शेखर को गर्व ज़रूर होता था कि जिस शशांक को बचपन में गाँव के बच्चे चिढ़ाया करते थे। यहां तक कि उसके पिता तक ने कह दिया कि तू क्या पढे़गा लिखेगा। उसी शशांक ने अपनी मेहनत और दृढ़ इच्छाशाक्ति के बल पर ऊंचाइयों के शिखर को छुआ था। उसे इस बात का गर्व था कि वह एक ऐसे महान व्यक्ति का मित्र है। 

ट्रेन एक झटके के साथ रूक गई और शेखर के विचारों का क्रम भी टूट गया। शेखर ने प्लेटफार्म की तरफ देखा एक विकलांग बच्चा उसकी तरफ भीख का हाथ बढ़ाए खड़ा था। शेखर ने सोचा कितना फर्क है इन बच्चों और शशांक में? क्या ये भी शशांक नहीं हो सकते? क्या इन्हें भी शशांक बनने की प्रेरणा नहीं दी जा सकती? क्यों नहीं? और यही वह क्षण था जब शेखर ने प्रो0 शशांक के जीवन को आधार बना कर एक पुस्तक लिखने की योजना बनाई। और यह पुस्तक ”अकेला चल चला चल“ शेखर की उसी योजना का परिणाम है।


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