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Vrajesh Dave

Drama

2.5  

Vrajesh Dave

Drama

हिम स्पर्श १

हिम स्पर्श १

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“हम रंग एवं प्रकाश को पसंद करते हैं, स्नेह भी करते हैं। मैं और आप, हर स्थान पर सदैव रंगों की अपेक्षा करते हैं, प्रकाश की अपेक्षा करते हैं। हम में से कोई भी अंधकार को पसंद नहीं करता। एक ऐसा अंधकार जहाँ कुछ भी ना हो। सब कुछ खाली हो। प्रकाश विहीन वह क्षण, रंग विहीन वह क्षण।

अंधकार।

केवल अंधकार।

गहन अंधकार।

जहाँ हम आँखें खुली रखकर भी कुछ ना देख सके....” एक भीड़, जो खुली हुई आँखों के साथ अंधेरे में धीरे-धीरे बह रही थी, के कानों पर यह शब्द पड़ रहे थे।

वह भीड़ समुद्र तल से चौदह हजार फीट की ऊँचाई पर हिमालय की किसी अज्ञात चोटी पर अस्थायी रूप से बनाई गई कला दीर्घा के बाहर खड़ी थी, अंदर घुसने की चेष्टा कर रही थी। दीर्घा का द्वार खुल तो चुका था किन्तु चारों तरफ फैले अंधकार में किसी को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। केवल वह शब्द उनके कानों तक जा रहे थे।

यह भीड़, जो अंधकार से त्रस्त थी, रंगों से वंचित थी और खालीपन से भरपूर थी, को यह भी ज्ञात नहीं था कि हिम और सूरज साथ मिलकर कैसे कैसे रंगों का सृजन कर चुके थे।

सूरज अभी पूरी तरह से निकला भी नहीं था, हिम तब भी था।

हिम। श्वेत हिम !

और कोई रंग नहीं। केवल श्वेत रंग छाया हुआ था पहाड़ के कण-कण में। जैसे अंधकार को कोई रंग नहीं होता, हिम का भी कोई रंग नहीं था। कहने को तो था श्वेत रंग, किन्तु हिम रंग विहीन था।

सूर्योदय और सूर्यास्त इस पहाड़ी चोटी के लिए दुर्लभ घटनाएँ है किन्तु उस दिन सूरज निकला था, काले और बड़े बादलों को चीरकर निकला था। सूरज अपनी प्रचंड शक्ति से प्रज़्वलित था। उसकी किरणें गाढ़े श्वेत हिम को पूरी तीव्रता और निष्ठा से प्रताड़ित कर रही थी किन्तु, हिम जो था, निस्पृह और अप्रभावित।

हिम की बाहरी परत पर कुछ सब कुछ स्थिर था, युगों से खड़े इस पर्वत की भांति।

हिम की परत के नीचे छिपा पानी सदैव प्रतीक्षा में रहता है, हिम के पिघलने की। पानी उत्सुक भी रहता है– हिम की दीवार को तोड़कर बह जाने के लिए। किन्तु हिम की दीवार सशक्त थी अथवा सूरज की किरणें दुर्बल थी, मैं नहीं जानता क्या कारण था, किन्तु सूरज की किरणें हिम की दीवार को तोड़ नहीं पाई, हिम के नीचे छिपे पानी से मिल नहीं पाई।

सूरज की किरणें फिर भी निराश नहीं हुईं। हिम को तोड़ने की योजना छोड़कर अन्य योजना पर काम करने लगी। किरणें हिम की सतह को स्पर्श करके परावर्तित होने लगी, हवा में व्याप्त होने लगी। हवा में इंद्रधनुष रच गया। एक, दो, तीन, चार... देखते ही देखते अनेकों इंद्रधनुष रच गए। दाएँ भी, बाएँ भी, पूरब में भी, पश्चिम में भी, उत्तर में भी, दक्षिण में भी, ऊपर भी, नीचे भी, दिशाओं में भी और क्षितिज में भी। जहाँ भी दृष्टि जा सकती थी वहाँ तक इंद्रधनुष ही दिखाई पड़ते थे।

कुछ क्षण पहले जहाँ केवल श्वेत रंग ही था, वहाँ रंगों की वर्षा होने लगी थी। दसों दिशाओं में रंग व्याप्त थे। श्वेत हिम अनेक रंगों से भर गया था। श्वेत, हरा, नीला, लाल, नारंगी, पीला, ... जैसे प्रत्येक रंग अपनी अपनी लय में नृत्य कर रहे हो। श्वेत हिम स्वयं ही टूटने लगे, उसने अपना श्वेत रंग त्याग दिया। सूरज के किरणों की योजना सफल हो गई।

ऐसे रंगों से अनभिज्ञ भीड़ अंधकार में बहती हुई उन शब्दों के सहारे आगे बढ़ रही थी। भीड़ उत्सुक थी कला के रंगों को देखने के लिए। वफ़ाई एवं जीत के द्वारा रचे गए चित्रों में इस भीड़ की रुचि थी। भीड़ को जिज्ञासा थी रंगो के आपसी संयोजन को देखने की, रंगों से उभरते हुए दृश्यों से होने वाली अनुभूति की।

दो सौ से कुछ अधिक व्यक्तियों से बनी इस भीड़ में बड़े-बड़े नाम सम्मिलित थे। विश्व के कई प्रसिद्ध चित्रकार, कला के बड़े सौदागर, कला के बड़े माफिया, बड़े उद्योगपति, खेल एवं फिल्मों की बड़ी हस्तियाँ उस भीड़ का भाग थे।

नहीं। भीड़ में सम्मिलित व्यक्तियों की भांति वफ़ाई कोई बड़ी व्यक्ति नहीं थी और ना ही जीत। वफ़ाई और जीत सामान्य व्यक्ति थे। कुछ दिवस तक यह दोनों चित्रकार भी नहीं थे।

कुछ दिवस पहले वफ़ाई एक तसवीरकार थी, किन्तु चित्रकार तो बिलकुल नहीं थी। सन्मान पूर्वक हम उसे तस्वीरी पत्रकार कह सकते हैं, किन्तु वफ़ाई को चित्रकार कहना उचित नहीं होगा।

चित्र प्रदर्शनी का समय प्रत: ग्यारह बजे का था। प्रवेश द्वार पर रखी घड़ी जब 10.52 मिनिट का समय बता रही थी, अभी भी आठ मिनिट का समय शेष था, तब भीड़ अपना धैर्य खो रही थी। प्रतीक्षा कर रही भीड़ अधीर हो गई।

पूरी भीड़ अधीर थी अथवा भीड़ का कुछ हिस्सा अधीर था ? बात तो एक ही है। भीड़ को अधीर कौन बनाता है ? एक एक व्यक्ति, जो भीड़ का हिस्सा होता है, भीड़ को अधीर बना देता है, दिशा विहीन बना देता है।

भीड़ सदैव अधीर होती है, दिशा विहीन होती है, विचित्र होती है। जब कोई व्यक्ति भीड़ से अलग होता है तब वह मनुष्य की भांति अभिव्यक्त होता है किन्तु जैसे ही वह भीड़ के अंदर पिघल जाता है, ना जाने उसे क्या हो जाता है, वह अपना व्यक्तित्व खो देता है। यह कैसी विडम्बना है ?

सभी आमंत्रित गण्य मान्य व्यक्ति अपना अपना धैर्य खोने लगे। वह सब भीड़ की भांति व्यक्त होने लगे। क्यों नहीं ? अंतत: वह सब अब, व्यक्ति ना रहकर, भीड़ का हिस्सा जो बन गए थे। ऐसा कहो कि स्वयं भीड़ ही बन गए थे। भीड़ कभी शांत नहीं होती। वह भीड़ भी शांत नहीं थी।

भीड़ में शब्द जन्म लेने लगे। धीमी-धीमी ध्वनि जंगल की आग की भांति व्याप्त होने लगी, जो हिम के मार्ग से पूरे पहाड़ पर व्याप्त हो गई।

भीड़ चित्रों से आकर्षित होकर नहीं जुटी थी। और ना ही कोई वफ़ाई एवं जीत की चित्रकारी से प्रभावित था। वह तो केवल प्रदर्शनी के अनूठे स्थल के विस्मय से प्रभावित हो कर आई थी।

घड़ी ने ग्यारह बजे की सूचना दी। अंधकार ने दीर्घा पर अपना आधिपत्य जमा दिया था। सब की बातें बंद हो गई। सर्वत्र स्वयंभू मौन छा गया। जैसा गहरा मौन, वैसा ही गहन अंधकार। ऐसे गहन काले मौन में प्रवेश करने का साहस किया इन शब्दों ने....

“रंग एवं प्रकाश को हम पसंद करते हैं, स्नेह भी करते हैं। मैं और आप, हर स्थान पर सदैव रंगों की अपेक्षा करते हैं, प्रकाश की अपेक्षा करते हैं। हम में से कोई भी अंधकार को पसंद नहीं करता। एक ऐसा अंधकार जहाँ कुछ भी ना हो। सब कुछ खाली हो। प्रकाश विहीन वह क्षण, रंग विहीन वह क्षण।

अंधकार। केवल अंधकार। गहन अंधकार। जहां हम आँखें खुली रखकर भी कुछ ना देख सकें ....”

भीड़ के कानों में ये शब्द पड़ रहे थे। इस गहन अंधकार में दिशाहिन भीड़ शब्दों की दिशा में गति कर रही थी। एक निरुद्देश्य भीड़।

“हम अंधकार को पसंद नहीं करते। वास्तव में हम अंधकार से धृणा करते हैं। हां, यह स्वाभाविक है, सहज है। किन्तु, क्या आप जानते हो कि अंधकार का रंग होता है ? वह भी रंगों से भरपूर होता है ? केवल एक नहीं अपितु अनेक रंग होते हैं इस अंधकार में। अंधकार अनेक रंगों को धारण करता है, अपने अंदर उन्हें समा लेता है।

रंगों को जानने से पहले, प्रकाश को जानने से पहले, हमें अंधकार का अनुभव करना होगा। तत्पश्चात ही रंगों कि अनुभूति कर पाएंगे।

मुझे ज्ञात है कि इन शब्दों पर आप संदेह करोगे। यह स्वाभाविक है। मैं आपके इस संदेह का सम्मान करती हूँ। किन्तु मेरा विश्वास कीजिये, मेरे यह शब्द संदेह से परे हैं। यह सत्य है कि अंधकार एक रंग है। अंधकार में भी जीवन के रंग होते हैं। आप को अपनी खुली आँखें बंद करनी है और अपने भीतर देखना है। रंग निखर उठेंगे। जीवन के इन रंगों का आनंद लें।“

उन शब्दों को सुनकर भीड़ और भी व्याकुल हो गई।

अनेक संदेह भीड़ में प्रकट हो गए।

एक, अंधकार में आँखें कैसे बंद की जा सकती है ? और यदि आँखें खुली रख भी ली तो क्या अंतर पड़ेगा ?

दो, अंधकार के रंग होते हैं क्या ?

तीन, यदि अंधकार के रंग हैं तो वह कौन से है ? उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है ?

चार, कौन है जो इन शब्दों से भीड़ को दिशा दे रहा है ?

पाँच, अंधकार के इस सौन्दर्य को तुम कैसे जानते हो ?

ऐसे अनेक प्रश्नों से घिर गई वह भीड़।

“मैं दे सकता हूँ इन सभी प्रश्नों के उत्तर, यदि आप में इसे सुनने और जानने की उत्कंठा हो, धैर्य हो, साहस हो। आप के ह्रदय में इसके लिए तीव्र मनसा हो तो मैं आप को सब कुछ बता दूँगा। पूरी कहानी मैं प्रारम्भ से बताऊँगा। प्रत्येक क्षण, प्रत्येक घटना एवं प्रत्येक दृश्य आप के सम्मुख रख दूँगा।“ मैंने कहा।

“हाँ, हाँ, हमें सब सुनना है, सब देखना है, सब जानना है।“ भीड़ ने समूहगान में अपनी इच्छा प्रकट की।“ मुझे यह समूहगान कर्णप्रिय नहीं लगा।

“किन्तु मेरी एक बात मनानी होगी आपको।“ मैंने भीड़ के सम्मुख मेरी बात रखी।

“हमें आपकी सभी बातें स्वीकार्य है।“ भीड़ ने उत्तर दिया।

“ठीक है। सुनो। आप को एक वचन देना होगा कि इस पूरी कहानी के समय आप भीड़ का हिस्सा ना बनकर एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में मेरे साथ रहोगे।“

“तुम मुझे भीड़ से भिन्न स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में क्यूँ चाहते हो ?” भीड़ में से एक आवाज आई।

“भीड़ के विचार नहीं होते, ना ही भावनाएँ होती है। ना ही मस्तिष्क होता है और ना ही ह्रदय। यह सब केवल एक स्वतंत्र व्यक्ति में ही होता है।“

“ओह, अब समझा।“ सभी व्यक्ति ने कहा,” अब मैं एक व्यक्ति हूँ, किसी भीड़ का हिस्सा नहीं।“

भीड़ टूट गई, अनेक व्यक्तियों में बिखर गई। किन्तु अभी भी कोई भीड़ तो वहाँ थी ही। मैं हंस पड़ा,’ कितनी तुच्छ होती है भीड़, कितना समृद्ध होता है प्रत्येक व्यक्ति।‘

मैं भी भीड़ को छोड़ आया। चलिये, आपके साथ यात्रा का प्रारम्भ करते हैं। हाँ, हाँ, आपके साथ, केवल आपके साथ, अकेले में। मैं और आप, केवल दो व्यक्ति।

“तुम कौन हो ?’ आपने पूछा।

“मेरे अधरों पर आए स्मित को देखो, जो तुम्हारे कारण जन्मा है। मुझे तुम्हारा प्रश्न पूछना अच्छा लगा। व्यक्ति सदैव प्रश्न पूछता है, भीड़ नहीं। मुझे आनंद और संतोष है कि अब तुम स्वतंत्र व्यक्ति बन चुके हो। तुम अभिनंदन के पात्र हो। आशा करता हूँ कि कथा के अंत तक व्यक्ति ही बने रहोगे।“ मैंने कहा।

“मुझे तुम्हारे अधरों पर आए स्मित का अनुभव हो रहा है। मेरा वचन है कि मैं कहानी के अंत तक भीड़ का हिस्सा नहीं ....।“

“कहानी सुनने के बाद, मुझे विश्वास है कि तुम फिर कभी भीड़ में घुल नहीं जाओगे।”

“मैं खुश हूँ कि मैं एक व्यक्ति हूँ, पूर्ण रूप से स्वतंत्र व्यक्ति।“ तुम्हारे मुख पर स्मित है।

“स्वागत है, हे व्यक्ति। किन्तु रुक जाओ, चित्रों कि तरफ नहीं जाना। कथा सम्पन्न होने के पश्चात तुम प्रदर्शनी में जा सकते हो। चलो तुम्हें मैं कथा कि तरफ ले चलूँ।“ मैंने आँखें बंद कर ली।

प्रकाश का एक पुंज मंच पर उभरने लगा जिसमें वफ़ाई दिखाई दे रही थी। वह शांत थी। वह वातायन से दूर गगन की तरफ देख रही थी। भीड़ का टुकड़ा एवं प्रत्येक व्यक्ति वफ़ाई को देख रहे था।

मैं और आप भी शांत हो जाते हैं। चलो दूर क्षितिज में देखते हैं। कोई कथा वहाँ हमारी प्रतीक्षा कर रही है।


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