Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

Mohsingh Khan

Others

2.5  

Mohsingh Khan

Others

क़बरखुद्दा

क़बरखुद्दा

32 mins
14.9K


आज़ादी के पहले ये शहर एक मुस्लिम नवाबी रियासत का अंग था, उसके अपने कानून और अपनी सीमाएं थीं। जब देश आज़ाद हुआ और विलय की नीतियाँ लागू की गईं, तो उस रियासत को भी विलय के हवाले कर दिया गया, लेकिन शहर की जो तहज़ीब थी वो न बदली। कई सालों तक नवाबी ठसक शहर के कई हिस्सों में ज़िंदा रही और वहाँ की जनता की प्रवृत्तियों में भी शामिल रही, लोग उसी चाल से कई सालों तक अपने को चलाते रहे। विलय के समय में जो नवाब अपनी रियासत को विलय की भेंट चढ़ा चुके थे, वो एक देश-भक्ति का अभिमान लेकर असमय ही इंतकाल फ़रमा गए और पीछे छोड़ गए अपनी बिगड़ेल, नामाकूल और कमज़र्फ़ संतानों की पीढ़ियों को। नवाब ने अपने बेहतर समय में कई शादियाँ कीं और उससे कई संताने हुईं, आख़िरी प्रामाणिक नवाब की मृत्यु के बाद सारे वारिस बची-खुची जायदाद पर अपना-अपना हक़ जताकर एक-दूसरे के दुश्मन हो गए। जिसके हिस्से में जो आया वो उसी को अपना हक़ मानकर दबोचता रहा और हड़प करता रहा। अपने जीवन यापन के लिए सबको पर्याप्त संपत्ति प्राप्त हो गयी और हड़प करने के लिए संपत्ति समाप्त हो गई, तो अंततः चालबाज़ियों की शतरंज की बिसात समाप्त हुई, वो खेल भी समाप्त हुआ।

समय अपनी चाल से चलता रहा, नवाबों की पीढ़ियाँ अपने ही कर्मों से बर्बाद होती गईं अपनी जायदाद को बेच-बेचकर अपने शोक पूरी करती रहीं, अपना पेट भरती रहीं और एक समय ऐसा आया कि नवाब की बहुत सन्तानें या तो बेरोज़गार हो गईं या आवारागर्दी करती रहीं या कोई किसी बनिये की दुकान पर नौकर हो गया और बंधी-बंधाई तनख्वाह पाता रहा। उसी में उनकी शादियाँ हो गईं और फिर उनके भी बच्चे हो गए और उनके वारिस होते हुए भी लावारिस की तरह जीवन जीते रहे, बस नाम के नवाब बने रहे। समय की माँग और जनसंख्या के दबाव के कारण शहर में नई बसाहट होती रही, धीरे-धीरे शहर फैलता गया। शहर मे अभी भी रियासती शहर होने के अवशेष मौजूद हैं, शहरपनाह की मोटी-मोटी दीवारें, कई दरवाज़े, अस्तबल, मक़बरे, छोटी हवेलियाँ, छोटी गढ़ियाँ, इमारतें, मोहल्लों के नाम इत्यादि से अब भी पता चलता है कि यह एक रियासत थी और ये उसके सबूत हैं। शहर के एक तिहाई हिस्से में एक बड़ा नाला बहता है, जिसे शहर के सभी लोग बांडाखाल नाम से पुकारते हैं, जो कि दूर किसी ऊँची जगह से पुराने समय से बहता हुआ वर्षों से बारिश के मौसम में लबरेज़ होकर बहता रहा है। जब बारिश नहीं होती है तब सूख जाता है, लेकिन शहर का गंदा पानी उसको ज़िंदा बनाए रखता है, एक पतले से काले पानी में तब्दील होकर एक बदबू छोड़ता हुआ दिन-रात बहता है और कई किलोमीटर का सफर तय करके वो एक बड़ी नदी में मिल जाता है। इस नाले ने शहर को दो भागों में बाँट रखा है, जब बारिश बहुत होती है, तो यह नाला पीली मिट्टी के कारण चाय का रंग लिए उफ़ान पर आता है, फिर कोई भी इस पार से उस पार नहीं जा सकता। जो एक रपट (नीची ढलान का पुल) उस पर बनाई गई है, उस पर पानी आ जाता है, लेकिन एक बड़ा पुल है जिसने शहर के दोनों हिस्सों को आपस में जोड़े रखा है, उस पर कभी पानी नहीं आता क्योंकि वह ऊँचा बना हुआ है। उस शहर के नाले पर शहर के बाहरी भाग में दो पुल और बने हैं, एक पुल ट्रेन के लिए है और एक हाइवे पर है। नाले के किनारे-किनारे कई खेत गाँव बसे हैं, शहर में भी उस नाले के किनारे मोहल्ले बसे हैं और कई घर बने हैं। शहर मे एक मोहल्ला कसाइयों का मोहल्ला है, जिसके पीछे से ये नाला बहकर जाता है। सड़क पर गोश्त की दुकानें हैं, कोई कसाई दुकान लगाकर गोश्त बेच रहा है, तो कोई अपने ही घर के पहले कमरे में गोश्त बेच रहा है। कोई लाइसेन्सशुदा है, तो कोई बिना लाइसेन्स के ही गोश्त बेच रहा है। गोश्त की बिसान्दी दमघोंटू बदबू दुकानों और घरों से एक साथ उठती है, जिससे पूरा मोहल्ला बदबू में जकड़ा हुआ है, बदबू ऐसी जैसे कि किसी जनवार के मुँह में आपने अपना सिर डाल दिया हो। ख़ून के हज़ारों छींटे उनके घरों, दुकानों की दीवारों और के फ़र्श पर गिर-गिरकर काले और कत्थई रंग में बदल गए। हर समय वहाँ मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं, सड़क से गुज़रो तो मक्खियों का एक झुंड आपके साथ, आपके पास से उड़ेगा, चारों तरफ गंदगी ही गंदगी। सड़कों और गलियों में कुत्तों की टोलियाँ फिरती रहती हैं, जो गोश्त खाने के लिए हमेशा आपसी तनातनी में गुर्राते रहते हैं। ये ही कुत्ते सुबह ज़िबा होते जानवर के आसपास मँडराते रहते हैं, वहाँ से थोड़ा ख़ून चाटते हैं, वहाँ जो मिलता है उसे खा चुकने के बाद गलियों और सड़कों पर फिरते रहते हैं या सो जाते हैं। आसमान में निगाह डालो तो गिद्ध और चीलें मंडराते रहते हैं, कव्वे घरों, दुकानों की मुंडेर पर गोश्त और छिछड़ों के लिए ताक लगाए बैठे रहते हैं। वहाँ से गुज़रते हुए हमेशा सरेआम बच्चों, आदमियों और औरतों के मुँह से माँ-बहन की गलियाँ सुन सकते हैं। कभी-कभी तो घमासान लड़ाइयों के दंगल भी देखने को मिल जाते हैं, या तो औरतें पानी के लिए झगड़ रही होती हैं या आदमी एक-दूसरे के ग्राहकों को छीने जाने पर लड़ रहे होते हैं। कसाई मोहल्ले के बच्चे या तो पूरे नंगे सड़क पर भागते रहते हैं या अधनंगे, जिन्होंने कभी स्कूल और मदरसों का मुँह तक नहीं देखा। सभी बच्चे सड़क पर या किनारे बैठकर हगते रहते हैं, उनकी माँ अपने घरों के सामने की नालियों में उनका पाख़ाना धुला देती हैं। अपने नित्य कार्यों के लिए औरतें और आदमी सुबह के अँधेरे या शाम को अँधेरे के बाद पीछे नाले में हो आते हैं। कसाइयों के घरों के पीछे नाले का खुला भाग है, जहाँ वे सुबह पाड़ा, भैंस या भैंस का बच्चा पछाड़कर ज़िबा करते हैं और फिर उनके बच्चे सहित सभी गोश्त की कटाई करते हैं, फेफड़े, पाए, सिरी सब उठाकर घर ले आते हैं और फिर सफ़ाई करके दुकान और घरों में टांग देते हैं। रोज़ सुबह से ही शहर के लोग बड़े का गोश्त लेने के लिए आने लगते हैं, ग्राहकों में केवल मुसलमान नहीं होते बल्कि निम्न जाति के हिन्दू, हरिजन, भील, पारदी, मज़दूर और दूर के गाँवों के लोग भी शामिल होते हैं। जैसे ही कोई नया ग्राहक कसाई देखते हैं एकदम चील की तरह झपट्टा मरते हैं, या तो उसे बहला-फुसलकर अपना ग्राहक बना लेते हैं या दबाव डालकर उसे गोश्त थमा देते हैं। कसाइयों के मोहल्ले से ही लगा हुआ मेवातियों का मोहल्ला है, जो कसाइयों से थोड़े ठीक हैं, चाहे आर्थिक स्तर हो, चाहे सामाजिक, चाहे जातिगत। मेवाती जानवरों के व्यापारी हैं, कुछ हम्माली करते हैं, कुछ बीड़ियाँ बनाते हैं, कुछ इतने बिगड़े हुए हैं कि चोरियाँ करते है। कसाइयों और मेवातियों का बोलने का एक अलग ही लहजा है, जिससे पकड़ मे आजाते हैं कि यह उस मोहल्ले के हैं।

कसाइयों के मोहल्ले के पीछे जो नाला है, उसके पार एक बड़ा क़ब्रिस्तान है। ये क़ब्रिस्तान बहुत पुराना रियसती वक़्त का ही है, जहाँ अबतक हज़ारों को दफ़न किया जा चुका है। शहर की आबादी के कारण अलग-अलग जगहों पर और भी क़ब्रिस्तानों का निर्माण हुआ, लेकिन ये बाक़ी क़ब्रिस्तान बड़ा क़ब्रिस्तान है। नाले के उसतरफ कई क़बरें हैं, क़ब्रिस्तान की बड़ी सीमा में कई छोटे-बड़े पेड़ उगे हुए हैं, झाड़ियाँ भी बहुत हैं, गवारपाटा जगह-जगह उगा हुआ है। क़ब्रिस्तान की जगह ऊबड़-खाबड़ है, पूरा क़ब्रिस्तान इसी कारण एक बड़ी क़बर के आकार का दिखाई देता है। कसाइयों और मेवातियों के मोहल्ले में साझा एक बड़ी मस्जिद है, जिसे मोहल्ले ने चन्दा देकर बनाया है और वहाँ एक मौलाना को भी नियुक्त किया है, जो पाँचों वक़्त की नमाज़ पढ़ाता है। इस क़ब्रिस्तान की देखरेख के लिए एक कमेटी बनी हुई है, जैसा भी, जो भी निर्णय लेना होता है, तो सारे सदस्य मस्जिद में बैठकर निर्णय लेते हैं। क़ब्रिस्तान के लिए एक आदमी को हड़वाई (हड़वाई=क़ब्रिस्तान की देखरेख और कबर खोदने वाला नियमित व्यक्ति का पेशा) दे रखी है, जिसका नाम नाहरू है। नाहरू की टप्पर भी नाले के किनारे सड़क पर बनी हुई है, बाहर और भीतर बिना प्लास्टर का ईंट-पीली मिट्टी की चार दीवारों का केवल एक ही कमरा है, एक बदरंग दो पटवाला दरवाज़ा, छत के तौर पर ज़ंगज़दा टीन के पतरे डले हुए हैं। रात को एक साठ वॉल्ट का बल्ब उसमें टिमटिमाता रहता है, बिजली का कनेक्शन मस्जिद से ख़ैरात में मिला हुआ है। एक रेडियो उसकी टप्पर में अक्सर बजता रहता है। ये टप्पर नाहरू की निजी संपत्ति नहीं, बल्कि मस्जिद की तरफ़ से उसे रहने की सुविधा मुफ़्त में दी हुई है। नाहरू ने अपने जीवन के अबतक के सारे बरस इसी कमरे में बिताए हैं। बचपन से वो इसी कमरे में रह रहा है। सारे मौसमों की मार को उसने इसी टप्पर में सहा है। गर्मी में रात को बाहर सोता है ओर सर्दी, बारिश में अंदर। नाहरू का बाप पुत्तन उसका वास्तविक बाप न था, बल्कि कई सालों तक पुत्तन की कोई संतान न हुई, तो पुत्तन ने अपनी दूसरे नंबर की छोटी बहन के छटे नंबर के बच्चे को गोद ले लिया था, जिसका नाम उसने नाहरू रखा। उस समय नहरू की उम्र डेढ़ साल की थी और पुत्तन चालीस से अधिक पार कर गया था। पुत्तन की बीवी जमीला पेट की बीमारी से बिना इलाज के ही मर गई थी, तब नाहरू की उम्र तेरह-चोदह साल की रही होगी। फिर पुत्तन ने अकेले ही नाहरू की परवरिश की। पुत्त्न का ख़ानदान क़बर खोदने वालों का ख़ानदान था, जो कि रियसती समय से क़बर खोदने का काम करता रहा था। विरासत के तौर पर नाहरू को ये काम उसके बाप की तरफ़ से मिला। पुत्तन सफ़ेद कुर्ता-पाजामा पहनता था और सिर पर सफ़ेद टोपी लगाए रखता था। अपनी जवानी पार करने के बाद उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी। पुत्तन मोहल्ले में सबसे बड़े ही तहज़ीब से पेश आने वाला एक शख्स था और सदा सबको सलामती, ख़ैरियत की दुआ देता रहता था। मोहल्ले में सबसे दुआ-सलाम होती रहती और बड़े सब्र से काम लेने वाला उसका व्यक्तित्व था। यही सब खूबियाँ नाहरू में भी उतर आईं थी। पुत्तन का रंग गेहुँआ था, लेकिन नाहरू का रंग कालेपन पर था। वह अपने सगे बाप पर गया था, पुत्तन से कहीं बलिष्ट नाहरू का बदन था। अपने बाप के नाक-नख्श पाए थे उसने, आँखें बड़ी और भवें मोटी काली, बाल थोड़े घुँघराले, होंठ मोटे चेहरा लंबा। क़द में पुत्तन से ऊंचा और गठीले बदन वाला। बचपन से ही अपने बाप पुत्तन के साथ नाहरू क़ब्रें खोदने जाता रहा और खेल ही खेल में क़ब्र खोदने की सारी विशेषताओं को अनजाने में ही सीखता गया। अपने बचपन में नाहरू कभी क़ब्र से गारा फेंकता, कभी क़ब्र पर गारा चढ़ाता, तो कभी आसपास का गारा हटाते हुए कुदाल से क़ब्र भी थोड़ी-बहुत खोद देता। इसी वजह से उसके बचपन के सारे परिश्रम ने उसके बदन को गठीला और सुडोल बनाना शुरू कर दिया था। पुत्तन चूँकि ज़हीन और एक अलग मिज़ाज का व्यक्ति था, उसने समय-समय पर नाहरू को मदरसे भेजा जिससे वह अरबी और उर्दू पढ़ने का अभ्यस्त हो गया था। समय पर उसने कुरान शरीफ़ भी ख़त्म कर लिया था। पुत्तन नाहरू की इस इस स्थिति से ख़ुश था और उसे संतोष था कि जीवन में उसने एक बड़ा महत्वपूर्ण काम किया जो कि उसे करना ज़रूरी था। अब पुत्तन का एक और काम शेष रह गया था, एक अच्छी सी बहू के वह सपने देखने लगा था। नाहरू उन्नीस साल का होने आया था, तब ही पुत्तन ने नाहरू के निकाह की फ़िक्र की और जल्द ही अपनी ही ज़ात-बीरादारी में से एक अच्छी लड़की ढूँढ़ लाया और नाहरू का निकाह हो गया। वो दिन नाहरू के सुनहरे दिन थे, अपनी शबाना को जब उसने पहलीबार देखा तो ज़रा घबराया सा था, कभी किसी औरत से वह एकांत में नहीं मिला था और न इतने निकट किसी के औरत के पास गया था। नाहरू ने एक अजीब सा संतोष अपने भीतर पाया था कि उसका कोई ख़ास अपना अब उसकी ज़िंदगी में शामिल हो गया है। जाने क्यों उसे अपनी ज़िंदगी बंधी हुई सी लगी जो कहीं भटक सी रही थी, बिखर सी रही थी। उसे इस बंधन में बहुत ख़ुशी महसूस हो रही थी। शबाना ने उसे जीवन का सौंदर्य दिया और बहुत सा प्यार दिया, तो वो शबाना के दामन से बंध गया। शादी के बाद से ही नाहरू अधिक समय घर पर बिताने लगा था। अब उसका मन घर में लगाने लगा था, शादी के पहले अपने दोस्तों में व्यस्त रहता था। शबाना जो साधारण नाक-नख्श वाली एक घरेलू लड़की थी, रंग खुला हुआ, चेहरा गोल, छोटी आँखें, पतले होंठ और ऊँचाई कम थी। वह भी अपनी नई दुनिया में जल्द ही रम गई। नाहरू का काम क़ब्र खोदने का था, क़ब्र तो वह पुत्तन के साथ पंद्रह साल की उम्र से बराबर खोदने लगा था, कभी-कभी एक ही रोज़ में दो जनाज़े क़ब्रिस्तान में दाखिल होते, दो मौत एक ही दिन में होतीं, तो एक की क़ब्र पुत्तन खोदता और दूसरे की नाहरू। नाहरू हमेशा पुत्तन से अधिक साफ़-सुथरी क़ब्र खोदता, एकदम चौकोर, क़ब्र की दीवारें ऐसी छील देता जैसे कोई बॉक्स ज़मीन में उतार दिया हो। क़ब्र खोदते हुए पिछले मुर्दे के जो अवशेष मिलते उसे बड़े ही एहतराम के साथ रखता और मिट्टी में दबा देता। उसे इस काम में मज़ा भी आने लगा था, यही उसकी रोज़ी-रोटी का एक मात्र ज़रिया था। उसने अपने इस पेशे में अपना हुनर भी जोड़ दिया था, सब उसकी खोदी हुई क़ब्र को देखते थे कि बड़े ही करीने से एक जैसी क़ब्र खुदी हुई है। क़ब्र लोगों के मानस में भय उत्पन्न करती है, क़ब्र की कौन तारीफ़ करना चाहेगा, लेकिन उसके इस काम के लिए किसी-किसी से सराहना मिल ही जाती थी। अपने बाप से मुर्दे को गुस्ल कराने के तरीके भी वह सीख गया था। पुत्तन ने भी अपने सारे गुर नाहरू को सिखा दिये थे। पुत्तन की उम्र अधिक हो रही थी उसने धीरे-धीरे क़ब्र खोदने का काम कम कर दिया और बस एक पोते की चाहत में अपने दिन अधिकतर टप्पर से बाहर रहकर गुज़ारने लगा। अब उसने टप्पर अपने बेटे और बहू के हवाले कर दिया, सिर्फ खाना खाने के वक़्त वो दो बार भीतर जाता, शेष समय वह इधर-उधर गुज़ार देता या मस्जिद के कामों में सफ़ाई और पानी की व्यवस्था में लगा रहता, वहीं नमाज़ भी अदा करता रहता। रात होती तो टप्पर के बाहर रखे ठेले पर आकर सो जाता, ठेले पर उसका बिस्तर रखा हुआ मिलता। ये एक अनबोली व्यवस्था थी, जिसे पुत्तन, नाहरू और उसकी बीवी शबाना ने निर्मित की थी। डेढ़ साल के अंदर ही पुत्तन को अपने पोते का मुँह देखने को मिल गया, अपने पोते का नाम पुत्तन ने साबिर रखा। बस फिर पुत्तन को क्या चाहिए था, ज़मानेभर की खुशियाँ उसे मिल गायीं थीं, लेकिन पुत्तन इन खुशियों का भागीदार ज़्यादा दिनों तक, ज़्यादा वर्षों तक न बन सका एक रात जब ठेले पर सोया तो सुबह मुर्दा पाया गया। शबाना ने अलसुबह नित्य क्रिया को जाते जिस अवस्था में सड़क के खंबे की ट्यूबलाइट में पुत्तन को देखा था, सुबह सात बजे तक पुत्तन उसी अवस्था में पड़ा हुआ था। नाहरू भी सुबह नित्य क्रिया से निबटकर रोज़ की तरह आकर फिर से सो गया था, उसने पुत्तन की तरफ अलसुबह न देखा था। वह दिन हल्की गर्मियों के दिन चल रहे थे। पुत्तन की बहू शबाना को फ़िक्र हुई, तो उसने नाहरू को जगाकर कहा- “देखो तो आज अब्बा अभी तक सोकर नहीं उठे, रोज़ तो अज़ान के पहले उठकर मस्जिद चले जाते हैं।” नाहरू को बात करंट की तरह लगी, बात सुनते के साथ ही चादर फेंकी, थोड़ा बदहवास होता हुआ अपने बाप की तरफ़ लपका। जाकर देखा, पुत्तन बाएँ करवट लिए था, नाहरू ने धीरे से आवाज़ दी– “अब्बा।” कोई प्रतिक्रिया न होने पर दो-तीन बार और पुकारा। जब कोई जवाब न आया तो पुत्तन का लुजलुजा कांधा पकड़ा और जगाया, तो भी कोई प्रतिक्रिया न हुई। नाहरू का दिल जो पहले से तेज़ गति में धड़क रहा था अब और भी तेज़ हो गया, साथ ही पूरा बदन काँप गया। ज़रा ज़ोर से पुत्तन का बदन झंझोड़ा तो उसे पुत्तन के मुर्दे हो जाने का आभास हुआ, उसके अनुभवी हाथों ने कई मुरदों के बदन को ठीक से छू रखा था, हर उम्र के मुर्दे उसके हाथों के गुस्ल को पा चुके थे, कितनों को उसने क़ब्र में उतारा था। कई मुर्दे वो अपने अब तक के जीवन में देख चुका था, लेकिन अपने बाप को जब मरा देखा, तो उसकी रूह काँप गयी, जाने कैसा उसे अनुभव हुआ, जो आज तक किसी के मर जाने पर उसे न हुआ था। जाने कितनी मौतें उसने देखीं थीं, लेकिन कभी किसी मौत पर इतना गंभीर न हुआ था। जैसा दु:ख उसे पुत्तन की मौत से मिला वैसा दु:ख उसने पहले किसी मुर्दे को देखकर नहीं किया। नाहरू ने अपनी उँगलियाँ पुत्तन की नाक पर लगाईं तो पाया कि पुत्तन की साँसें रुक गईं हैं, फिर भी उसने नब्ज़ टटोली। टटोलने पर पाया कि वह भी रुकी हुई है। बदहवास तो था ही, उसने फ़ोरन घर की तरफ़ ठेले को धकेला जिसमें अब पुत्तन मुर्दा था। अपनी बीवी को बताया कि अब्बा नहीं रहे। ये सुनकर शबाना के होश उड़ गए, वो रोए या दहाड़े मारे उसे समझ नहीं आया, अभी उसकी उम्र भी कम ही थी अठारह साल की उम्र में माँ तो बन गयी थी, लेकिन दुनियादारी अभी उसे न आई थी। शबाना के सामने मौत का ये पहला मंज़र था, इसलिए वह घबराकर सहम गयी। उससे न रोते बना, न ही उसे कुछ सुझाई दिया। बस अपने पति को देखती रही कि अब क्या करना होगा! नाहरू का मुँह अजीब सा हो गया था, ठेले पर से पुत्तन के अकड़े हुए बदन को उसने टप्पर के भीतर प्रवेश दिलाया। शबाना को चटाई बिछाने का कहा और पुत्तन को उसपर लिटा दिया। नाहरू ने शबाना से कहा- “घबराना मत, मैं अभी मस्जिद में और मोहल्ले में खबर करके आता हूँ।” उसने बाहर नाली पर रखे मटके में ग्लास डाला और फटाफट मुँह धोया। नाहरू बदहवास आड़े-टेड़े क़दमों से दौड़ता हुआ मोहल्ले में और मस्जिद में पुत्तन के इंतिक़ाल की ख़बर दे आया। इतनी देर शबाना सहमी हुई, मुँह पर दुपट्टा दबाए, घबराई हुई बिना चाय पिये कोने में बैठे हुए पुत्तन की लाश को देखती रही, उसका छोटा दो साल का बच्चा बेख़बर बिरतर पर फ़र्श पर सोया पड़ा था। जैसे ही सबको ख़बर मिली, तो पुत्तन की मय्यत के लिए लोग धीरे-धीरे नाहरू की टप्पर के पास इकट्ठे होने लगे। कुछ औरतें शबाना को धैर्य बंधाने के लिए टप्पर में आगयीं। जब शबाना की माँ उसके पास आई, तो शबाना की रुकी हुई रुलाई फूट पड़ी। वह बेसुध होकर ज़ोरों से दहाड़े मारकर रोने लगी, उसकी माँ उसे चुप कराती रही। थोड़ी देर ज़ोरों से रोने के बाद उसका रोना सिसकियों और हिंचकियों में बदल गया। इधर नाहरू को कई इंतज़ाम करने थे, उसने किसी और क़बर खोदने वाले को नहीं बुलाया, जबकि ग़म के वक़्त में किसी और क़बर खोदने वाले को उसी पेशे के लोग बुला लेते हैं। नाहरू ने ऐसा न किया, कुछ ज़िम्मेदार लोगों को बताकर वह सीधा क़ब्रिस्तान पहुंचा और एक साफ़-सुथरी जगह को देखकर क़बर खोदने लगा। वह चाहता था कि अपने बाप को श्रद्धांजलि स्वरूप अपने हाथों से खुदी हुई क़ब्र में दफ़नाए। जल्दी-जल्दी लेकिन करीने के साथ उसने आँखों में आँसू और दिल में भारी रंज लिए क़ब्र खोदी। क़ब्र खोदते हुए पुत्तन के साथ बिताए हुए दिनों की स्मृतियाँ उसके ज़हन में आती-जाती रहीं। जल्द ही क़ब्र खोदने के काम को निबटाकर अपने टप्पर की तरफ़ रवाना हुआ। तब तक मोहल्ले के और लोग भी आ चुके थे। कुछ ज़ईफ़ और समझदार लोगों ने नाहरू के साथ तय किया कि ज़ोहर की नमाज़ के बाद पुत्तन को दफ़नाया जाएगा। ज़ोहर का समय दो बजे दिन का था, पुत्तन के गुस्ल की व्यवस्था वहीं पास की खाली जगह, पेड़ के नीचे चादर तानकर की गयी। पुत्तन के गुस्ल के लिए नाहरू के साथ और भी हाथ लगे, सभी ने पुत्तन का गुस्ल कराया। मस्जिद से गहवारा (गहवारा=वह ताबूत जिसमें मुस्लिम व्यक्ति के शव को ले जाया जाता है) मंगाया गया। हार, फूलों को जनाज़े पर चढ़ाया गया। जनाज़ा मस्जिद में लेजाया गया, वहाँ जनाज़े की नमाज़ अदा हुई, काफ़ी तादात में मय्यत में लोग शामिल हुए, ये इस बात का प्रमाण था कि पुत्तन का व्यवहार पूरे मोहल्ले में सबसे बेहतर, शांत और शालीन था। पुत्तन को नाहरू ने अपने हाथों से क़ब्र में उतारा, पूरे रीति-रिवाजों से पुतान को दफ़नाया, क़ब्र पर ऊँचे तक मिट्टी चढ़ाई, हार, फूल डाले गए, अगर बत्तियाँ जलाकर लगाई गईं। फिर सबने फ़ातेहा पढ़ी। नाहरू का मन जाने कैसा हो रहा था, किसी से काम की बात के अलावा कोई ओर बात उससे कहते नहीं बन रही थी। न जाने क्यों उसे अपने क़ब्र खोदने वाले काम से नफ़रत सी जाग गईं, क़ब्रिस्तान महक उठा। कल तक वो जिसे अपना हुनर और पेशा मानता रहा, अचानक उसे लगा कि यह कैसा काम है, जो अपनों के लिए उसे करना पड़ा। लेकिन क़ब्र खोदना उसकी मजबूरी के साथ जीवन यापन का साधन था, वह इसे कैसे छोड़ सकता था! नाहरू पर समय ने पहले ही बहुत ज़िम्मेदारियाँ डाल रखीं था, पुत्तन के इंतिक़ाल से अब परिवार का पूरा भार उसके कंधों पर आ गया। पुत्तन ज़िंदा था तो उसे कभी बाज़ार से सौदा लाना नहीं पड़ा, सब पुत्तन ही देख लेता था। नाहरू को अब ये सब काम करने का ज़िम्मा स्वयं ही उठाना पड़ा। क़ब्र खोदने के अलावा वह कई छोटे-मोटे काम कर लेता था, साथ ही बीड़ियाँ भी बना लेता था। रेडियो सुनने का शौक जो पुत्तन का था, उसमें उतर आया था, बीड़ियाँ बनाते हुए वह अक्सर रेडियो सुनकर अपना मनोरंजन किया करता था। ज़माना धीरे-धीरे बदलने लगा था, नाहरू के सामने पहले टेलीविज़न का दौर आया, फिर मोबाइल का दौर आया। इसी दौर के साथ साबिर बड़ा होने लगा और नाहरू अधेड़ होने लगा था, लेकिन अब मोहल्ला पहले जैसा तहज़ीब-तमीज़ वाला न बचा था। नई पौध मोहल्ले में पनप गई, जो अपनी आगे की पीढ़ी से अलग और गैरजिम्मेदार थी। नई पीढ़ी बर्बादी के रास्ते पर थी, मोहल्ले में खुलेआम जुआ चलता और जवान बच्चे सट्टा भी खेलने लगे थे, कोई तो नशाखोरी में डूब गया था। गुंडागर्दी और मारकाट भी अब पहले के मुक़ाबले में ज़्यादा होने लगी थी और इसी कारण मोहल्ले में पुलिस अक्सर आती। जब भी कोई वारदात आसपास घटती तो कुछ गुंडे लड़कों को पुलिस खोज निकालती और थाने पर पूछताछ के लिए ले जाती। नाहरू ने अपने बच्चे की परवरिश ठीक से करना चाही थी लेकिन मोहल्ले की बिगड़ी फ़िज़ा ने साबिर को बचपन से अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया था। नाहरू ने बहुत चाहा कि साबिर स्कूल में पढ़े, लेकिन साबिर इसलामिया स्कूल से भागकर मोहल्ले-मोहल्ले गोटियाँ खेलता रहा, नए-नए शौक उसे समय-समय पर उसे आकर्षित करते रहे। साबिर पाँचवी तक भी न पढ़ पाया। मोहल्ले के गलत वातावरण ने उस पर ऐसा प्रभाव जमाया कि अपने दादा की विरासत की कोई तहज़ीब वो सीख न पाया। जब नाहरू को साबिर के बिगड़ने के अंदेशा और संकेत नज़र आए तो उसकी समय-समय पर जम के पिटाई की, कभी मोहल्ले के कसाई-मेवाती के बच्चों के साथ गोटियाँ खेलता दिख जाता, तो वहीं से मारता हुआ घर तक लाता। कई बार की ठुकाइयों से वो ढीठ हो गया और ज़िद्दी भी। अपनी माँ को तो वो पत न करता था। नाहरू ने थक-हारकर मान लिया कि साबिर अब न पढ़ पाएगा, उसे मदरसे में भी भेजा लेकिन कोई लाभ न हुआ। उसका पढ़ना जैसे ही छूटा वो बेलगाम हो गया, घर पर तो वह सोने के लिए और खाने के लिए ही आता। नाहरू अपने जीवन को जैसे-तैसे चलाने के लिए बीड़ियाँ बनाता रहा, क़ब्र खोदता रहा, उसका जीवन आर्थिक अभावों में बीतता रहा। साबिर बड़ा होता गया, वैसे-वैसे वो और अधिक उद्दंड होता हुआ ख़राब रस्तों पर चलता गया। नाहरू उसकी हरकतों से तंग आ चुका था, उसने अपने लड़के से बात करना ही बंद कर दिया था और मान लिया था कि वह बेऔलाद है, उसका कोई नहीं। अब तक साबिर की उम्र बीस साल की हो गई थी, उसने बीस साल की उम्र में क्या गुल न खिलाए थे। जुआ वो खेलने लगा, सट्टा वो खेलने लगा, शराब वो पीने लगा, देह की एजी ठंडी करने के लिए बाछड़ियों (बाछड़ी=देह व्यापार करने वाली एक जाति) के डेरों में वो जाने लगा। उसकी हरकतों से नाहरू को मोहल्ले में नीची गर्दन, नीची निगाह करके चलना पड़ा। नाहरू ने तो मान ही लिया कि अब उसकी कोई संतान नहीं है, जब भी कोई साबिर के विषय में बात करता तो वह साफ मना कर देता कि वो अब मेरा कोई नहीं, मैंने उसे उसके हाल पर छोड़ दिया है। मोहल्ले में एक-दो बार के झगड़ों में साबिर पुलिस थाने भी हो आया था, उसकी इस हरकत से उसका मन और भी खुल गया था। अब जमकर आवारागर्दी करने लगा, फ़िल्में देखना, सट्टा लगाना, जुआ खेलना, शराब पीना और बाछड़ियों के डेरों में जाना, बस ये ही उसकी दुनिया थी। नाहरू अपना जीवन यापन करता रहा, अक्सर उसके बिगडैल बेटे की ख़बरें लोग उसे दिया करते थे, तो नाहरू शर्म के मारे ज़मीन में गड़ जाता था। उसने मोहल्ले में जाना ही कम कर दिया, दिनभर टप्पर में बैठा हुआ बीड़ियाँ बनाता रहता और रेडियो पर गाने सुनता रहता। नाहरू को जब क़ब्र खोदाने की ख़बर मिलती वो क़ब्र खोद आता और जो भी क्रिया-कर्म करने होते कर आता। मोहल्ले की शुरू से मेहरबानी नाहरू पर रही, वह भी पुत्तन के व्यवहार के कारण। कहीं शादी या मय्यत के खाने होते थे, तो बुलावा आता ही था, लेकिन खाना बच जाने की स्थिति में उन्हें हमेशा खाना मिलता था, लोग याद से नाहरू के घर खाना भेज दिया करते थे। कभी-कभी कोई ज़कात के नाम पर गेहूं, नए-पुराने कपड़े और पैसे भी दे जाता था। अब नाहरू पहले से ज़्यादा खामोश और अफसोसज़दा हो गया था, अब्बा के चले जाने का भीतर गम तो था ही, लेकिन साबिर की आवारागर्दी ने उसे एकदम तोड़कर रख दिया था। नाहरू अब पहले से अधिक कमज़ोर और उखड़ा-उखड़ा सा हो गया था। शबाना बाप-बेटे के मनमुटाव में कुछ न बोलती। उसे पता था कि बोलने पर घर में और तनाव फैलेगा, इसलिए उसने हमेशा के लिए इस समस्या से निजात पाने के लिए मुँह पर ताला लगा लिया। दिन बहुत तेज़ी से गुजरते गए टच स्क्रीन वाला ज़माना आगया। सब कुछ फास्ट हो गया। इधर साबिर की उम्र बढ़ती गई और नाहरू-शबाना की उम्र घटी जा रही थी। दिन पर दिन साबिर अधिक शराब पीने का आदी हो गया। अब कहीं भी शराब पीकर मोहल्ले की सड़कों और गलियों में पड़ा रहता। मक्खियाँ उसपर भिनभिनाती रहतीं और मोहल्ले के बच्चे उसे पत्थर भी मारते। शराब पीने के लिए कभी रुपयों की ज़रूरत होती तो वह घर पर रुपयों की तलाशी के लिए तब आता, जब या तो नाहरू क़ब्र खोदने में व्यस्त होता या मोहल्ले में वह उसे नज़र आता। साबिर रुपये टटोलकर अपनी माँ से छीनकर ले जाता और सट्टे, जुए, शराब में उड़ा देता। साबिर अपनी माँ पर गया था, चेहरा न ज़्यादा गोल था और न ज़्यादा लंबा, आँखें सामान्य लेकिन रंग गोरा था और क़द दरमियाना। ज़्यादा शराब पीने की वजह से अब वो खोखला सा दिखाई देने लगा था, हाथ-पैर झूल गए थे, इतने कमज़ोर हो गए थे कि काँपने लगे थे। ठीक से उससे खड़ा भी न हुए जाता था। आँखों में गड्ढे पड़ गए थे, बाल बड़े हुए बिखरे रहते। पूरे कपड़े धूल, मिट्टी में सने रहते, लार, शराब, पानी के धब्बों से कपड़ों का रंग अजीब सा हो जाता। कभी ज़्यादा शराब पीने पर नशे में ही पेंट में पैशाब कर देता। इस कारण वो एक बदबू का गुबार अपने साथ लिए घूमता। होश आने पर घर जाकर अपने साफ कपड़े ले आता, क़ब्रिस्तान के पास लगे नल के पानी से नहा लेता, कपड़े बदल लेता और अपने गंदे कपड़े अपनी टप्पर के दरवाज़े पर फेंक आता, जिसे उसकी माँ धो सके। कभी-कभी उसके पैर में चप्पल भी न रहती ऐसे ही नंगे पैर रबड़ता रहता। पूरा मोहला उसे शराबी और जुआरी के तौर पर पहचानने लगा था। किसी को उससे हमदर्दी न थी। जब भी ज़्यादा शराब पीकर किसी के घर के सामने पड़ जाता तो लाते, जूते और लकड़ियां पड़तीं, या पानी डालकर उसे वहाँ से उसे भगा दिया जाता। जब मोहल्ले से ज़्यादा तंग आजाता तो वहाँ जाकर पड़ा रहता जहाँ जानवरों को ज़िबा किया जाता है। वहीं कुत्तों के बीच पड़ा-पड़ा नशा उतार लेता और जब होश आता तो क़ब्रिस्तान के पास वाले नल जो कि हमेशा पानी देता रहता था, नल पर आकार हाथ-मुंह धो लेता। उसे कोई होश-ओ-हवास नहीं रहता। लड़खड़ाता हुआ चंद रुपयों के लिए मोहल्ले के अतिरिक्त दूसरी जगहों पर हाथ फैलाता रहता, जितने पैसे मिल जाते उनसे देसी शराब पी जाता और बचे हुए पैसों का सट्टा खेल जाता। जब सट्टा लग जाता तो हफ़्तेभर की शराब और कबाब का इंतेजाम हो जाता। होश आने पर नहाकर तैयार होकर अकेला ही फिर बाछड़ियों के डेरों में शहर से दूर बस या टेम्पो में बैठकर पहुँच जाता। वो वहाँ भी शराब ले जाता और खूब पीकर वहीं पड़ा रहता, वहाँ की नाजायज़ औलादें उसकी जेब से बाक़ी रुपया निकाल लेतीं। जब उसे होश आता तो घर की तरफ पैदल ही रवाना हो जाता, क्योंकि जेब में एक पैसा बाकी न रहता तो उसे शहर कौन छोड़ता। दिन ऐसे ही गुज़रते जा रहे थे, नाहरू दिनभर बीड़ियाँ बनाता रहता, गाने सुनता रहता, लोगों की खैरात पर पलता रहता। क़ब्र खोदने का काम तो उसका निरंतर चल ही रहा था, लेकिन बारिश के दिनों में उसे क़ब्र खोदने में बड़ी ही परेशानियों का सामना करना पड़ता था। ऐसा कोई साथी भी उसके पास न था, जो कि उसके काम में मदद करा सके। शबाना यह काम कर न सकती था, वैसे भी औरतों को क़ब्रिस्तान में जाने की मनाही है। बस जैसे-तैसे बारिश के दिनों में वह गीली मिट्टी में क़ब्र खोद लेता था। कोई ऊँची सी जगह देखकर वह अपना काम करता ताकि क़ब्र में पानी न भरे। पानी से बचाने के लिए वो अपने साथ एक प्लास्टिक का बड़ा सा टुकड़ा ले जाता, उसे रस्सियों से पेड़ों के सहारे बांध देता और उसकी आड़ में बारिश में क़ब्र खोदता। बारिश के ही दिनों में शहर के एक जाने-माने वकील का इंतिक़ाल हो गया। उस वकील की मौत दिन में चार बजे के लगभग हुई, इतनी गहमा-गहमी रही कि किसी को याद न रहा कि क़ब्र खुदवाने की ख़बर भेजी जाए। जब छह बजे का वक्त हुआ तो किसी को याद आया कि क़ब्र खोदनेवाले को ख़बर करो कि क़ब्र खोदना है। तुरंत दो लोगों को नाहरू के घर रवाना किया गया, नाहरू उन्हें घर पर न मिला, उसकी बीवी ने बताया कि शायद वो मोहल्ले में मिल जाएंगे। नाहरू की खोज मोहल्ले में जाकर की तो भी न मिल पाया, लेकिन अचानक बाज़ार से जानेवाली सड़क पर नाहरू दिखाई पड़ा, वह बाज़ार से कुछ सामान लेकर घर की तरफ लौट रहा था। उसे ख़बर दी गई कि सलीम वकील साहब का इंतिक़ाल हुआ है, जल्दी क़ब्र खोदना है, इशां (रात की नमाज़) की नमाज़ के बाद उन्हें दफ़नाया जाएगा। नाहरू बाज़ार से कुछ सामान लेकर आया था, उसे देने के लिए तेज़ क़दमों से वो टप्पर की तरफ बढ़ा, शबाना को कह आया- “क़ब्रिस्तान जा रहा हूँ, सलीम वकील साहब का इंतिक़ाल हुआ है।” नाहरू कुदाली, फावड़ा और तगारी क़ब्रिस्तान में ही रखता था, उसने आसमान में निगाह डाली तो दूर कुछ काले-काले बादल थे, अभी बारिश थमी हुई थी, लेकिन उसका अनुभव उसे सचेत कर रहा था कि बारिश ज़ोरों से होने वाली है। जब वह घर से निकला तो अँधेरा घिरना शुरू हो गया था। वह घर से सिर्फ टार्च लेकर निकल पड़ा, क़ब्रिस्तान में अपने ठिकाने से उसने अपना सारा सामान उठाया, प्लास्टिक का बड़ा टुकड़ा लिया, उसे पेड़ों के सहारे मजबूती से बाँध दिया, ताकि बारिश आने पर उसे कोई दिक्कत न हो। क़ब्र खोदने के लिए उसने ऊँची जगह का ही चुनाव किया था, बारिश का पानी कब में घुस आने की आशंका के कारण। आधी क़ब्र भी न खुद पायी थी कि ज़ोरों की गरज के साथ घनघोर बारिश शुरू हो गयी, टार्च उसने पेड़ पर ऐसी टांगी थी कि उसकी रोशनी मे वह ठीक से काम कर सके, लेकिन हवा के साथ बारिश होने की वजह से टार्च दूसरी दिशा में मुड़ गयी। फिर भी क़ब्र से निकलकर भीगते हुए उसने टार्च का मुँह फिर से सेट किया और काम में भिड़ गया। हल्की बूँदाबाँदी में क़रीब ग्यारह बजे जनाज़ा क़ब्रिस्तान में दाख़िल हुआ और मय्यत को क़ब्रिस्तान में रखा, कुछ लोगों के हाथों में टार्च, गैस के लेंप थे, हाथों में खुली हुई छतरियाँ थीं, कोई मोबाइल की रोशनी से काम चला रहा था। कुछ लोगों ने पता किया कि नाहरू ने कब्र कहाँ खोदी है, नाहरू को खोजा गया, नाहरू कहीं नज़र नहीं आया। बारिश हल्की हो गयी थी, इधर-उधर टार्च मारकर कुछ लोगों ने क़ब्रिस्तान का मुआयना करना शुरू किया। अचानक किसी की नज़र थोड़ी ऊँचाई पर पड़ी जहाँ प्लास्टिक बंधा था, प्लास्टिक के तीन कोने तो पेड़ से बंधे थे, लेकिन एक की रस्सी ज़्यादा हवा और बारिश की वजह से छूट गयी थी। गारे का ढेर आसपास था, उसपर से पानी रिसने के कारण कई छोटी लकीरें बन गयी थीं। खुदी हुई कुछ लोगों ने क़ब्र ढूँढ़ने वालों ने पास में जाकर देखना चाहा कि क़ब्र में पानी तो नहीं और दूर टार्च की रोशनी डाली कि नाहरू कहाँ है? टार्च की रोशनी जब क़ब्र में डाली तो नाहरू आधी खुदी क़ब्र में बेतरतीब आँखें फाड़े पड़ा था, पानी आधी क़ब्र में भर गया था। जिसने उसे देखा वह ऊपर से लेकर नीचे तक काँप गया। वकील साहब का जनाज़ा फ़ोरन मस्जिद में ले जाया गया और दूसरे क़ब्रिस्तान में उन्हें दफ़नाने के लिए क़ब्र खोदने की ख़बर भिजवाई गई। करीब तीन घंटे बाद जनाज़ा बारिश रुकने के बाद दूसरे क़ब्रिस्तान लेजाया गया। तुरंत नाहरू की मौत की ख़बर मोहल्ले में सबको लग गई। मोहल्ले की औरतों को रात को बताया गया कि नाहरू की मौत की ख़बर उसकी बीवी को दो, सारे मर्द-औरतें नाहरू के घर की तरफ़ रात को ही रवाना हुए। जब औरतों ने शबाना के घर की कुंडी खटखटाई तो समझी नाहरू आया है, बल्ब जलाकर जैसे ही दरवाज़ा खोला तो सामने कुछ औरतें थीं, साथ ही बाहर नज़र दौड़ाई तो दूर अंधेरे-उजाले में छतरए औरतों–मर्दों की भीड़ दिखाई दी। ऐसा दृश्य उसे भयभीत कर गया, शबाना को जब नाहरू की मौत के बारे में बताया गया, तो बदहवास होकर दहाड़ें मारकर रोने लगी, उसने सबसे पूछा कैसे और क्या हो गया नाहरू को? उसके सवाल का अभी किसी के पास कोई जवाब न था। उसे यक़ीन न हुआ कि वह बेवा हो गयी, वह मन में सोचती रही कि ऐसा अचानक कैसे हो सकता है? कहीं वो कोई बुरा और डरावना ख़्वाब तो नहीं देख रही है। उधर कुछ लोग टार्च लेकर क़ब्रिस्तान पहुँचे तो नाहरू क़ब्र में बेतरतीब पड़ा हुआ था, ऊपर का बदन खुला था, पीठ क़ब्र की दीवार से टिकी थी, आँखें फटी हुई, मुँह से लार और झाग बाहर आया हुआ था। उसका रंग और भी काला हो गया था, उसका पूरा बदन पानी से गीला हो गया था, जिससे उसके हाथ-पैरों में झुर्रियां पड़ गयी थीं। क़ब्र खोदते वक़्त नाहरू ने कुर्ता उतारकर तय करके प्लास्टिक की आड़ में पेड़ की दो शाखाओं के बीच खोंस दिया था। पाजामा उसके जिस्म से चिपक गया था और पाजामे की घुटनों से ऊँची मुड़ी हुई मोहरियों में मिट्टी चढ़ गयी थी, बाल गीले हो चुके थे। नाहरू को उसके दोस्तों ने आधी खुदी हुई क़ब्र से उसे बाहर निकाला। किसी ने उसको अस्पताल ले जाने की सलाह दी, तो सीधे ठेले पर रखकर सरकारी अस्पताल लेजाया गया। डॉक्टर ने उसका परीक्षण करके बताया कि नाहरू की मौत बहुत ज़हरीले साँप के काटने से हुई है। ये पक्का हो गया कि नाहरू अब दुनिया में न रहा, फ़ोरन उसकी लाश को उसके घर ले जाया गया। रात का वक़्त था करीब एक बजे से ऊपर का समय हो चुका था। ठेले पर से उसकी लाश उतारकर उसके घर में न रखी, बल्कि बाहर ठेले में ही चटाई बिछाई और उसपर रखी, उस वक्त बारिश थम चुकी थी। इसी बीच किसी औरत ने शबाना को बताया कि साँप के काटने से नाहरू की मौत हुई है। रात को कुछ मर्द और औरतें अपने घर चले गए और कुछ वहीं रुके रहे, जबतक नाहरू और शबाना के रिश्तेदार न आ गए तबतक। सुबह होने का इंतज़ार था, सुबह की रोशनी होना शुरू हुई, सारे परिंदे बोलने लगे, आसमान में कहीं-कहीं बादल थे बाक़ी आसमान साफ़ सुथरा धुला-धुला था। पिछली रात नाहरू के परिवार के लिए क़हर बनकर आई थी, जिसने शबाना की वर्षों की बसी हुई दुनिया को एक मिनिट में उखाड़कर फेंक दिया। सुबह होने से पहले शबाना के कुछ रिश्तेदार और नाहरू के रिश्तेदार आ चुके थे, केवल न आ पाया तो उसका शराबी, जुआरी बेटा साबिर। जब ज़्यादा उजाला हुआ, तो साबिर को खोजा गया, उसे ख़बर देना थी कि उसके बाप का इंतिक़ाल हो गया है। मोहल्ले की एक गली के आख़िरी छोर पर नाले के क़रीब वाली एक जगह पर एक टूटे हुए मकान के शेड में साबिर बदबुओं में लिपटा पड़ा हुआ था, उसके मामू ने उसे जगाया और कुछ होश में लाने की कोशिश की लेकिन वो होश में न आया। उसे उसका मामू वहीं छोड़कर वापस चला आया। सुबह दूसरे क़ब्रिस्तान में नाहरू को दफ़नाने के लिए क़ब्र खोदने वाले को ख़बर की गई, नाहरू का गुस्ल भी वहीं हुआ जहाँ पुत्त्न का गुस्ल किया गया था। गहवारा मंगाया गया, आखिरी बार मुंह दिखाई की रस्म निभाई जा रही थी। सब मर्दों ने नाहरू का आख़िरी बार चेहरा देखा, नाहरू का चेहरा वैसा ही उखड़ा-उखड़ा लग रहा था, एक अजीब सा खिंचाव उसके चेहरे पर तन गया था। शबाना को भी नाहरू का चेहरा दिखाने के लिए लाया गया, शबाना की माँ उसे साथ लेकर आई। उसको कोई होश न था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसके साथ हो क्या रहा है। उसने जब नाहरू का चेहरा देखा तो आँखों में आँसू थे, सबकुछ धूँधला और बुरे सपने सा लग रहा था। कुछ समय बाद जब कलमों के साथ मय्यत उठी तो शबाना पछाड़े मार-मारकर ज़मीन पर अपने आपको पटकती रही, बदहवास होकर गला फाड़कर बिलखती रही और बेतहाशा चिल्लाती रही- “मत ले जाओ मेरे नाहरू को।” उसके रिश्तेदार उसे क़ाबू में करने की भरसक कोशिश में लगे रहे, लेकिन उसकी ताक़त इतनी थी कि वह हाथों से छूट जाती थी, जैसे हाथों से तड़पती हुई मछली फिसल जाती है, उस तड़प से भी अधिक तड़प शबाना में उस समय मौजूद थी। जनाज़ा उठा, एक-एक करके सबने कांधा दिया, लेकिन साबिर का कांधा जनाज़े को न मिला। एक खामोशी और गहरे रंज के साथ सब मस्जिद की तरफ़ चल पड़े, लेकिन एक चीत्कार नाहरू के घर अब भी गूँज रही थी। ज़ोहर की नमाज़ के बाद उसके जनाज़े की नमाज़ अदा की गई, जिसमें उसका बेटा साबिर शामिल न था। नाहरू का जनाज़ा दूसरे क़ब्रिस्तान में ले जाया गया, वहाँ उसे रीति-रिवाजों से उसे दफ़ना दिया गया, अपने बेटे से नाहरू को मिट्टी नसीब न हुई। दफ़नाने के बाद साबिर का मामू फिर उसी जगह गया जहाँ साबिर पड़ा हुआ था, अब वह कुछ होश में था, उसने अपने मामू को देखा तो पहचान गया, ज़्यादा शराब पीने से एक गुनुदगी साबिर के दिमाग पर अब भी छाई हुई थी, उसी गुनुदगी में उसने अपने मामू से अपने बाप के मरने की ख़बर सुनी तो थोड़ी देर सुन्न सा रहा, कुछ बोला नहीं, जाने कहाँ किस क्षितिज में उसकी नज़रें टंगी रह गईं। फिर आँखों से आँसू छलछलाकर बाहर उबल पड़े, मामू ने उसे घर लेजाना चाहा लेकिन वह नहीं गया। बस ज़मीन पर लोट गया और रोता रहा, रोने से नाक और लार बाहर आकर गीली नमी वाली जगह में मिलते रहे, फिर उसने अपने शर्ट की आस्तीन से मुँह ओर नाक पौंछे। अब शबाना की ज़िंदगी का फ़ैसला होना था, नाहरू के चले जाने से वह इस दुनिया में अकेली रह गयी थी, उसका बेटा होते हुए भी उसका न रहा, उसका होना न होना उसके लिए बराबर था। शबाना का भाई अनवर जो उससे हमदर्दी रखता था। घर उसका भले ही छोटा ही था, लेकिन दिल बड़ा था, शबाना को वह अपने घर ले गया। अगले दिन आकर शबाना के भाई ने टप्पर का सारा सामान खाली कर दिया, जिसमें नाहरू के हाथ की कुछ अधूरी बनी बीड़ियाँ और उसका वह रेडियो, जो वह सुना करता था शामिल था, रेडियो उस दिन बहुत ज़्यादा खामोश और उदास था। शबाना के भाई ने सारा सामान ठेले में भर लिया, दो तीन चक्कर में उसने सारा सामान अपने यहाँ पहुंचा दिया। आख़िरी चक्कर में बचा-खुचा सामान ठेले में डाला, दरवाज़े की कुंडी लगाई और हमेशा के लिए उसने ताला लगा दिया। जाते-जाते शबाना के भाई अनवर ने मस्जिद के सदर को चाबी सौंप दी और शुक्रिया अदा करके उन्हें सलाम कर ठेला धका के ले गया। साबिर जब थोड़े होश में आया तो दो दिनों बाद अपनी टप्पर की तरफ़ फेरा मारा, उसके क़दम लड़खड़ा रहे थे, जाकर देखा तो दरवाज़े की कुंडी चढ़ी हुई थी और उसपर ताला लगा हुआ था। वो परेशान होकर निस्सहाय नाली पर ढँकी सिल्लाओं पर बैठा रहा, आँखों के आँसू उसके सूख चुके थे, जेब में हाथ डाला तो एक पैसा हाथ न आया, कुछ समझ न आया कि वह क्या करे? थोड़ी देर बैठा रहा और फिर उठकर बाज़ार की तरफ़ चला गया, उसने सोचा था कि बाज़ार में कुछ खाने-पीने को मिल जाएगा, पच्चीस-पचास दुकानों पर हाथ फैलाएगा तो कोई कुछ तो दे ही देगा, अगर पैसे मिले तो शराब का भी इंतेजाम हो जाएगा। अब साबिर फटेहाल में अक्सर हाथ फैलाता हुआ बाज़ार में मिल जाता है या होटलों के पास रखे डस्टबीन में खाना ढूँढ़ता हुआ मिल जाता है, रात होने पर टप्पर के बाहर फुटपाथ पर आकर शराब पीकर पड़ा रहता है और जाने किस पश्चाताप से खोए हुए अपनेपन को टप्पर की दीवारों, दरवाज़े को देखता हुआ तलाशता रहता है।


Rate this content
Log in

More hindi story from Mohsingh Khan