Become a PUBLISHED AUTHOR at just 1999/- INR!! Limited Period Offer
Become a PUBLISHED AUTHOR at just 1999/- INR!! Limited Period Offer

Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Tragedy

5.0  

Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Tragedy

कालिख

कालिख

5 mins
943



"छोटू जल्दी कर भट्टी की आग धीमी हो रही है, जल्दी जल्दी कोयला डाल।"

बिरजू की आवाज सुन छोटू सपनों की दुनिया से वापस फैक्ट्री की भट्टी के मुहाने आ गया। 

हाथ तेजी से चलने लगे। आग धीमी न पड़े और न ही ज्यादा तेज हो- यही तो उसका काम था। बिना रुके सुबह आठ बजे से दोपहर एक बजे तक और फिर डेढ़ बजे से रात के आठ बजे तक बस आग में कोयले डालते रहना। 

जब बीच में आधे घंटे का समय मिलता तो उस समय तो भागम भाग और भी ज्यादा बढ़ जाती थी। दौड़ के पास के मैदान में शौच निवृत होने जाना पड़ता था। फैक्ट्री में एक ही टॉयलेट था और लंच टाइम में सभी मजदूरों को ये काम निपटाना होता था सो वहां लाइन में खड़ा होकर कितना टाइम बर्बाद करना पड़ता। इसीलिये मैदान जाना ही ज्यादा सुविधाजनक लगता था। वहीं हैंडपंप के पानी से हाथ मुंह भी धो लेता था। वैसे इतने समय से यही काम करते करते उसके हाथ तो क्या चेहरा और पूरा शरीर ही काला पड़ गया था।

हाथ मुंह धो कर वो वापस फैक्ट्री आ कर मालिक जो खाना देता था वो झट से पेट के हवाले कर देता था। दो छोटे उबले आलू, दो मोटी रोटियां, एक हरी मिर्च, आधा प्याज और थोड़ा सा नमक। रोज यही खाने को मिलता था। कभी कभी फैक्ट्री का इंस्पेक्टर आता था तो उस दिन उबले आलू की जगह आलू की सब्जी मिल जाती थी। 

वर्ना तो दोनों टाइम बस यही खाने को मिलता था। सुबह मालिक सब को चाय और एक एक बंद देता था। 

इतना कम खा कर भी वो जी रहे थे ये भी एक चमत्कार ही था। उसकी क्या फैक्ट्री में सभी काम करने वालों की हड्डियां बदन से उभर कर बाहर साफ़ साफ़ दिखती थी। बस मालिक की हड्डियां नहीं दिखती थी। दिखता था तो मोटा पेट। 

फिर भी मालिक उन सभी को अक्सर कोसता ही रहता था। 

"अरे चर्बी चढ़ गयी है क्या तुम सब को। हाथ कितने धीरे चल रहे हैं। ऐसे काम करोगे तो फैक्ट्री बंद करनी पड़ेगी। फिर देखना भूखे मरोगे तुम सब।"

उन सब को फैक्ट्री में ही सोना पड़ता था। मालिक उन्हें बस पास के मैदान तक जाने देता था। उससे आगे जाने की उन्हें इजाजत नहीं थी। किसी से बात करने से भी मनाही थी। एक दिन रामेशर ने मैदान में क्रिकेट खेलते बच्चों से बात कर ली थी और मालिक के चमचे भरतू ने झट मालिक को ये बात बता दी थी। कितना मारा था मालिक ने रामेशर को। बेचारा अधमरा हो गया था। पूरे दो दिन उसे खाने को भी कुछ नहीं मिला था। 

कभी कभी छोटू अपने हाथ खड़े कर हाथ में माँ के बांधे ताबीजों को निहारता रहता था। याद आ जाता था माँ का पल्लू। माँ उसे प्यार से अपने पास बिठा कर रोटी सब्जी अपने हाथों खिलाती थी। बाबा गुस्सा करते थे और कभी कभी पिटाई भी पर कंधे पर बिठा कर मेले भी तो ले जाते थे और स्कूल भी छोड़ने जाते थे। 

अपने पर गुस्सा आता था कि क्यों गाँव के बच्चों के कहने पर वो ट्रैन पर चढ़ गया था। वो सब खेल रहे थे। पर अचानक वो ट्रैन चल पडी और वो सब चलती ट्रैन से नीचे कूद पड़े थे। वो अकेला ही डर के मारे कूद नहीं पाया था। कितना रोया था वो पर उस डिब्बे में पर उसका रोने सुनने वाला कौन था। डिब्बे में सामान ही सामान था कोई भी आदमी नहीं। रोते -रोते शायद उसकी आंख लग गयी थी। जब आंख खुली तो ट्रैन एक बिलकुल अनजान जगह पर खड़ी थी। 

वो वहीं उतर गया था। वहीं तो उसे वो आदमी मिला था जिसने उसे चाय और बिस्कुट खिलाये थे और फिर उसे यहाँ फैक्ट्री के मालिक के पास ले आया था। मालिक ने उस आदमी को कुछ पैसे दिए थे। उसके बाद तो उसे फैक्ट्री में काम पर लगा दिया गया था। शुरू शुरू में वो कितना चीखा चिल्लाया था। काम नहीं करूंगा। बिलकुल नहीं करूंगा -यही दोहराता था। पर फिर जो मार पड़ती थी और भूखा प्यासा रखा जाता था वो उस को काबू में रखने के लिए काफी था । वो भी सब की तरह काम करने लगा था। 

रामेशर कहता था कि अब उन सब की जिंदगी बस फैक्ट्री में गुजरेगी। जब वो मरेंगे तो मालिक के आदमी उन्हें चुपचाप पास के मैदान के अँधेरे कुँवे में जला देंगे और 

फिर अवशेष नदी में बहा देंगे। 

पिछली बार नया इंस्पेक्टर आया था तो मालिक पर बहुत चीखा था। छोटू उस वक्त मैदान से वापस आते हुए मालिक के कमरे के पास से ही गुजर रहा था। इंस्पेक्टर की और मालिक की बात उसने सुनी थी। इंस्पेक्टर मालिक को डांट रहा था- 

"तारकेश्वर जी। ये क्या बात हुयी आपने कम से कम पचास बाल मजदूरों को बंधुवा बना रखा है और इतना बड़ा काण्ड छुपाये रखने के बस दस हजार दे रहे हो। बीस हजार से एक पैसा कम नहीं होगा। "

मालिक इंस्पेक्टर की चिरौरी कर रहा था 

"साहब आप भी कैसी बात कर रहे हो। फैक्ट्री के काम में कोई मुनाफा न रहा। सब अब चीन का सामान ही खरीदते हैं। ये तो ये बेचारे बच्चे भूखे न मरें इसलिए फैक्ट्री चला रहा हूँ। इनकी चिंता न होती तो कब का फैक्ट्री बंद कर देता। पर ये कहाँ जाएंगे कौन इन्हें मुफ्त की रोटियां खिलायेगा। आप ही बताइये। अब इस फैक्ट्री में साल में ज्यादा से ज्यादा एक दो बच्चे ही मरते हैं। पर सरकारी अनाथ आश्रम में तो साल भर में पांच दस बच्चे मरते ही मरते हैं। "

आखिर में पंद्रह हजार रुपए में बात तय हुयी थी। 

छोटू ने ये बात बस रामेशर को बताई थी। रामेशर ने उसे ये बात किसी भी दूसरे को बताने से मना किया था। मालिक को पता चल जाता तो उसकी खाल खींच लेते। 

अब छोटू बस यही सोचता रहता है की फैक्ट्री से कैसे भागे। भाग कर स्टेशन जाएगा। ट्रैन पर चढ़ जाएगा और फिर जैसे ही उसके गाँव के पास ट्रैन रुकेगी वो झट से उतर जाएगा। भाग के अपने घर जाएगा। माँ -बाबा उसे देख कितने खुश होंगे। 

उसके पांचवे जन्मदिन पर पूरे गाँव को भोज दिया था बाबा ने। पूरे पच्चीस हजार खर्च किये थे। इस बार तो पचास हजार खर्च कर देंगे। 

काश इंस्पेक्टर ने उसे बाबा के पास भिजवा दिया होता। मालिक ने तो बस पंद्रह हजार दिए थे। बाबा तो उसके लिए खुशी खुशी एक लाख रुपए भी दे देते। 

पता नहीं छोटू भाग पाया या नहीं। गाँव पहुंचा या नहीं। पर वो इंस्पेक्टर अगर ये कथा पढ़ रहा हो तो अभी भी मौका है। छोटू को घर पहुंचा देगा तो एक लाख से ज्यादा ही रुपए मिल जाएंगे। 

वो भी बिना मुंह में कालिख पुते।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Tragedy