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आ चल कहीं और चले

आ चल कहीं और चले

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पूरे इलाके में कालू कौवे ने अपने विश्वस्तों से बात कर सूचना प्रसारित करवाई, कल सुबह दस बजे हम सब सभा के लिए नियत स्थान पर एकत्र होंगे। ये खबर जितना हो सके प्रसारित करो, जिससे ज्यादा से ज्यादा हमारे समुदाय के लोगों तक ये खबर पहुँचे और कल के विमर्श में सभी उपस्थित हो अपनी बात कहें, आसन्न संकट से अवगत हो।

खबर जल्दी ही प्रसारित हो गई, सभी कुल- कुटुम्बियों का मन कल की गोष्ठी के विषय को लेकर सशंकित था। ज्यादातर उदास थे। सभी नियत समय पर निर्धारित स्थल, उस वट वृक्ष पर पहुँच अपना स्थान ग्रहण कर चुके थे। सबसे बाद में आये मुखिया जी- कालू कौवा। सभी ने अपने कुल कुटुम्बी की मर्यादानुसार अभिवादन, अभिनन्दन किया।

धीर गम्भीर मुद्रा उस पर चिंता की रेखाएँ साफ झलक रही थी। कालू कौवे ने सभी के समवेत शोर को शांत कर बोलना शुरू किया-

मेरे प्यारे कुलवंशियों, आपको मालूम है हम यहाँ हजारों वर्षों से उन्मुक्त विचरण करते रहे हैं। हमें किसी प्रकार का भोजन, पानी, रहने का संकट कभी नही खड़ा हुआ, लेकिन जो सत्य आज सामने है वो बहुत भयानक है। हमारा अस्तित्व खतरे में है। हमारे भोजन का भी संकट खड़ा हो गया। घरों के आँगन, मुंडेर, बरामदे खत्म हो गए हैं जहाँ से हम रोटी सहज ही पा जाते। अब वहाँ आकाश तक ऊँची इमारतें बन गई हैं। लोग रहते भी हैं लेकिन कहीं भी एक रोटी का टुकड़ा या भोजन का नही दिखता। सुना ही होगा बड़ी अदालत ने भी कह दिया है कि बहुमंजिली इमारतों में कोई भी अपनी मुंडेर पर परिंदों के लिये न कोई पानी ही रख सकता है न ही दाने। हमारे घोंसले कहाँ रहेंगे, जब सारे पेड़ कटते जा रहे।हमारे सभी आशियाने बर्बाद हो गए। पुराने पेड़ काट डाले गए जबकि हमारे पूर्वज तो प्रभु राम के साथ भी खेल चुके हैं।

सोने से कागा तोरी चोंच मढ़ई हौ " "सोने की कटोरिया में दूध भात" गीतो में गाये गये, लेकिन आज खाने के लाले है, इतना कहते कहते कालू कौवे की आँखों से आँसू बहने लगे। रुंधे गले से, आगे बोलना मुश्किल हो गया। पूरी सभा अपनी आसन्न परिस्थितियों से दुःखी और चिंतित तो थी ही, मुखिया के इस तरह भावुक होने से कितनों की आँखें गीली हो गई।दूर बैठी धुनिया से रहा नहीं गया, वह आगे बढ़ बोली-

देखो, मुखिया ! दुःखी होने से रास्ते नहीं बनते, हमारे सामने भी यही संकट आया, हम सब ने मिल ये निर्णय लिया कि अब हम गांव की तरफ चले जायेंगे। हम सब गांव जा वहाँ बस चुके है। आज तो मैं यहाँ बस देखने आयी थी, कहीं कोई छूट गया हो तो उसे भी ले चलूँ। अगर अस्तित्व बचाना है तो इस कंकरीट के जंगल और इसमें रहने वाले पत्थर बन चुके इंसानों से दूर चलो, "चलो गांव की ओर।"

उस गमगीन निराशा के माहौल में एक आशा की किरण पा कर सभी धुनिया की जय जयकार करने लगे। तभी दूर से देखा लोडर, पेड़ काटने की मशीन और कुछ लोग इसी तरफ चले आ रहे।

सबने मिल जोर का नारा दिया- चलो गांव की ओर, औऱ सब एक साथ उड़ चले।

वो बूढ़ा वट वृक्ष सूनी आँखों से उन्हें आकाश में दूर जाते देखता रहा, अब वो कहाँ जाये, उसे तो कटना ही होगा।


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