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हिम स्पर्श 09

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जब वफ़ाई जागी तब प्रभात हो चुका था, सूरज अभी अभी निकला था। धूप की बाल किरनें कक्ष में प्रवेश कर चुकी थी। प्रकाश मध्धम था। सूरज की किरणें दुर्बल सी थी। लगता था सूरज किसी के पीछे छुप गया था।

वफ़ाई खुश हुई, कूदकर उठ गई। उसके साथ दो पहाड़ियाँ भी कूद पड़ी, उछल पड़ी। वह भूल गई थी कि रातभर वह अनावृत होकर सोई थी। वफ़ाई ने दोनों हाथों से दोनों पहाड़ियों को पकड़ा, स्थिर किया। वह खिड़की के समीप गई और बाहर फैले गगन को देखने लगी।

तीन चार दिनों से जैसा साफ सूथरा गगन था वैसा नहीं था। उसमें कुछ दाग थे, जो वफ़ाई को पसंद आए। गगन रंग बादल चुका था। नीला गहरा गगन अनेक रंग धारण किए हुए था। श्वेत, पीला, नारंगी और लाल।

वफ़ाई घर से बाहर निकली और गगन को ध्यान से देखने लगी। वहाँ कई बादल थे। सूरज लाल था। गगन ने कई रंगो को समेटा था जैसे किसी चित्रकार ने तूलिका से रंग भर दिये हो, जैसे किसी ने रंगों का घड़ा गिरा दिया हो। श्वेत बादलों की किनार लाल रंग से तो कोने पीले रंग से भर गए थे। वह गगन सुंदर था, अदभूत था।

वफ़ाई के अंग अंग में, ह्रदय में, मन में, शरीर में और नसों में भी रंगों की नदी बहने लगी। वह कक्ष में लौटी और दर्पण के सामने जा खड़ी हुई। उसका पूरा अनावृत शरीर रंगीन हो गया था। वफ़ाई ने अपनी ही आँखों को दर्पण में देखा। वह थोड़ी नटखट हो गई थी, पूरे शरीर को कामना भरी द्रष्टि से देख रही थी।

“हे आँखें, तुम बहोत बोलती हो। क्या आशय है तुम्हारा इस तरह मुझे देखने का?” वफ़ाई ने अपनी ही आँखों को डांटा। वह स्मित कर बेठी।

“जानु से बात की जाय।“ वफ़ाई को केमरा याद आया,” किन्तु उसके सामने ऐसे अनावृत नहीं दिखना है मुझे।“ वफ़ाई ने झट से कपड़े पहन लिए।

केमरे को निकाला और गगन की तस्वीरें लेने के लिए दौड़ पड़ी।

“हे वफ़ाई, क्या कर रही हो? कहाँ जा रही हो? क्यूँ इतनी उतावली जल्दी हो? क्यूँ इतनी उत्साहित हो? क्या हुआ कहो तो?” जानु ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी किन्तु वफ़ाई उसे जवाब देने के बदले गगन की तस्वीरें खींचने के भाव में थी।

गगन के हर कोने की तस्वीरें ली वफ़ाई ने। अनेक तस्वीरें, रंगीन तस्वीरें।

अंतत: वह रुकी और जानु को चूमा। जानु प्रसन्न था। पहली बार इस मरुभूमि में उसने रंगों को देखा था, अपने अंदर उन रंगों को कैद किया था।

वफ़ाई ने गगन को छोड़ कर अन्य वस्तुओं पर ध्यान दिया। उसे अनुभव हुआ कि हवा में गति थी, मधुर सी पवन बह रही थी, रेत के कण स्थान बदल रहे थे, धरती सूरज की किरणों का एवं बादलों का सन्मान कर रही थी।

पवन जीप को भी छु रही थी। जीप ने धूल और रेत के वस्त्र धरण किए थे। रेत के वस्त्रों मे सजी यौवना जैसी लग रही थी जीप।

वफ़ाई ने उस सुंदर यौवना की तस्वीरें खींची। जीप, रेत, धूल और पवन के टुकड़े। तस्वीरों को अनेक रंग मिल चुके थे।

मौन अभी भी व्याप्त था। जानु तथा वफ़ाई दोनों मरुभूमि के इस बदले रूप, जिसकी कोई अपेक्षा नहीं थी, से सम्मोहित थे।

उत्तर दिशा से अचनाक पवन की तेज धार बहकर वफ़ाई की तरफ आने लगी। वफ़ाई को पहले तो यह अच्छा लगा, किन्तु वह पवन तूफान में बदल गया। बचने के लिए वफ़ाई कक्ष में घुस गई, किन्तु तूफान कक्ष में भी प्रवेश कर गया। घर की दीवारों ने वफ़ाई को तूफान में बह जाने से बचा लिया। कुछ ही क्षणों के तूफान का प्रभाव सारे घर में बिखर कर रह गया।

सारा घर रेत और धूल से भर गया था। सब वस्तुएं जैसे रेत में स्नान कर के अभी अभी आई हो। वफ़ाई भी रेत से ढँक गई थी। केवल जानु ही रेत के स्नान से बचा हुआ था।

जानु ने वफ़ाई को छेड़ा,” तुम तो रेत सुंदरी लग रही हो, ओ पर्वत सुंदरी।“

वफ़ाई ने हास्य के साथ जवाब दिया,”हेय जानु, मैं अभी भी पर्वत सुंदरी ही हूँ।“ वफ़ाई स्वयं को दर्पण में देखने लगी।

“रेत में पर्वत सुंदरी। तुम्हारे लिए यही नाम उचित रहेगा।“ जानु ने सुझाया।

“पागल मत बनो। अपने आप को तैयार करो।“

“किसके लिए? क्या हम लौट रहे हैं?” मरुभूमि को छोड़ने की आश में जानु उत्साहित हो गया। किन्तु वफ़ाई की योजना अलग थी।

“नहीं। हम यहाँ से भाग नहीं रहे हैं किन्तु हम मरुभूमि में कहीं खो जाने को जा रहे हैं।“

“क्या अर्थ है वफ़ाई तुम्हारा?”

“पहले घर को साफ करते हैं। फिर मरुभूमि में जाते हैं।“

“किन्तु हमने तो निश्चय किया था कि हम मरुभूमि को आज छोड़ देंगे। तुम तो...‘

“हाँ, यह निर्णय हुआ था कि यदि कोई घटना नहीं घटी तो हम चले जाएंगे। किन्तु आज मरुभूमि पूर्ण रूप से बदल गई है।“

“तो क्या योजना है तुम्हारी?”

“हम इस मरुभूमि के अंदर, खूब अंदर तक जाएंगे और वहाँ जीवन को ढूँढेंगे। मुझे पूर्ण विश्वास है कि कहीं ना कहीं जीवन है इस मरुभूमि में। बस हमें उसे ख़ोज निकालना है।“ वफ़ाई ने केमरे को एक तरफ रखा, घर को साफ किया और गहन मरुभूमि कि लंबी यात्रा की तैयारी करने लगी।

एक घंटे पश्चात उत्तर दिशा में जीप जा रही थी जहां से वह तूफान आया था। वह दो घंटे तक जीप चलाती रही किन्तु उसे ऐसे कोई भी संकेत नहीं मिले जिसकी उसे अपेक्षा थी। वह थक गई। जीप को एक तरफ रोक दिया। गहरी सांस लेने लगी।

वह फिर से निराश थी। वह स्थान भी बाकी सभी स्थानों से भिन्न नहीं था। उसे वह स्थान भी परिचित सा लगा।

वही एकांत से भरे मार्ग, वही रेत, वही धूल, कोई व्यक्ति नहीं, कोई पशु नहीं, कोई पंखी तक नहीं। उष्ण हवा और वही अनंत तक फैला मौन। इतने दिनों से मरुभूमि में रहकर वफ़ाई को उसकी आदत सी हो गई थी।

दोपहर हो गई थी, सूरज ठीक माथे पर ही था। किन्तु वह मध्ध्म सा था। तापमान भी सामान्य ही था। फिर भी वह थकान अनुभव कर रही थी। एक प्रकार की अरुचि हवा में थी।

वफ़ाई ने कुछ खाना खाया और जीप में ही विश्राम करने लगी।

जब वफ़ाई जागी तब संध्या गगन में प्रवेश कर चुकी थी। पश्चिम दिशा में किसी को मिलने को उतावला हुआ सूरज भी तेज गति से चल रहा था।

वफ़ाई ने आसपास का निरीक्षण किया और पूरा साहस जुटाया, आगे की यात्रा के लिए।

जैसी ही वफ़ाई ने जीप चालू की, जानु ने प्रश्न किए,”क्या कर रही हो? कहाँ जा रही हो?”

“हम और गहन मरुभूमि में जा रहे हैं। आज मैं किसी ना किसी को मिलना चाहती हूँ। मैं आज किसी को अवश्य खोज निकालुंगी और उसे मिलूँगी।“

“वफ़ाई, पागल मत बनो और अपने घर को लौट चलो।“

“अपना घर? जानु इस मरुभूमि में हमारा कोई घर नहीं है।‘

“फिर भी हमें अंधकार से पहले उस घर को लौट जाना चाहिए।“

“मैं तब तक नहीं लौटुंगी जब तक मैं किसी व्यक्ति को अथवा कोई वस्तु को ढूंढ ना लूँ जो जीवन से भरे हो। हम इस मृत मरुभूमि में जीवन की खोज में हैं। यही एक मात्र लक्ष्य है अभी हमारा।“

“तुम वास्तव में पागल हो, वफ़ाई। यहाँ कोई नहीं रहता, किसी का भी यहाँ अस्तित्व नहीं है। तुम गहरे सागर में सुई ढूंढ रही हो। समय और शक्ति का व्यय मात्र।“

“हाँ, मैं गहन सागर में सुई ढूंढ रही हूँ, किन्तु यह तो तुम भी मानते हो की वहाँ सुई है। सुई का अस्तित्व है। यदि सुई वहाँ है तो उसे किसी भी गहनता से खोज निकालने का हमें साहस करना होगा।“

“ऐसा कोई अवसर नहीं मिलेगा तुम्हें, वफ़ाई।“

“एक बड़ी आशा है जिनके सहारे मैं आगे बढ़ूँगी। मुझे जाने दो और लक्ष्य को पाने दो।“ जानु के प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वफ़ाई ने जीप चला दी।

आधे घंटे से भी अधिक समय व्यतीत हो गया, कुछ भी नहीं बदला। वफ़ाई सतत जीप चला रही थी, अपितु मरुभूमि में भटक रही थी। वफ़ाई अपने निश्चय में द्रढ थी, वह चलती रही।

जीप से बाहर पसार हो रहे विश्व को वफ़ाई देखती रही। जीवन विहीन वस्तुएं पीछे छुट रही थी। कोई आभास नहीं, कोई स्मित नहीं, कोई प्रतिभाव नहीं इन वस्तुओं से। सब निष्प्राण था, सुस्त था, निष्क्रिय था, स्थिर था। किन्तु इन सब का वफ़ाई पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह अपने मार्ग पर, अपने निश्चय पर अडग सी चलती रही।

समय के लंबे अंतराल के बाद वफ़ाई ने दूर किसी पंखी को उड़ते देखा। उसे विस्मय हुआ। उसे संशय हुआ कि वास्तव में वह पंखी ही था या उसके मन एवं आँखों का भ्रम था।

“वफ़ाई, क्या वह पंखी ही था? जब हम किसी व्यक्ति अथवा वस्तु की खोज में होते हैं तब हमें हर वस्तु में वही द्रष्टि गोचर होता है। क्या कोई भ्रमणा वहाँ उड रही थी? निश्चय ही वह मेरा भ्रम था।” वफ़ाई ने स्वयं से कहा।

वफ़ाई ने आँखों को मला, एक बार, दो बार, तीन बार, चार बार। पलकों को झपकाया फिर जीप रोक दी। वह बाहर आई, पानी से मुख धोया और स्वस्थ हो गई। दूरबीन निकाला और दूर उड़ते पंखी को देखने लगी। दूरबीन के लेंस को आगे पीछे किया, झूम किया।

वफ़ाई को वह पंखी स्पष्ट दिख रहा था। वह नीले और काले रंग का पंखी था जो जमीन से अस्सी-

सौ फिट ऊपर उड़ रहा था। वह धीरे धीरे, अपनी पंखों को पूरा खोलकर, सरलता से उड़ रहा था। नीला गगन गहरे सागर जैसा लग रहा था और उड़ता नीला पंखी सागर की लहर जैसा। वह सहज ही उड़ रहा था, जैसे मधुर संगीत की सुरावली बह रही हो। पंखी के उड़ने ओर गति करने से वफ़ाई पूर्णत: सम्मोहित थी। वह मूक हो गई, बस देखती ही रही।

वफ़ाई ने फिर से पंखी पर ध्यान लगाया। कुछ और पंखी उसे दिखाई दिये। वह प्रसन्न हो गई। एक पंखी उसके ह्रदय में, उसकी रक्त वाहिनियों में प्रवेश कर गया जो धीरे धीरे गति करता हुआ सारे शरीर में प्रसर गया। रक्त सागर की भांति उछलने लगा, वफ़ाई को भाने लगा।

वफ़ाई के अंदर के पंखी ने पंख फैलाये, वफ़ाई ने अपने हाथ। पंखी उड़ने को तैयार था, ऊपर, ऊपर और अधिक ऊपर, वफ़ाई भी।

“जानु, देखो वहाँ पंखी उड़ रहे हैं। अनेक पंखी है...’

“तो क्या हुआ?” जानु ने रूची नहीं दिखाई।

“जहां पंखी होते हैं वहाँ जीवन अवश्य ही होता है। मैं विश्वास करती हूँ कि वहाँ कोई अवश्य होगा।

“वफ़ाई, क्या आशय है तुम्हारा? मैं तो...“बस मेरे साथ चलते रहो।“ वफ़ाई जीप के अंदर कूद पड़ी और उड़ते पंखीयों की दिशा में जीप चलाने लगी।


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