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दुब्रोव्स्की - 18

दुब्रोव्स्की - 18

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किरीला पेत्रोविच हॉल में चहलकदमी कर रहा था, हमेशा से अधिक ज़ोर से सीटी पर अपना गाना बजा रहा था , पूरे घर में हलचल थी, सेवक भाग रहे थे, नौकरानियाँ व्यस्त थीं, सराय में गाड़ीवान गाड़ी तैयार कर रहे थे आँगन में लोग एकत्रित थे।

मालकिन के कमरे में, आईने के सामने नौकरानियों से घिरी एक महिला विवर्ण, निश्चल मारिया किरीलव्ना को सजा रही थी, उसका सिर हीरे-जवाहरात के बोझ से झुका जा रहा था, जब किसी का हाथ असावधानीवश उसे चुभ जाता तो वह रह-रहकर काँप जाती थी, मगर वह मौन थी, ख़ाली-ख़ाली नज़रों से आईने में देख रही थी।

“जल्दी ,” दरवाज़े के निकट किरीला पेत्रोविच की आवाज़ सुनाई दी।

“एक मिनट,” महिला बोली, “मारिया किरीलव्ना, उठिये, देख लीजिए, सब ठीक तो है?”

मारिया किरीलव्ना उठी, मगर बोली कुछ नहीं। दरवाज़ा खुला।

“दुल्हन तैयार है,” महिला किरीला पेत्रोविच से बोली, “गाड़ी में बैठाने की आज्ञा दीजिए। ”

“ख़ुदा तुम्हारे साथ ,” किरीला पेत्रोविच ने जवाब दिया और मेज़ से येशू वाला सलीब उठाकर आर्त स्वर में कहा, "मेरे पास आओ, माशा, तुम्हें आशीर्वाद दूँ। ” बेचारी लड़की पैरों पर गिर पड़ी और हिचकियाँ ले-लेकर रोने लगी।

“प्यारे पापा, पापा ” रोते हुए वह बोली और उसकी आवाज़ मानो जम गई। किरीला पेत्रोविच ने जल्दी-जल्दी उसे आशीर्वाद दिया, उसे उठाया और करीब-करीब हाथों में उठाकर गाड़ी में बिठा दिया। उसके साथ बैठी धर्ममाता और एक नौकरानी। वे चर्च की ओर चले। वहाँ दूल्हा उनका इंतज़ार कर रहा था। वह उनका स्वागत करने के लिए आगे बढ़ा और दुल्हन का विवर्ण मुख और विचित्र दशा देखकर स्तब्ध रह गया।

वे साथ ही गए, सूने चर्च में, उनके पीछे दरवाज़े बंद कर दिए गए। पादरी बेदी के पीछे से निकला और उसने फ़ौरन आरम्भ कर दिया। मारिया किरीलव्ना कुछ भी नहीं देख रही थी, कुछ भी नहीं सुन रही थी, बस एक ही बात के बारे में सोच रही थी। सुबह से वह दुब्रोव्स्की का इंतज़ार कर रही थी। आशा ने एक पल के लिए भी उसका दामन न छोड़ा था। मगर जब पादरी हमेशा पूछे जाने वाले प्रश्न के साथ उसकी ओर मुख़ातिब , तो वह सिहर गई, जम गई, मगर फिर भी देर करती रही, अभी भी इंतज़ार करती रही, पुजारी ने उसके जवाब का इंतज़ार किए बगैर उन शब्दों का उच्चारण कर दिया, जिन्हें लौटाया नहीं जा सकता।

विधि पूर्ण हो चुकी थी। उसने अप्रिय पति के ठण्डे चुम्बन का अनुभव किया, उसने सभी उपस्थितों की बधाइयाँ सुनी और फिर भी विश्वास न कर सकी, कि उसका जीवन हमेशा के लिए कैद हो गया है, कि दुब्रोव्स्की उसे आज़ाद करने के लिए नहीं आया। राजकुमार उससे प्रेम भरे शब्द कह रहा था, वह उन्हें समझ नहीं रही थी, वे चर्च से बाहर निकले, ड्योढ़ी में पक्रोव्स्कोए से आए हुए किसानों का जमघट था। उसकी नज़र जल्दी से उन पर फिसलती हुई रुकी और दोबारा संज्ञाहीन हो गई। नव विवाहित दम्पत्ति एक साथ गाड़ी में बैठे और अर्बातवो की ओर चले, किरीला पेत्रोविच पहले ही वहाँ जा चुका था, जिससे कि वह दम्पत्ति का स्वागत कर सके।

जवान पत्नी के साथ अकेले रह जाने पर भी राजकुमार को उसकी ठण्डी नज़रों से कोई उलझन नहीं हो रही थी। उसने उसे कृत्रिम बातों और बेवकूफ़ी भरे मज़ाकों से बेज़ार करना बन्द कर दिया। उसके शब्द सीधे-सादे थे और उत्तर की मांग नहीं करते थे। इस तरह वे लगभग दस मील चले, कस्बे की सड़कों पर घोड़े बिल्कुल हिचकोले नहीं खा रहे थे और गाड़ी भी अपनी अंग्रेज़ी सीटों के कारण ज़रा भी हिचकोले नहीं खा रही थी।

अचानक पीछा करने वालों की चीख़ें सुनाई दीं, गाड़ी रुक गई, हथियारों से लैस व्यक्तियों के झुण्ड ने उसे घेर लिया, और नक़ाब पहने एक आदमी ने गाड़ी का उस तरफ़ का दरवाज़ा खोलकर, जहाँ युवा राजकुमारी बैठी थी, कहा, “आप आज़ाद हैं, बाहर निकलिए। ”

“इसका क्या मतलब है?” राजकुमार चीख़ा । “तुम हो कौन?”

“यह दुब्रोव्स्की है,” राजकुमारी बोली।

राजकुमार ने समय सूचकता दिखाते हुए बगल वाली जेब से पिस्तौल निकाली और नकाबपोश को गोली मार दी। राजकुमारी चीख़ी और उसने दोनों हाथों से मुँह ढाँप लिया। गोली दुब्रोव्स्की के कन्धे पर लगी थी, खून दिखाई दे रहा था। राजकुमार ने एक भी क्षण खोए बिना दूसरी पिस्तौल निकाली, मगर उसे गोली चलाने का मौका नहीं दिया गया, दरवाज़े खुल गए और कुछ ताकतवर हाथों से उसे फ़ौरन गाड़ी से बाहर खींचकर उसके हाथ से पिस्तौल छीन लिया। उसके ऊपर अनेक चाकू चमचमा उठे।

“उसे छूना नहीं,” दुब्रोव्स्की चीख़ा और उसके उदास साथी पीछे हट गए।

“आप आज़ाद हैं,” दुब्रोव्स्की विवर्ण राजकुमारी की ओर मुख़ातिब होते हुए बोला।

“नहीं,” उसने जवाब दिया, “अब देर हो चुकी है, मेरी शादी हो चुकी है, मैं राजकुमार वेरेइस्की की पत्नी हूँ। ”

“आप क्या कह रही हैं?” दुब्रोव्स्की बदहवासी से चीख़ा, नहीं, आप उसकी पत्नी नहीं हैं, आप मजबूर थीं, आप इसके लिए कभी भी राज़ी न होतीं। ”

“मैं राज़ी हो गई, मैंने वचन दे दिया,” उसने ज़बर्दस्त प्रतिवाद करते हुए कहा, "राजकुमार मेरा पति है, उसे आज़ाद करने का हुक्म दो और मुझे उसके साथ छोड़ दो। मैंने धोखा नहीं दिया है। मैं आख़िरी पल तक आपका इंतज़ार करती रही। मगर अब मैं आपसे कहती, अब देर हो चुकी है। हमें छोड़ दीजिए। ”

मगर दुब्रोव्स्की को उसकी बातें सुनाई ही नहीं दे रही थी, ज़ख्म का दर्द और दिल की गहरी चोट ने मिलकर उसे शक्तिहीन बना दिया। वह पहिए के पास गिर पड़ा डाकुओं ने उसे घेर लिया। वह उनसे कुछ ही शब्द कह पाया, उन्होंने उसे घोड़े पर बैठा दिया, दो डाकुओं ने उसे सहारा दिया, तीसरे ने घोड़े की लगाम पकड़ी और वे सब एक किनारे निकल, गाड़ी को रास्ते के बीच में छोड़कर, लोगों को बँधी हुई अवस्था में, घोड़ों को गाड़ी से अलग कर, मगर बिना कुछ लूटे और बिना ख़ून की एक भी बूँद बहाए, जो उन्हें अपने नायक के खून के बदले में बहानी चाहिए थी।



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