दुब्रोव्स्की - 11
दुब्रोव्स्की - 11
अब मैं हमारी कहानी की हाल ही की घटनाओं को समझाने के लिए पहले के कुछ हालात की ओर पाठकों को ले जाने की इजाज़त चाहूँगा। इन घटनाओं के बारे में हम पहले नहीं बता सके थे।
चौकी पर, डाकचौकी के मुंशी के घर, जिसके बारे में हम पहले बता चुके हैं, कोने में एक मुसाफ़िर बैठा था, शांति और सहनशीलता की मूर्ति बना हुआ, जो यह प्रकट कर रहा था कि वह या तो कोई क्लर्क है या फिर कोई विदेशी, याने कि ऐसा आदमी जिसके पास डाक-चौकियों वाले मार्ग पर आवाज़ नहीं होती। उसकी गाड़ी आँगन में खड़ी तेल पानी का इंतज़ार कर रही थी। उसमें एक छोटी सी अटैची पड़ी थी, जो उसकी गरीबी को प्रदर्शित कर रही थी। मुसाफ़िर ने अपने लिए न चाय मँगवाई, न कॉफ़ी, वह खिड़की से बाहर देखते हुए लगातार सीटी बजाता जा रहा था, जिससे दीवार के पीछे बैठी मुंशी की बीबी को बड़ी कोफ़्त हो रही थी।
“भेजा है ख़ुदा ने इस सीटीमार को”, उसने दबी ज़ुबान से कहा, “बजाए चला जा रहा है, ख़ुदा करे, उसकी सीटी न निकल जाए, बदमाश कहीं का, काफ़िर!”
“तो हुआ क्या?” मुंशी ने कहा, “कौन-सी मुसीबत आ रही है; बजाने दो सीटी, अगर बजाता है तो!”
“मुसीबत की बात पूछते हो?” पत्नी ने गुस्से से प्रतिवाद किया, “क्या तुम शगुन की बात नहीं जानते?”
“कैसे शगुन? कि सीटी पैसे उड़ा ले जाती है? लो, सुन लो! पखोमव्ना, हमारे यहाँ तो सीटी बजाने से कुछ उड़ने वाला है ही नहीं : पैसा तो है ही नहीं।”
“तुम उसे भेजो जल्दी, सीदरिच। तुम्हें तो उसको रोके रखना बड़ा अच्छा लग रहा है। उसे घोड़े दे दो, जाए जहन्नुम में।”
“इंतज़ार कर लेगा, पखोमव्ना, अस्तबल में सिर्फ तीन ‘त्रोयका’ हैं, चौथी आराम कर रही है। अगर बीच ही में अच्छे मुसाफ़िर आ गए तो…उस फ्रांसीसी के लिए अपनी गर्दन देने का मुझे कोई शौक नहीं है। बस, ऐसी ही बात है। देखो, आ रहे हैं। ए-हे-हे...क्या शान से : कहीं जनरल तो नहीं?”
ड्योढ़ी के पास बन्द गाड़ी रुकी। सेवक पायदान से कूदा, दरवाज़े खोले और एक मिनट बाद लम्बा फ़ौजी कोट पहने, सफ़ेद फुन्दे वाली टोपी पहने एक नौजवान डाकचौकी के मुंशी के पास आया, उसके पीछे-पीछे सेवक सन्दूक लेकर आया, जिसे उसने खिड़की में रख दिया।
“घोड़े”, अफ़सर ने हुक़ूमत भरी आवाज़ में कहा।
“अभी लीजिए”, मुंशी ने जवाब दिया, “कृपया सफ़रनामा दिखाइए।”
“नहीं है मेरे पास सफ़रनामा। मैं छोटे रास्ते पर जा रहा हूँ...क्या तुम मुझे नहीं पहचानते?”
मुंशी घबरा गया और जल्दी से घोड़े तैयार करने के लिए भागा। नौजवान कमरे में चहल कदमी करने लगा, दीवार के पीछे गया और मुंशी की बीबी से पूछा: “मुसाफ़िर कौन है?”
“ख़ुदा जाने”, मुंशीआइन बोली, “कोई फ्रांसीसी है। पाँच घण्टे हो गए, घोड़ों का इंतज़ार कर रहा है और सीटी बजाये जा रहा है। दिमाग़ ख़राब कर दिया दुष्ट ने!”
नौजवान मुसाफ़िर से फ्रांसीसी में बातें करने लगा।
“कहाँ जा रहे हैं आप?” उसने उससे पूछा।
“पास ही के शहर में”, फ्रांसीसी ने जवाब दिया, “वहाँ से एक ज़मीन्दार के यहाँ जाऊँगा, जिसने मुझे परोक्ष रूप से शिक्षक के रूप में नियुक्त किया है। मैं सोचता था कि आज ही पहुँच जाऊँगा, मगर मुंशीजी का इरादा कुछ और है। इस देश में घोड़े पाना मुश्किल है, ऑफिसर महोदय।”
“किस ज़मीन्दार के यहाँ नियुक्ति हुई है आपकी?”
“त्रोएकूरव महाशय के यहाँ”, फ्रांसीसी ने जवाब दिया।
“त्रोएकूरव के यहाँ? कौन है यह त्रोएकूरव?”
“सच बताऊँ, ऑफिसर...मैंने उसके बारे में अच्छी बातें कम ही सुनी हैं। कहते हैं कि वह घमंडी और झक्की है, घर के सभी नौकरों के साथ क्रूरता से पेश आता है, उसके साथ कोई भी ज़्यादा दिन नहीं रह सकता, सभी उसके नाम से काँपते हैं, शिक्षकों के साथ उसका व्यवहार शिष्टाचारयुक्त नहीं होता, और सुना है, दो को तो उसने इतना सताया कि वे मर ही गए।”
“माफ़ कीजिए! फिर भी आपने ऐसे अजीब आदमी के यहाँ जाने का निश्चय कर लिया!”
“क्या करता, ऑफिसर महाशय! वह तनख़्वाह अच्छी दे रहा है, तीन हज़ार रूबल्स प्रतिवर्ष और बाकी सब मुफ़्त। हो सकता है, मैं औरों से अधिक भाग्यवान हूँ। मेरी माँ बूढ़ी है, आधी तनख़्वाह उसके खाने-पीने के लिए भेजा करूँगा, बचे हुए धन से पाँच वर्षों में अच्छी ख़ासी रकम जमा हो जाएगी, जो भविष्य में स्वतन्त्र रूप से रहने के काम आएगी और तब...अलविदा! पैरिस जाऊँगा और कोई व्यापार कर लूँगा।”
“त्रोएकूरव के घर में आपको कोई जानता है?”
“कोई नहीं”, शिक्षक ने जवाब दिया, “मुझे उसने मॉस्को से अपने एक मित्र के माध्यम से बुलवाया है, जिसके रसोइये ने, जो मेरा ही देशवासी है, मेरे नाम का सुझाव दिया। आपको यह जान लेना चाहिए, कि मैं शिक्षक के रूप में कार्य नहीं करना चाहता था, मैं ‘कन्फेक्शनरी’ में काम करना चाहता था, मगर मुझे बताया गया, कि आपके देश में शिक्षक की नौकरी पाना आसान है।”
“सुनिए”, अफ़सर ने उसे टोकते हुए कहा, “यदि आपको इस ‘भावी जीवन’ के बदले दस हज़ार रूबल्स नगद दे दिए जाएँ, कि आप यहाँ से फ़ौरन पैरिस रवाना हो जाएँ, तो?”
फ्रांसीसी ने अफ़सर की ओर आश्चर्य से देखा, मुस्कुराया और उसने सिर हिलाया।
“घोड़े तैयार हैं”, अन्दर आते हुए डाक चौकी का मुन्शी बोला। सेवक ने भी यही बात अन्दर आकर कही।
“अभी”, अफ़सर ने जवाब दिया, “एक मिनट के लिए बाहर जाइए”। नौकर और मुन्शी बाहर निकल गए। “मैं मज़ाक नहीं कर रहा”, उसने फ्रांसीसी में ही अपनी बात जारी रखी, “दस हज़ार मैं आपको दे सकता हूँ, मुझे सिर्फ आपकी अनुपस्थिति और आपके कागज़ात चाहिए।”
इतना कहकर उसने सन्दूक खोला और नोटों की कई गड्डियाँ निकालीं। फ्रांसीसी की आँखें फटी रह गईं, वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या सोचे।
“मेरी अनुपस्थिति, मेरे कागज़ात”, वह विस्मय से दोहराता रहा, “ये रहे मेरे कागज़ात...मगर, आप मज़ाक कर रहे हैं : आपको मेरे कागज़ात से क्या काम है?”
“इससे आपको कोई मतलब नहीं। मैं पूछ रहा हूँ, आप राज़ी हैं अथवा नहीं?”
अपने कानों पर अभी भी विश्वास न करते हुए फ्रांसीसी ने कागज़ात नौजवान की ओर बढ़ा दिए, जिसने शीघ्रता से उन्हें पढ़ लिया।
“आपका पासपोर्ट, ठीक है! सिफ़ारिशी ख़त देखेंगे! जन्म का प्रमाण – बहुत अच्छे! यह रहे आपके दस हज़ार, वापस चले जाइए! अलविदा!”
फ्रांसीसी पाषाणवत् खड़ा रहा।
अफ़सर मुड़ा।
“सबसे महत्वपूर्ण बात तो मैं भूल ही गया। मुझे वचन दीजिए कि यह सब हम दोनों के बीच ही रहेगा, प्रतिज्ञा कीजिए!”
“वादा करता हूँ”, फ्रांसीसी ने जवाब में कहा। “मगर मेरे कागज़ात, उनके बग़ैर मैं क्या करूँगा?”
“पहले ही शहर में जाकर बता दीजिए कि आपको दुब्रोव्स्की ने लूट लिया। आपकी बात पर विश्वास कर लेंगे और आवश्यक प्रमाण-पत्र दे देंगे। अलविदा, ख़ुदा करे आप जल्दी ही पैरिस पहुँचकर अपनी माँ को तंदुरुस्त पाएँ।”
दुब्रोव्स्की कमरे से बाहर निकला, गाड़ी में बैठा और चल पड़ा।
मुंशी ने खिड़की से देखा और जब गाड़ी चली गई तो उसने बीबी से विस्मयपूर्वक कहा, “पखोमव्ना, जानती हो? वह दुब्रोव्स्की था!”
मुंशीआइन हड़बड़ाकर खिड़की के पास भागी, मगर तब तक देर हो चुकी थी, दुब्रोव्स्की दूर निकल चुका था। उसने उसको गालियाँ देना शुरू किया : “ख़ुदा से तुम्हें डर नहीं लगता, सीदरिच, तुमने यह बात मुझे पहले क्यों नहीं बताई, मैं दुब्रोव्स्की की एक झलक देख ही लेती, और अब, इन्तज़ार करते रहें उसके वापस लौटने का! बेदिल हो तुम, सचमुच बेदिल!”
फ्रांसीसी पाषाणवत् खड़ा ही रहा। ऑफ़िसर से अनुबन्ध, पैसे – उसे सब कुछ सपना ही लग रहा था। मगर नोटों की गड्डियाँ वहीं थीं, उसकी जेब में, जो बड़ी मिठास के साथ इस आश्चर्यजनक घटना के घटित होने की पुष्टि कर रही थीं।
उसने शहर तक घोड़े किराए पर लेने का निश्चय किया। कोचवान उसे फ़ौरन ले चला और रात को वह शहर पहुँच गया।
चौकी तक पहुँचने से पहले ही, जहाँ चौकीदार के स्थान पर भग्न कोठरी ही थी, फ्रांसीसी ने रुकने की आज्ञा दी, गाड़ी से बाहर निकला और पैदल चल पड़ा, कोचवान को इशारों से यह समझाकर कि गाड़ी और अटैची उसे उपहार में दे रहा है, वोद्का पीने के लिए। उसकी दरियादिली से कोचवान को भी उतना ही अचरज हुआ जितना फ्रांसीसी को दुब्रोव्स्की के प्रस्ताव से हुआ था। मगर यह निष्कर्ष निकालकर कि जर्मन पागल हो गया है, कोचवान ने तहे दिल से उसका झुककर अभिवादन किया और शहर में जाने के बदले वह दिल बहलाने के एक अड्डे पर पहुँचा, जिसके मालिक से वह भलीभाँति परिचित था। वहाँ उसने पूरी रात गुज़ारी और दूसरे दिन सुबह राह चलती त्रोयका में बैठकर, बिना गाड़ी के, बिना अटैची के, सूजे हुए चेहरे और लाल आँखों के साथ वापसी के सफ़र पर चल पड़ा।
फ्रांसीसी के कागज़ात पर कब्ज़ा करने के बाद दुब्रोव्स्की बड़ी ढिठाई से, जैसा कि हम देख चुके हैं, त्रोएकूरव के घर पहुँचा और उसके घर में रहने लगा। उसके मन में न जाने कौन-से रहस्यमय इरादे थे (उनके बारे में हम बाद में देखेंगे) मगर उसके व्यवहार में कुछ भी आक्षेपार्ह नहीं था। यह सच है, कि नन्हे साशा की देखभाल वह कम ही करता, उसने उसे खेलकूद के लिए पूरी आज़ादी दे रखी थी, और पढ़ाई करते समय भी उसके साथ कठोरता नहीं बरती। यह पढ़ाई एक दिखावा मात्र थी – मगर वह अपनी शिष्या की संगीत शिक्षा में बड़ी रुचि लेता, और अक्सर पूरी-पूरी शाम उसके साथ पियानो पर बैठा रहता। नौजवान शिक्षक से सभी प्यार करते, किरीला पेत्रोविच शिकार पर उसकी बहादुरी के लिए, मारिया किरीलव्ना उसकी असीमित निष्ठा एवम् नम्रतापूर्ण देखभाल के लिए, साशा अपनी शरारतों को नज़रअन्दाज़ करने के लिए, नौकर-चाकर उसकी भलमनसाहत एवम् दरियादिली के लिए। वह स्वयम् भी, ऐसा लगता था, पूरे परिवार से घुलमिल गया था और अपने आपको इस परिवार का एक सदस्य ही समझने लगा था।
शिक्षक के पद उसके कार्यरत होने से लेकर उस अविस्मरणीय उत्सव के आने तक लगभग एक महीना बीत गया और किसी को भी शक नहीं हुआ, कि इस संकोचशील, नौजवान फ्रांसीसी के भीतर एक ख़तरनाक डाकू छिपा है, जिसके नाम से आसपास के सभी ज़मीन्दार थर्राते थे। इस पूरे समय दुब्रोव्स्की पक्रोव्स्कोए से बाहर नहीं गया, मगर ग्रामवासियों की कल्पनाशक्ति की बदौलत उसके डाकों की ख़बरें कम नहीं हुईं; यह भी हो सकता है, कि अपने मुखिया की अनुपस्थिति में भी उसके गिरोह ने अपना काम जारी रखा हो।
उस व्यक्ति के साथ एक ही कमरे में रात बिताते हुए, जिसे वह अपना व्यक्तिगत शत्रु एवम् अपने दुर्भाग्य का एक प्रमुख कारण मानता था, दुब्रोव्स्की स्वयम् पर काबू न रख सका। उसे धन के वहाँ होने के बारे में मालूम था और उसने उसे अपने अधिकार में लेना चाहा। हम देख ही चुके हैं कि बेचारे अन्तोन पाफ्नूतिच को उसने किस तरह अप्रत्याशित रूप से शिक्षक से डाकू बनकर विस्मित कर दिया था।
सुबह नौ बजे पक्रोव्स्कोए में रात बिताने वाले मेहमान एक-एक करके मेहमान-खाने में आने लगे जहाँ ‘समोवार’ उबल रहा था, जिसके सामने प्रातःकालीन पोषाक में बैठी थी मारिया किरीलव्ना और किरीला पेत्रोविच मखमल का कोट और जूते पहने अपने बड़े चौड़े प्याले में चाय पी रहा था। अन्तोन पाफ्नूतिच सबसे अन्त में आया, वह इतना परेशान और विवर्ण नज़र आ रहा था कि उसकी हालत ने सबको स्तम्भित कर दिया और किरीला पेत्रोविच उसके स्वास्थ्य के बारे में पूछ बैठा। स्पीत्सिन असम्बद्ध उत्तर देता रहा और भयभीत नज़रों से शिक्षक की ओर देखता, जो वहीं इस तरह बैठा था, मानो कुछ हुआ ही न हो। कुछ मिनटों के बाद सेवक ने स्पीत्सिन को बताया कि उसकी गाड़ी तैयार है। अन्तोन पाफ्नूतिच ने फ़ौरन झुककर विदा ली और मेज़बान की किसी भी बात पर ध्यान दिए बिना फ़ौरन कमरे से बाहर निकल कर घर के लिए चल पड़ा। कोई भी समझ न पाया कि उसे हुआ क्या था, और किरीला पेत्रोविच ने सोचा कि उसने ज़्यादा खा लिया था। चाय एवम् नाश्ते के बाद अन्य मेहमान भी एक-एक करके जाने लगे, जल्दी ही पक्रोव्स्कोए सूना हो गया और सब कुछ रोज़मर्रा के ढर्रे पर आ गया।