मिले हर दाने की वाजिब कीमत
मिले हर दाने की वाजिब कीमत
अपनी जमा पूँजी लगाकर पेट भरने के लिए दिन-रात खटने वाले किसान की त्रासदी है की न तो उसकी कोई आर्थिक सुरक्षा है और न ही सामाजिक प्रतिष्ठा, तब भी वह अपने श्रम-कणों से मुल्क को सींचने के लिए तत्पर रहता है. किसान के साथ तो यह होता ही रहता है की कभी बाढ़ तो कभी सूखा. यदि कभी फसल अच्छी आ ही गई, तो मंडी में अंधा-धुंध आवक के चलते माकूल दाम नहीं. प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का बस नहीं है, लेकिन यह आपदाऐं किसान के लिए मौत से भी बदतर होती हैं. किसानी महँगी होती जा रही है, तिस पर जमकर बाँट रहे कर्ज़ों से उस पर दबाव बढ़ रहा है. ऐसे में आपदा के समय महज कुछ सौ रुपऐ की राहत राशि उसके लिए ‘जले पर नमक’ की मानिंद होती है.सरकार में बैठे लोग किसान को कर्ज बाँटकर सोचते रहते हैं कि इससे खेती-किसानी की दशा बदलेगी, जबकि किसान चाहता है की उसे उसकी फसल की कीमत की गारंटी मिले. देश के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत भाग खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के पसीने से पैदा ओता है, पर यह विडंबना ही है की देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है. एक बात जान लेना जरुरी है कि किसान को न तो कर्ज चाहिऐ और न ही कोई छूट-सब्सिडी. उसके उत्पाद का उसी के गाँव में बिक्री और सुरक्षित भण्डारण की व्यवस्था की जाऐ. किसान को सब्सिडी से ज्यादा ज़रूरी है की उसके खाद-बीज व दवा के असली होने की गारंटी हो. अफरात फसल के हालत में किसान को बिचौलियों से बचाकर सही दाम दिलवाने के लिऐ ज़रुरी है कि, सरकारी एजेंसियाँ गाँव जाकर खरीदारी करें.
सब्जियाँ, फल-फूलों जैसे उत्पादों की खरीद एवं बिक्री स्वयं सहायता समूहों आदि के माध्यम से करना कोई कठिन काम नहीं है. एक बात और. इस काम में होने वाला व्यय, किसी नुक्सान के आकलन की सरकारी प्रक्रिया, मुआवज़ा वितरण आदि में होने वाले व्यय से कम ही होगा. कुल मिलाकर किसान के उत्पाद की कीमतों को बाजार नहीं, बल्कि सरकार तय करे, लेकिन विडम्बना यही है की हमारे आर्थिक आधार की मजबूत कड़ी के प्रति न ही समाज और न ही सियासती दल संवेदनशील दिख रहे हैं. काश! कोई सरकार किसान को फसल के हर दाने की वाज़िब कीमत का आश्वासन दे पाती, तो किसी भी किसान को न कभी हाथ फैलाना पड़ता और न ही कभी आत्महत्या जैसा कदम उठाना पड़ता.