धरती की व्यथा
धरती की व्यथा
हाँफती, खांसती हवा आकर जल के किनारे पसर गयी।
"क्या बात है बहन, बहुत थकी हुई लग रही हो," जल ने स्नेह से पूछाI
"क्या करूँ भाई, इन इंसानों ने तो जीना दुश्वार कर दिया है। इतना विषैला धुआँ, वाहनों, फैक्ट्रियों और न जाने कितनी दुर्गंध कचरे की। अब तो इतना बोझा लेकर चला भी नहीं जाता," हवा थकी-सी आवाज में बोली।
"सच है। इन इंसानों ने तो नाक में दम कर रखा है। मुझमें भी दुनिया भर की ऐसी गंदगी डालते हैं कि पूछो मत। खुद से ही घिन आने लगी है अब तो। ऊपर से मेरे सब जीव-जंतु बीमार होकर मर रहे हैं," जल भी दुःखी स्वर में बोला।
"और मेरा तो हाल ही मत पूछो। कहीं डामर, कंक्रीट से छाप दिया तो कहीं लोहे के सरिए मेरे बदन में उतार दिए। ऊपर से हर थोड़ी दूरी पर कचरे का ढेर। पॉलीथिन से मेरी उपजाऊ क्षमता भी खत्म करके खूब जहर फैलाते जा रहे हैं मुझमें," धरती कराही।
"तब भी तुम तीनों तो कभी तूफान बनकर, कभी बवंडर के रूप में, कभी भूस्खलन करके कुछ तो सबक सिखा ही देते हो इंसानों को। मैं जो तुम तीनों को स्वच्छ रखता हूँ, जल को बरसात रूप में, हवा का प्रदूषण साफ करता हूँ, मिट्टी की जड़ें बांधकर उसे बचाता हूँ, मौसम को संतुलित रखता हूँ और बदले में सबसे पहले इंसान मुझपर ही कुल्हाड़ी चलाता है," बूढ़े पेड़ की व्यथा पर बाकी सबकी भी आँखें भर आयीं।