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मेरी बारी

मेरी बारी

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शून्य में निहारती निभा की आँखें अपने छोटे पोता-पोती की याद में सूजती जा रही हैं जो उससे बहुत दूर चले गए हैं। अपने छोटे बेटे-बहू की याद में दुखी हो रही थी। सोचती थी मैने उसका इतना किया, मगर उसने मुझे इसका क्या सिला दिया। हर वक्त उसकी गलतियों पर पर्दा डालती रहती थी।

जब छोटी बहू उसके पास रहती थी तो निभा उसके लिए बड़ी बहू से लड़ती रहती थी। मगर उसकी छोटी बहू ने कभी उसकी इज्जत नहीं की, झिड़क देती थी, वो बेचारी निभा तो डर-डर के रहती थी छोटी बहू से।

अपनी ज़िन्दगी का हिसाब लगा रही थी वो आज। हमने तो कभी ऐसा व्यवहार नहीं किया था अपनी सास से। कैसे वो छोटी सी उम्र में ब्याह के आई थी गांव में, कोई समझ नहीं, कोई अनुभव नहीं, जो सास ने बता दिया वो ही कर लिया। जो समझा दिया वो ही समझ लिया। अपना तो जैसे कोई तर्क ही नहीं था। वह सास ननद से डर-डर के रहती थी। खाने में भी देर हो जाती थी उसे लेकिन उसने कभी कोई शिकायत नहीं की थी। सबसे पहले उठना आखिर में सोना और आखिर में ही खाना। फिर भी सास ननद की तानों की टोकरी उसके सिर पर रखी होती थी। सारा दिन काम में थक कर जब वो पलंग पर लेटती थी तब यही सोचती थी ससुराल इसे ही कहते है क्या? माँ ने तो कुछ और ही कहा था!

बेटी वहां सब तुझे प्यार करेंगे। तुझे रानी बना कर रखेंगे। पर यहां तो अपनी ज़िन्दगी अपनी नहीं। ना ही वो ये कह सकती है कि मुझे ये चीज खानी है या मुझे ये चाहिए। जब उसके पति की इच्छा शहर में रहने की हुई तो उसने शहर में मकान बनवा लिया। और वो अपने पति और बच्चों के साथ शहर आ गई। सोचा अब सुख के दिन आ जाएंगे। लेकिन वक्त को कुछ और ही मंजूर था। यहां आ के उसका पति पीने लगा। जिससे वो और परेशान हो गई। उसका पति अब खर्चा भी कम देने लगा। बच्चों पर खर्च न कर अपने पीने खाने में खर्च करने लगा।

निभा सोचती गांव में कम से कम पीते तो न थ। माँ का पूरा डर था। मगर अब यहां आ के आजादी मिल गई। अब वो कुछ बोलती तो दोनों में झगड़े होने लगते। झगड़े से बचती वो अब चुप ही रहने लगी। उसने तो जैसे अपने होंठ सिल से लिए थे। और काम धंधा भी खत्म हो गया। निभा का अब हाथ तंग रहने लगा। ऐसा कई साल चला। लेकिन ज़िन्दगी में छाया अन्धेरा अब छटने लगा था। उसके दोनों बेटे बड़े हो रहे थे। धीरे-धीरे दोनों बेटों ने अपना व्यवसाय कर लिया। काम अच्छा चल पड़ा।

अब सब ठीक हो गया था पहले से। उजड़ा घर फिर से बस गया था। बेटों के सहारे दिन कट जाएंगे पर क्या पता था बहुएं आकर ये दिन दिखाएगी। बड़ी बहू आई तो साधारण सी ज़िन्दगी चल रही थी। हां उनके बीच कभी कभार छोटी-मोटी नोकझोंक हो जाती थी, पर उनके बीच बहुत प्यार था। ये तो हर घर में ही होता है। लेकिन छोटी बहू के आते ही घर का माहौल ही बदल गया। छोटी-छोटी बातें बड़ा रूप धारण कर लेती थी। बातों का मतलब गलत निकलने लगे। सबका नजरिया भी बदलने लगा। मन में भेद भाव ने जन्म ले लिया था। कई साल यूं ही निकल गए।

एक दिन छोटी सी बात ने विकराल रूप ले लिया था। नौबत थाने तक आ गई थी। छोटी बहू. की शर्मनाक हरकत पर वो कही मुँह दिखाने लायक नहीं रहे थे। घर से निकलते वक्त ये सोचते थे कि कोई कुछ पुछेगा तो क्या जवाब देंगे।

वो सोचते उसने तो हमें जेल में डलवाने की सोच ही ली थी। पर भगवान ने हमें बचा ही लिया। उनकी छोटी बेटी की सिफारिश पर वो इन झंझट से बच निकले थे। झगड़ो ने तो नाक कटवा ही दी थी। फैसले में छोटे बेटे बहू को घर व शहर छोड़ना पड़ा।

उसके छोटे बेटे का मन बिलकुल नहीं था घर परिवार छोड़ कर जाने का, पर पंचायत का फैसला था मानना पड़ा। सभी रो रहे थे जब वो जा रहे थे, कोई बाहर से तो कोई अन्दर से, खुश थी तो बस एक छोटी बहू जिसकी मर्जी से ये सब हुआ।

उनके जाने के बाद वो बेटे पोते-पोती को याद करती रही। सोच रही थी पहले सास से डरकर फिर पति से डर कर दिन गुजरे। अब बहुओं से डरकर दिन गुजरेंगे। हमारी तो बारी कभी आएगी ही नहीं।

अपनी सास की ज़िन्दगी से सबक लेती निभा की बड़ी बहू अभी से सतर्क रहने लगी। आज उसका पति भी अपने पिता के नक्शे कदम पर चलने को तैयार है। और देवरानी ने तो ज़िन्दगी का पाठ पढ़ा ही दिया था। जिसे वो अपनी सहेली समझने लगी थी वो ही उसकी दुश्मन बन गई थी। उसकी देवरानी ने उसे सबके सामने नीचा दिखाने व झूठा साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

सबके दिलों में एक दूसरे के प्रति नफरत भरने की पूरी कोशिश की थी। पर दिलों में प्यार इतना भरा था कि नफरत समा ही नहीं सकी। वक्त ने निभा के आँसू तो सुखा दिए। मगर उसे आज भी अपनी बारी का इंतजार है। सिले हुए होंठों को आज भी खुलने का इंतजार है और बड़ी बहू को अपने ऊपर सास के एतबार का इंतजार।

 

 


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