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Vijayanand Singh

Romance

4.6  

Vijayanand Singh

Romance

बरसों___बरस ! प्रेम !

बरसों___बरस ! प्रेम !

8 mins
14.9K


 

आज कॉलेज से भारी मन से वह घर आई। सीढ़ियाँ चढ़ते वक़्त लगा, जैसे पैरों में ताक़त ही नहीं है।किसी तरह फ्लैट का लॉक खोला।अंदर सामान करीने से रखे हुऐ थे।आया काम करके जा चुकी थी।उसने किचेन से पानी लिया और सोफे पर बैठ गई।गटागट एक बोतल पानी पी गई।खिड़की के परदे सरकाऐ, तो यादों की रौशनी से उसका पूरा वजूद नहा गया -- "सिद्धू "- राँची में कालेज के दिनों का वो संग-साथ।साथ - साथ पढ़ाई करना।पढ़ाऐ गऐ टॉपिक पर आपस में डिस्कसन  करना। समस्या -समाधान।रूठना - मनाना।मन ही मन एक - दूसरे को महसूस करना।परिवारों की मर्यादा में आबद्ध मौन अभिव्यक्ति। सामाजिक अस्वीकार्यता के संकीर्ण दायरे।रूढ़ियों - परंपराओं की बलि चढ़ता उनका प्रेम।फिर, पिता की पसंद अविनाश से उसका विवाह।और, सिद्धू का उसकी ज़िंदगी से दूर चले जाना।अविनाश के संग शादीशुदा जीवन के वे अमूल्य,ख़ुशियों भरे पल।कश्मीर की हसीन वादियों में हनीमून।आँखों में सजते भविष्य के ख़ूबसूरत,रंगीन सपने।कानों में गूँजते सिद्धू के वे शब्द -" तुम ख़ुश  रहोगी तभी मैं भी ख़ुश  रहूँगा।"वह हर पल पूरी सिद्दत से जीने,ख़ुश  रहने,ख़ुशियाँ बाँटने की कोशिश करती।अनगिनत ख़ुशियों के उजालों से रौशन था उसका जहाँ।बीते हुऐ कल को भुलाकर वह अपने वर्त्तमान को सँवारने  लगी थी - कि अचानक एक रात - अविनाश का भीषण रोड एक्सीडेंट - और सबकुछ खत्म, तबाह हो गया। जीवन में अँधेरा छा गया।वह टूटकर भी टूट न सकी, बिखर न सकी - क्योंकि सामने पिता थे -बीमार, वृद्ध, असहाय।वे सदमा बर्दाश्त न कर सके।उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया।बेटी की  सूनी माँग देख पिता का कलेजा फट जाता। पिताजी ने उसे पुनर्विवाह की सलाह दी।मगर उसने इंकार कर दिया।उसके दुःख से पिताजी  दुःखी रहने लगे।वह दीवाली की रात थी, जब पिताजी को तीसरी बार हार्ट अटैक आया था।पड़ोसियों की मदद से तुरंत-फुरत हॉस्पिटल ले जाया गया।हॉस्पिटल में थोड़ी देर के लिए होश आया, तो उन्होंने पूछा - "सिद्धू कहाँ है।"इसके पहले कि वह कुछ जवाब दे पाती, पिताजी की आँखें बंद होने लगीं -और फिर, वे चिरनिद्रा में सो गऐ।काठ मार गया उसे।वह जड़ हो गई। रो भी न सकी। बेरहम जिंदगी ने उसे कठोर बना दिया था।इस दुनिया में नितांत अकेली हो गई वह।पर, न जाने कौन-सी जिजीविषा थी उसके अंदर, जिसने उसे ज़िंदा रखा!
      एम.एस-सी. कर चुकी थी वह।पापा के एक मित्र  ने स्कूल ज्वाइन कर लेने की सलाह दी।वह दो साल तक एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाती रही।उसी दौरान उसने यूजीसी-नेट क्वालिफाई कर लिया और हेमवतीनंदन बहुगुणा गढ़वाल युनिवर्सिटी में लेक्चरर हो गई।अतः गढ़वाल शिफ्ट हो गई।दिन भर कालेज में रहती।पढ़ने - पढ़ाने में समय बीत जाता।शाम को घर आती,खाना बनाती-खाती और सो जाती।वक़्त अपनी रफ़्तार से चलता रहा।वक़्त  के अनुसार उसने ख़ुद  को ढाल लिया था।दस वर्ष देखते-देखते बीत गऐ ।अपने अतीत से काफ़ी हद तक दामन छुड़ाकर वह वर्तमान को स्वीकार कर चुकी थी।वर्तमान में जीने लगी थी।
         मगर, आज हिन्दी वाले प्रो.कुमार के विवाह प्रस्ताव ने पुरानी यादों को ताजा कर दिया था।उसे झकझोर दिया था।अतीत की स्मृतियां हृदय को कचोटने लगी थीं।क्या किसी स्त्री को अकेली अपनी तनहाई के साथ जीने का हक नहीं?क्या अकेली स्त्री का जीवन जीवन नहीं?कुछ भी हो,अब वह अपनी मर्ज़ी से जीवन जिऐगी और निर्णय लेगी।उसने निश्चय कर लिया कि कल वह पूरी कठोरता से प्रो. कुमार को अपने इंकार से अवगत करा देगी।

*          *             *            *            *
       जाड़ों का मौसम बीत चुका था।गर्मियाँ आ गई थीं।ग्लोबल वामिॅग पर एक सेमिनार में भाग लेने वह देहरादून आई हुई थी।दून विश्वविद्यालय के हरे-भरे कैम्पस में स्थित सेमिनार हॉल में जब वह पहुँची, तो बारह बज चुके थे।वीसी, डीन और मुख्य अतिथि द्वारा दीप प्रज्जवलित कर कार्यक्रम का उद्घाटन किया जा रहा था।वह तेजी से अपनी निर्धारित सीट पर पहुँची।देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों से विषय-विशेषज्ञ प्रोफेसर्स इकट्ठा थे।एक - एक कर नाम पुकारे जाने लगे।सभी अपने-अपने विचार रख रहे थे।पावर प्वाइंट के माध्यम से तथ्यों को समझाने का प्रयास किया जा रहा था।अचानक एनाउंसमेंट पर उसका ध्यान गया - "नाउ आई वान्ट टू इनवाइट ऑन द स्टेज ,द एसोसिएट प्रोफेसर, डिपार्टमेंट आफ जूलाजी, एच.पी.शिमला युनिवसिॅटी –डॉ .सिद्धांत।" "सिद्धांत "- यह नाम सुनते ही जैसे उसकी तंद्रा टूटी, उसका रोम-रोम जाग्रत हो उठा।उसकी नजरें स्टेज की ओर जाने वाले रास्ते पर ठहर गईं।दूर से कुछ साफ़ नज़र नहीं आ रहा था।मगर चाल कुछ जानी  पहचानी - सी लगी।मन कभी-कभी इतना बेक़ाबू हो जाता है कि रोके नहीं रूकता। अहसास की तरंगें मन के सागर को हिलोड़ कर रख देती हैं।मन चाहकर भी मन के वश में नहीं रहता।उड़ता चला जाता है।विचरने लगता है - यादों की कुंज गलियों में, और मन की बंद  खिड़कियाँ-दरवाजे ख़ुद -ब-ख़ुद  खुल जाते हैं।तालियों की गड़गड़ाहट उसे वापस हॉल में ले आती है। डॉ .सिद्धांत  लेक्चर ख़त्म कर जा चुके थे।अब उसका नाम एनाउंस किया जा रहा था - "प्रो.सुरभि गुप्ता, एसिस्टेंट प्रोफेसर, डिपार्टमेंट ऑफ बॉटनी, एच.एन.बी. गढ़वाल युनिवसिॅटी।"वह स्टेज की ओर बढ़ गई।संबोधन के समय उसकी आवाज़  थोड़ी लड़खड़ाई।मगर फिर उसने अपने आप को सँभाल लिया।वह अपना  लेक्चर दे रही थी। पर उसकी आँखें हॉल में किसी को ढूँढ़ रही थीं।उसका लेक्चर ख़त्म होते ही सत्र समाप्ति की घोषणा हो गई।वह आज की आखिरी वक्ता थी।
      लोग धीरे-धीरे हॉल से बाहर  निकल  रहे  थे।वह  स्टेज से उतरकर दरवाजे से बाहर निकलने को हुई, तो कदम सहसा रूक गऐ - सामने सिद्धांत खड़े थे ! दोनों की नज़रें मिलीं, तो वक़्त  जैसे ठहर गया !साँसें थम गईं !सारी प्रकृति जैसे रूक गई !हृदय के संचित भाव शब्द बन प्रकट होने से पहले होठों की दहलीज पर आकर ठिठक गऐ !"सिद्धू !"- "सुरभि !"- एक ही साथ बोल पड़े दोनों! अतीत से दामन छुड़ाकर चलते इंसानों को वक़्त  किसी न किसी वक़्त  मिला ही देता  है। शायद इसी का नाम जीवन है - अजीब, अनकहे, अनसुने, अकल्पनीय संयोगों का समीकरण, जहाँ वह भी घटित होता है, जिसके होने की उम्मीद तक इंसान छोड़ चुका होता है।दिल में उठते तूफ़ान ने जमाने की रवायतों को समझा और अपनी भावनाओं को सीमाओं में बाँध लिया।
*           *                 *                *
          होटल दून कैसल – जहाँ सभी डेलीगेट्स के ठहरने की व्यवस्था थी, के अमलतास के पेड़ों से घिरे लॉन में बैठी सुरभि समय के आँचल में बिखरे क्षणों को समेटने की कोशिश कर रही थी।पास आकर सिद्धांत उसकी बगल में बैठ गऐ ।सुरभि ने बिना किसी भूमिका के उससे पूछा -    
" कैसे हो सिद्धू?"
- "तुम्हारे सामने हूँ ।"सिद्धांत ने उसी पुराने अंदाज़ में कहा।सुरभि ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा, फिर आँखें नीची कर ली।
- "तुम्हारी पत्नी और बच्चे कैसे हैं?"
- "मैंने शादी नहीं की।"सिद्धांत ने धीर-गंभीर आवाज़ में जवाब दिया, तो सुरभि ने प्रश्नवाचक निगाह उस पर डाली - "क्यों?"
-" मुझे तुम जैसी कोई मिली ही नहीं।"सिद्धांत ने बात घुमा दी।पर अव्यक्त व्यक्त हो गया।
- "इतने दिन तुम कहाँ रहे?"बरसों से मन में दबा प्रश्न सुरभि के होठों पर आखिर आ ही गया।
- "बस---।तुम्हारी शादी के बाद शहर छोड़कर दिल्ली आ गया।यूजीसी से फेलोशिप मिल गई, तो रिसर्च करने लगा।फिर एच.पी. शिमला युनिवसिॅटी ज्वाइन की।दस सालों से यहीं हूँ।यही मेरी दुनिया है।"एक साँस में कह गये सिद्धांत।
थोड़ी देर शांत रहे।फिर एक लंबी साँस ली, और हुऐ  सुरभि के चेहरे की ओर देखते हुऐ कहा -
"मैंने सोचा नहीं था कि हम कभी मिलेंगे।" सिद्धांत ने जैसे मन में उठे स्वाभाविक भाव व्यक्त कर दिऐ थे।
- "ह्म्म्म्म __।"सुरभि ने हामी भरी।
- "और - तुम्हारे पति-बच्चे कैसे हैं?"सिद्धांत ने सुरभि से वह प्रश्न पूछ लिया जिसका जवाब देने के लिऐ वह ख़ुद  को कभी तैयार नहीं कर पाई थी।
-"कोई नहीं है मेरे साथ---।अविनाश हमसे बहुत दूर चला गया है--शादी के एक वर्ष बाद - एक कार एक्सीडेंट में--।"सुरभि की डूबती आवाज उसने सुनी।उसके चेहरे पर छाई उदासी को तो उसने पहले ही पढ़ लिया था।वह स्तब्ध रह गया।लगा जैसे सीना चीर दिया हो किसी ने।तड़प उठा वह।उसने सुरभि की ओर देखा - उसकी आँखों में आँसुओं का सैलाब उमड़ आया था।उसके काँपते हाथ सुरभि के आँसू पोंछने को बढ़े, तो सुरभि ने उसका हाथ पकड़ लिया- उसकी पूरी हथेली भींग गई सुरभि की आँखों से बहते आँसुओं से।सहानुभूति और संवेदना से भरे एक आत्मीय स्पर्श ने हृदय में वर्षों से ज़मीं बर्फ़ को पिघला दिया था।
"पापा ने तुम्हें बहुत खोजा सिद्धू !- और वे भी मुझे छोड़ कर चले गये!"आँसुओं में डूबे सुरभि के शब्दों ने सिद्धांत को अंदर तक हिला दिया।
कभी-कभी ज़िंदगी भी कितनी बेरहम हो जाती है।बड़ी निर्दयता से इंसान से उसका सब कुछ छीन लेती है, और उसे जीने के लिऐ छोड़ देती है। भावनाओं का आवेग जब शांत हुआ, तो सुरभि आँसू पोंछते हुऐ उठी और पास के अमलतास से पीठ टिकाकर खड़ी हो गई ।वर्षों बाद उसके मन को आज शांति का अहसास हुआ था। 
-"तुम ख़ुश  रहने का मंत्र दे मुझसे अलग हुऐ थे न , सिद्धू? और नियति को मेरी ख़ुशी रास ही नहीं आई।"सुरभि की निराशा में डूबी आवाज उसे अंदर तक  बेध  गई।
वह उठकर उसके पास गया - "और तुमने अपना पूरा जीवन वियाबान रेगिस्तान की तरह जिया?"सिद्धांत का मन चीत्कार कर उठा था।
- "तो क्या करती मैं ?क्या करती मैं, सिद्धू??बताओ??" लगा जैसे सुरभि की आवाज दूर घाटियों से टकराकर उसके कानों में गूँज रही हो।उसका पूरा वजूद अब नियति से युद्ध करने को उतारू हो गया।
         सुरभि का हाथ अपने हाथ में लेकर सिद्धांत ने कहा - "बस सुरभि, बस!अब और नहीं।बहुत हो चुका अब।बहुत दुःख सहे हैं तुमने।अकेले लड़ती रही हो प्रारब्ध से।क्या इस निष्ठुर नियति से हम मिलकर मुकाबला नहीं कर सकते?तुमने हादसों को हमसफ़र बना जीवन बिताया है।क्या  हमसफर बन हम एक-दूसरे का दुःख-दर्द नहीं बाँट सकते?" सुरभि ने आँसू भरे नयन उठाकर सिद्धांत की आँखों में देखा और उनमें डूब गई।वह नवयौवना की भाँति मचल उठी, और आकर सिद्धांत में सिमट गई।
                 सूरज ढलने लगा था।मगर एक नई  ज़िंदगी  की  सुबह  हो  रही  थी।दूर टपकेश्वर शिव मंदिर से घंटियों की आवाज़ आ रही थी।बरसों के इंतेज़ार के बाद नेह की बारिश हो रही थी, और इंद्रधनुषी रंग जीवन में उतर आऐ थे।स्याह अँधेरे को चीरकर ख़ुशियों की चाँदनी उनपर बरस रही थी। आसमान  ने सुरभि  की  सूनी  माँग  में  सितारे भर दिऐ थे।तेज हवा  चलने  लगी  थी।अमलतास के पेड़  पुष्पवर्षा  कर  अपना  आशीर्वाद  उनपर न्यौछावर कर  रहे  थे।सारी क़ायनात उन पर अपनी रहमतें लुटा रही थी।बरसों  का  प्रेम अपनी मंज़िल पा चुका था।

 


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