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ज्ञान-स्वप्न

ज्ञान-स्वप्न

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मार्च का महिना...............| बेमौसम बरसात के कारण कपकपांती हुई ठण्ड में रात के करीब आठ बजे बस स्टॉप पर लाचार सा था मैं | जेब में पैसे होने के बावजूद पैदल ही घर की और बढ़ चला |

वो कपकपांती हवा और बारिश कुछ असर नहीं कर रही थी मेरे शरीर को, क्योंकि मन का अंतर्द्वंद तीव्र हो रहा था | शारीरिक वेदना पर मानसिक वेदना कही भारी पड़ रही थी | मैं सोच रहा था की किस कुकर्म की सज़ा मुझे मिल रही है ?

घर की ओर बढ़ते हुए मेरी नज़र एक चाय के दुकान पर पड़ी | वहां मैंने एक शाल ओढ़े हुए महिला को देखा | रात के 8-9 बजे किसी महिला का चाय के दुकान पर खड़ा रहना कुछ अनमना सा लगा | मैं अपने अंतर्द्वंद को दबाते हुए उस चाय की दुकान की ओर बढ़ा |

मेरे वहाँ पहुँचते ही वो औरत मुझसे पूछ पड़ी –“ बेटे ठीक तो हो |”

मैंने उत्तर नहीं दिया | यह सोचकर की इसे क्यों बताऊँ अपने कष्ट ? उत्तर न मिलने पर वो दोबारा पूछ बैठी –“बेटे! ठीक तो हो तुम?”

इस बार मैंने न चाहते हुए भी सिर को दायें बायें घुमाया और बोल पड़ा- “नहीं !”

औरत ने फिर कहा –“परेशान लगते हो ! क्या हुआ ?”

मैं बोला –“गलत की सज़ा मिली है मुझे!”

औरत बोली –“ हारो मत ! लड़ना सीखो वरना जो भी है वो भी खो दोगे मेरी तरह !”

अंतिम दो शब्द मुझे एक सांत्वना दे गए की शायद मुझे कोई मिला है जिससे मैं अपना दुःख बाँट सकूँ |

मैंने कहा – “ अब मेरे पास भी कुछ खोने के लिए नहीं है |”

वो औरत मुझसे अपने घर चलने को बोली और मैं उसके साथ चल पड़ा | उसके घर पे रात के दस बजे कुछ बच्चे खेल रहे थे, कुछ पढ़ रहे थे | पूछने पे पता चला की वो एक गैर-सरकारी संस्था (N.G.O) चलाती हैं |

कुछ देर बाद हम सबने खाना खाया और जब मैं वापस आ रहा था तो उस औरत ने मुझे एक किताब देकर कहा की –“पढ़ो इसे!”

बिस्तर पर पहुँच कर मैंने वो किताब पढना शुरू किया | वो एक संक्षिप्त टीका थी जिसमे बाइबिल के गूढ़ बातों का समावेश था | ज्यों-ज्यों मैं किताब पढता गया पिछले चार साल की तस्वीर सामने खिचती चली गयी |

मैं अचानक ही बोल पड़ा –“ हे ईश्वर ! ये मैंने क्यों किया ? तूने रोका क्यों नहीं मुझे ?”

मुझे अपनी गलती समझ आने लगी थी जिसका खोज मैं उस दिन सुबह से कर रहा था |

आधी रात को वो औरत मेरे पास आकर मुझसे पूछी- “बेटा! अब बता क्या किया तूने जो तुझे ये सब झेलना पड़ रहा है ?”

मैंने उत्तर दिया  – “सफलता की चाहत! साल 2010 में मैंने इंजीनियरिंग में एडमिशन लिया था| उतीर्ण होने के बाद 2014 में मैंने ऐसे कई गुनाह किये जिसकी सज़ा मुझे अदालत तो नहीं दे सकती है लेकिन मेरा मन आज मुझे दे रहा है |

मुझपे वो सात-पाप (seven sin) का प्रकोप था, जिसे मैंने बाइबिल में पढ़ा था ! ये सात पाप थे – लालसा (lust), खाऊपन (gluttony), लालच (greed), आलस्य (sloth), क्रोध (wrath), इर्ष्या (envy) और घमंड (pride) |

इन सब का थोड़ा-थोड़ा अंश तो था ही मुझमे साथ ही लालसा का पुट तो भरपूर था | मुझे पसंद की नौकरी नहीं मिली थी क्योकि मैं कम वेतन पे काम नहीं करना चाहता था | अतः मैं दिल्ली आ गया अपने घरवालो से झगड़ा कर के , दोस्त भी खो दिए मैंने |

आज मेरे पास न तो नौकरी है, न तो दोस्त और परिवार की दुआ | शायद मुझे उस समय मिली नौकरी को अपना लेना चाहिए |

आज पैसे तो कमा लेता हूँ लेकिन संतोष नहीं है, जिस वजह से मैं क्रोधी होता जा रहा हूँ, इर्ष्या घर कर रही है, लालच बढ़ रहा है !

आलसी तो मैं शुरू से हूँ लेकिन घमंड पता नहीं किस बात का है ?

कहते हैं…

बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोई

जो दिल खोजा आपना मुझ सा बुरा न कोई ! ”

आचानक मोबाइल में लगा आलार्म कूकने लगा और सवेरे- सवेरे उठ कर मैं मुस्कुरा रहा था .......खुश था मैं एक ज्ञानवर्धक स्वप्न के बाद ---

सच ही कहा है ---

“गोघन, गजधन, बाज़ीधन और रतनधन खान,

जब आवे संतोष धन सब धन धूली सामान !”

 

--------- स्वप्निल कुमार झा


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