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कविता सी कुछ ………………………..……

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ढूंढ रहा हूँ अपनी कविताओं को,
भाड़े के कमरे के कोने-कोने में,
जहाँ कमरे के बाहर खोले गए चप्पलों की संख्या के हिसाब से,
बढ़ जाता है किराया हर माह,
ढूंढ रहा हूँ अपनी कविताओं को,
चावल, दाल और आटे के खाली कनस्तरों में,
बेटी के दूध के बोतल में,
जिसमें तीन चौथाई पानी मिली है,
ढून्ढ़ रहा हूँ अपनी कविताओं को,
पत्नी के बेबस आँखों में,
माँ के कराहों में,

"साहब" के गुर्रहटों में,
परिजनों के रहमहिन उद्गारों में,
ढून्ढ़ रहा हूँ अपनी कविताओं को,
कुछ भूले-बिसरे दोस्तों के साथ गुजारी उन खुबसूरत पलों में,
जो गलती से भी मय्सर नहीं होती अब एक पल के लिए भी,
अभी -अभी तो दिखी थी कविताएँ,
जब सोच रहा था उसकी बातें,
जो कभी मेरी हर ख़ुशी की वजह हुआ करती थी,
उसकी निश्छल मुस्कुराहटों में,
गुम हो जाते थे हर गम और दुःख की छाया भी,
पर बदले हलात में बदली उसकी मुस्कुराहटों में,
गुम हो गई मेरी कविताएँ फिर से,
ढूढ़ रहा हूँ अपनी कविताएँ।

 

 


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