मंथरा
मंथरा
"तीन महीने से तुम्हारा देवर एक्सीडेंट कर के बैठा है। ना जाने फिर से कब काम मिलेगा उसको। इतनी महंगाई में भी तुम कैसे उसका और उसके परिवार का बोझ ढो रही हो गायत्री ? तुम्हारे खुद के भी बच्चे हैं।"
पड़ोस की ताई की मेरी भाभी से इस तरह की ना जाने कितनी बातों का बोझ लिए आज मैं काम के लिए निकला। पर खाली हाथ और भारी मन लिए लौट कर अभी दरवाजे पर ही था कि फिर से ताई और भाभी की बात सुन दरवाजे पर ही ठिठक गया..
"तुम्हारे देवर-देवरानी नज़र नहीं आ रहे हैं ?
"देवर जी इंटरव्यू देने गए हैं और देवरानी सब्जी के लिए बाहर गयी है।"
"मैं फिर से कह रही हूँ गायत्री ! कोई काम नहीं देता आज के जमाने में। तेरा पति इतना पैसा अपनी मेहनत से कमाता है।अपने परिवार और बच्चों पर ध्यान दो सिर्फ। उनका बोझ लेकर मत चलो।"
"ताई अपने कभी बोझ नहीं होते।"
"तेरा दिमाग बिलकुल बंद हो चुका है गायत्री।"
इतने में मेरी बेटी भाभी की गोद में आकर बैठ गयी। भाभी ने उसे प्यार से एक निवाला खिलाया और..
"ताई !आप मेरे ही गाँव से हैं इसलिए मैं आपकी बहुत इज्जत करती हूँ। मगर इस तरह की ही बातें करनी है आपको तो जाते वक्त इस घर का दरवाजा अपने लिए बंद कर के जाइएगा।"
ताई तेजी से बिना मुझे देखे ही निकल गयी मगर मैं देख रहा था..
कि जब तक मन कैकेयी ना हो तो कोई मंथरा हृदय परिवर्तन नहीं कर सकती..