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भटकती नदी

भटकती नदी

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ऊँची-ऊँची चहारदीवारियों से बाहर निकलकर जब उसने खुली हवा में साँस ली तो जीवन को जैसे प्राणवायु मिल गयी और उसका रोम-रोम खुशी और उत्साह से अनुप्राणित हो गया।

गेट के बाहर दु:ख-सुख के साथी, उसके स्कूली दिनों के दोस्त बाहें फैलाए खड़े थे। सबकी आँखों में आँसू थे और था दर्द का सैलाब। उसने आस-पास नजर दौड़ाई और बेचैन होकर दोस्तों से पूछा- " यार, नीलम नहीं आई ?और मेरे बच्चे ?"

"भाभी से फोन पर बात हुई थी। वे नहीं आ रही हैं, और, उन्होंने तुम्हें भी घर आने से मना किया है।" एक दोस्त अपनी भावनाओं पर काबू रखने की कोशिश करते हुए एक ही साँस में कह गया। सच्चाई से अवगत करा देना जरूरी लगा उसने।

सुनते ही उसका चेहरा सफेद पड़ गया। वह सिर पर हाथ धरे जहाँ खड़ा था, वहीं जड़वत् खड़ा रह गया। लगा जैसे किसी ने भारी हथौड़ा उसके सिर पर मारा हो और वह धराशायी हो गया हो। ये कौन-सी और कैसी सजा थी, रिहाई के बाद भी ? न्याय की अदालत ने तो उसे बाइज्जत बरी कर दिया था, मगर प्यार, विश्वास और रिश्तों की अदालत में शायद वह अब भी गुनहगार था। शायद सजायाफ्ता पति को घर लाकर नीलम समाज सेविका की अपनी स्थापित छवि और प्रतिष्ठा को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहती थी, इसीलिए...। 

या फिर, कहीं इस अंतराल में उसके प्रेम ने कोई और ठिकाना तलाश लिया हो ! शायद इसीलिए, जेल में वो कभी उससे मिलने नहीं आई और, आज उसने उसके लिए, घर के दरवाजे भी हमेशा के लिए बंद कर लिए थे ! मगर क्या हृदय और मन के बंधन इतने भी कमजोर होते हैं कि एक ही झटके में टूट जाये ? इतनी स्वार्थी वो कैसे हो सकती है ? उथल-पुथल ने उसके वज़ूद को, मन-मष्तिष्क को बुरी तरह मथ रखा था। लगा जैसे सारी ज्ञानेन्द्रियाँ एकदम-से सुन्न पड़ती जा रही हो। अतीत की स्मृतियाँ तेजी से फिल्म की रील की तरह घूमीं और उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। निराश, हताश, बदहवास, वह अचानक फफक-फफक कर रोने लगा और सिर पकड़कर वहीं जमीन पर बैठ गया। भावनाओं का सैलाब, जैसे सब कुछ बहा ले जाने को उतारू था....।

जब महेश ने उसके कंधे पर हाथ रखा और बांँह पकड़कर उठाया, तो उसने रूँधे गले से, निरीह स्वर में पूछा- "अब मैं कहाँ जाऊँगा, महेश ? मेरा तो कोई घर ही नहीं है। " 

"तुम मेरे घर चलोगे।" महेश ने डबडबाई आँखों से उसकी आँखों मेंं देखा और अपनी बाहों में समेटकर उसे सीने में भींच लिया।

कुछ ही देर में वह महेश के साथ ऑटोरिक्शा में था। उसके घर जा रहा था मगर उसके तो सभी रास्ते बंद हो चुके थे। उसने तो एक ईमानदार कोशिश की थी भ्रष्ट तंत्र को सुधारने की मगर, भ्रष्टाचार के मगरमच्छों ने मिलकर उसका ही शिकार कर लिया था ! कुछ भी तो हासिल नहीं हुआ उसे ? न आदर्श रहे, न प्रतिष्ठा रही। न पत्नी, न बच्चे , न घर , न ही नौकरी ? उल्टे, उसकी सामाजिक पहचान तक धूल-धूसरित हो गयी। जेल की अँधेरी-बंद कोठरी, दीवारों से टकराती बेबस सिसकियाँ, शर्मिंदगी भरी ज़िंदगी, तिरस्कार, ज़लालत, बदनामी और " घूसखोर " का बदनुमा दाग लिए वह बाहर निकला था। घोर अंतर्दंद्व में डूबते-उतराते, वह ऑटो की रफ्तार से अपनी ज़िंदगी की रफ्तार मिलाने की कोशिश कर रहा था। अपना जीवन अब उसे व्यर्थ और निरूद्देश्य लगने लगा था, और वह धीरे-धीरे उदासी के गहरे गर्त्त में समाता चला जा रहा था।

घर पहुँँचकर महेश ने पत्नी और बच्चों को आवाज दी - "सुषमा....विक्की....पिंकी...! देखो, पवन अंकल आए हैं।"

आवाज सुनकर तौलिये से हाथ पोंछते हुए सुषमा किचेन से बाहर आई, और अस्त-व्यस्त कपड़ों में, बेतरतीब बाल और दाढ़ी बढ़ाए पवन को देेखा, तो उसकी पलकें भीग गयीं। विक्की और पिंकी तो "अंकल.... अंकल " कहते हुए आकर उससे बुरी तरह लिपट ही गये थे।

 पवन की आंखों से अश्रुधार बह चली थी। बच्चों को गले लगाते ही जैसे मन का सारा दु:ख-दर्द, कष्ट मिट गया और सारी मलीनता आँसुओं के रास्ते बाहर निकलने का रास्ता तलाशने लगी.... !  बचपन के दोस्त महेश, भाभी और बच्चों के निर्मल, निष्कपट, निश्छल, जीवंत प्रेम और अपनत्व ने मानो एक भटकती नदी को रास्ता दिखा दिया था।


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