इंतज़ार
इंतज़ार
हम एक नई प्रकाशित हुई फिल्म देखकर घर लौट रहे थे,
मैंने माँ से कहाँ, "माँ ! कल पाठशाला जाकर मैं अपने दोस्तों को फिल्म के बारे में अवश्य बताऊँगी।"
माँ ने मुझे उत्तर देते हुए कहाँ,"हाँ ! हाँ ! गरमियों की छुट्टीयों में तुम ही जाना पाठशाला !"
यह कहकर जैसे माँ ने मेरे मुख पर ताला ही लगा दिया। मैं भूल गई थी, कि छुट्टियाँ शुरु है और....अब दोस्तों से मिलने का अवसर, कई दिनों तक मिलने से रहा। छुट्टियों में मज़ा तो आ रहा था; लेकिन पाठशाला की भी उतनी ही याद आ रही थी।
अब तो बस, इंतज़ार था कि कब पाठशाला शुरु हो, कब दोस्तों एवं शिक्षिकाओं से मिले और कहने में थोड़ा अजीब लग रहा है; लेकिन हाँ, इंतज़ार तो इसका भी था, कि कब हम पुस्तकें हाथ में थाम ले और पढ़ाई शुरु हो जाए। इसी इंतज़ार में, संपूर्ण गरमी की छुट्टियाँ बीत गई, आखिरकार, पाठशाला फिर शुरु हो गई, और पढ़ाई भी।
हम अपने मित्रों से भेंट कर, बहुत खुश थे और हमारी शिक्षिकाओं के मुस्कुराते हुए मुखों को देखकर भी; लेकिन हम यह भूल गए थे कि प्रत्येक गरमी की छुट्टियों के पश्चात जब पाठशाला शुरु होती है तो पढ़ाई, बढ़ ही जाती है। इस बढ़ती पढ़ाई से, हम अनुकूल हो तो रहे थे; परंतु इसके बढ़ने से, हम बहुत थक जाते थे, और अब इंतज़ार तो था; लेकिन छुट्टियों ! का कि कब शनिवार एवं रविवार आए, या कोई लंबी छुट्टी मिल जाए और हम मौज करे।
इंतज़ार करने का यह सिलसिला तो, चलता ही रहा, कभी छुट्टियों में पाठशाला शुरु होने का इंतज़ार, तो कभी पढ़ाई से थक जाने पर छुट्टियाँ मिलने का इंतज़ार।
इतने वर्ष इंतज़ार करते रहे, अब अफ़सोस है, काश ! थोड़ा कम इंतज़ार करते, थोड़े और मज़े कर लेते, हर लम्हे को, और अच्छे से जी लेते लेकिन फिर भी, कभी इंतज़ार करना नहीं छोड़ते !