परीक्षा
परीक्षा
आज मेरी दो परीक्षाएं एक साथ हो रही थीं, एक नौकरी की और दूसरी जिंदगी की। मैंने उसे उसके बाएं पैर की पाज़ेब से पहचाना, लगा शायद वही है; सामने से देखने की हिम्मत न थी पर कोशिश की। अरे ! ये तो वही है, वही मेरी धड़कनें जो अब तक केवल चल रही थीं, अब दौड़ने लगीं; मन जो चुपचाप था, अब नाचने लगा।
उससे बात करने के बजाए मैं अपने दोस्तों को फ़ोन कर ये खुशखबरी देने लगा। भगवान का लाख-लाख शुक्र करने के बाद मैं जैसे-तैसे उसके पास पहुंचा।
काँपते स्वर में उससे कुछ बात की और फिर चुप। वो एग्जाम हॉल में जा रही थी और मैं उसके पीछे।
एग्जाम ख़त्म हुआ, तीन घंटे के लंच में उससे खूब बातें करूँगा, उसे अपने मन की बात बताऊंगा। ये सोचकर मैं बाहर निकला। वो मुस्कुराती हुई सामने खड़ी थी। एग्जाम का तो पता नहीं पर मेरा दिन आज जरूर अच्छा हो गया था। मैंने बहुत कोशिश की कि वो कुछ खा ले परंतु असफल हुआ लेकिन हाँ वो सफल हुई और अब मैं उसके हाथ का दिया अमरुद बड़े चाव से खा रहा था।
करता भी क्या, पहले तो इनकार किया लेकिन उसके दुबारा कहने पर न न कर सका। वो अब मेरी किताब से पढ़ रही थी लेकिन मुझसे दूर। मैं चाहकर भी उसके पास न जा सका। तीन घंटे उसके साथ रहने के जो सपने संजोये थे वो चकनाचूर हो रहे थे। दिल कई बार कहता कि अभी नहीं तो कभी नहीं, पर क़दमों ने साथ न दिया, देते भी कैसे जब दहलीज की चौखटें पहले से बंद हैं तो कदम क्या करें ? सिवाय उसे देखते रहने के मैं कुछ न कर सका। करता भी क्या, आखिर यही तो मैं पिछले एक साल से कर रहा थ लेकिन मन तो मन है, जो अब तक न कर पाया था उसे भूलकर आगे की सोचने लगा। अगले पांच घंटे का सफर अगर उसके साथ हो जाये तो क्या बात हो, फिर उम्मीद जगी।
बुझती आँखें चमकने लगीं, मन हर्षित हुआ, कदम आगे बढ़े लेकिन दिल वहीं का वहीं। क्या कहूंगा उससे, कैसे कहूंगा, वो साथ चलेगी या नहीं, इन सबसे हटकर वो मुझसे आगे भी बात करती रहेगी या नहीं ?
मैं जानता था कि इन सब प्रश्नों का जवाब 'न' में था लेकिन फिर वही, मन तो मन है आखिर सपने देखना कैसे छोड़ दे ?