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काफल वाली

काफल वाली

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मेरी नणदा सुशीले नणदा

मिठि बेरी खयोंले य।

अचानक ही इस गीत के बोल सुनते ही एकाएक उसके मुँह से निकला, रुक्मा...!

हाथ में काफल के पेड़ की टहनियों से तोडे गए ताजे व काले-काले काफल

अचानक ही नीचे गिर गए। वह कुछ पल उस आवाज की दिशा को नापता रहा,

और फिर वह काफल के पेड़ से उतर कर तेजी से उस दिशा की ओर चल पड़ा।

जहाँ से गीत गाने की आवाज आ रही थी।

वह जल्दी से जल्दी रुक्मा के पास पहुँच जाना चाहता था। रुक्मा उसका

अतीत...उसकी यादें इस लंगोरा के जंगल में आते ही उसे बेचैन कर देती हैं।

रुक्मा से मिले उसे बरसों बीत गए। कैसी होगी रुक्मा…कैसी दिखती होगी

वह…? हर साल वह मई-जून के महीनों में दिल्ली से अपने गाँव आता और

लंगोरा के डांडा में काफल तोड़ते हुए दिन गुजारता ताकि उसकी खोई हुई रुक्मा

उसे मिल सके…लेकिन उसे रुक्मा कभी नहीं मिली।

जैसे-जैसे गीत के स्वर मंद पड़ते गए। उसके हृदय की धड़कने तेज होती

गई। उसे लगा अगर गीत के समाप्त होने से पहले वह उस स्थान पर नहीं

पहुँचा तो रुक्मा उसकी नजरों के सामने से गायब हो जाएगी, और वह रुक्मा से

फिर कभी नहीं मिल सकेगा।

जंगली पेड़-पौंधों व कटीली झाड़ियों से उलझते हुए, उनसे लड़ते-भिड़ते व

हांफते हुए जब वह वहाँ पहुँचा तो रुक्मा को न पाकर उसे एक गहरा सदमा

लगा। गीत गाने वाली वह रुक्मा नहीं बल्कि आठ-नौ साल की एक नन्हीं

लड़की थी। वह अपने गाँव की लड़कियों के साथ काफल के पेड़ से काफल तोड़ते

हुए गीत गा रही थी।

काफल के पेड़ पर रुक्मा को न पाकर वह उदास व बेचैन हो उठा। सालों

बाद रुक्मा से मिलने की जिस खुशी से पलभर पहले उसकी आँखें चमक उठी

थी। अचानक रात के अंधेरे में किसी रेगिस्तान की सी बीरानी उसके चेहरे पर

दौड़ने लगी। अब वे गहरे सन्नाटे में खोई हुई लगी।

अपने चेहरे पर आए पसीने को पोंछते हुए वह कुछ पल उन लड़कियों को

देखता रहा। और फिर वह रुक्मा की याद में खो गया था।

बरसों पहले रुक्मा उसे यहीं इसी जंगल में मिली थी। काफल तोड़ने की

लालसा में वह जंगल के भीतर दूर तक चली गई और अपने गाँव की लड़कियों

से बिछुड़ गई। भय और निराशा से उपजी उसकी चीख-पुकार लगातार जंगल से

आ रही थी। उसे सुनकर वह समझ गया था कि कोई लड़की अपने साथियों से

बिछुड़ गई है। उसे जंगल से बाहर आने का रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है। घना

जंगल व अकेली होने के कारण उसके साथ कुछ भी हो सकता है। उसने सोचा

कि उस लड़की के साथ कोई अनहोनी घटना घटे या कोई जानबर उस पर

हमला करे…इससे पहले ही उसे उस लड़की के पास पहुँच जाना चाहिए।

सोचते हुए वह तेजी से उस दिशा की ओर दौड़ पड़ा। जिधर से उस लड़की

का करूण-क्रंदन सुनाई दे रहा था। जंगल के पेड़, पौधों तथा कटीली झाड़ियों ने

अपने नाखूनों से उसके मुँह को चीरते हुए उसका रास्ता रोकने की बहुत कोशिश

की। लेकिन वह इसकी परवाह किए बिना तेजी से जब रुक्मा के पास पहुँचा तो

वह बुरी तरह से हाँफ रहा था। उसका चेहरा पसीने से भीगा हुआ तथा लाल हो

रखा था। कटीली झाड़ियों के नुकीले नाखूनों ने उसके चेहरे पर लम्बी-लम्बी

टेढ़ी-मेढ़ी खरोंचे खींच कर रख दी थी। उन खरोंचों से अब खून रिसने लगा था।

बदन पर पहनी कमीज पर भी कई घाव दिखाई देने लगे थे।

अचानक उसे अपने सामने देखकर रुक्मा उसके सीने से लिपट गई। डर

के मारे उसका गोरा चेहरा काला पड़ चुका था। गालों पर मोटे-मोटे आँसू ढुलक

रहे थे। उसकी साँसे इस कदर तेज चल रही थी जैसे वह किसी जंगली जानबर

से अपने को बचाते हुए मीलों दूर से दौड़ती आ रही हो। उसकी हिचकियाँ और

तेज हो गई थी। उसका सारा शरीर ऐसे काँप रहा था मानो वह रात के अंधेरे में

किसी बर्फीले पहाड़ की ठंड में ठिठुर रही हो!

वह बड़ी देर तक रुक्मा को अपने सीने से लगाए रहा। जब उसका रोना

कुछ कम हुआ तो उसने अपने हाथों से उसके आँसूं पोंछते हुए कहा, ”तुम्हारे

साथ कोई नहीं है?”

“हमारे गाँव के लड़के व लड़कियाँ तो थी। लेकिन वे मुझे कहीं भी दिखाई

नहीं दे रही हैं। मुझे बहुत डर लग रहा है।” वह उसके सीने से लगकर फिर रोने

“चलो मैं तुम्हें रास्ते तक छोड़ देता हूँ।” कहकर वह रुक्मा का हाथ पकड़कर

जंगल को पार करता हुआ जब गाँव के रास्ते पर पहुँचा तो रुक्मा के होंठों पर

मुस्कान तैर गई थी। आस-पास के गाँवों की गाय-बछियों का रम्भाना सुनकर

उसने आकाश की ओर ताकते हुए अपने दोनों हाथ जोड़ लिए।

“क्या नाम है तुम्हारा…?” सड़क के किनारे बांज के पेड़ की छाँव तले बैठते

“रुक्मा...रुक्मणी...।”

“तुम बहुत अच्छी हो।”

वह चुप रही। उसकी नजरें झुक गई थी।

“रोते हुए भी तुम बहुत सुन्दर लगती हो। काफल की तरह सुन्दर। लेकिन

रोते हुए जब तुम्हारें गालों पर आँसू बहते हैं तो पता…कैसे लगते है?”

“कैसे लगते हैं…मुझे क्या पता...?”

“जैसे आकाश से चन्दा के आँसू टपक रहे हों।”

“चन्दा भी रोता है क्या…?”

“हाँ...। वह भी तुम्हारी ही तरह रोता है। सुबह-घास की पत्तियों में, पेड़ों की

पत्तियों में...जो मोती जैसी सफेद बूँदें दिखाई देती हैं न...वही तो चन्दा के आँसूं

होते हैं। चन्दा भी तुम्हारी तरह बहुत सुन्दर है। अच्छा ये बताओ कि तुमने

अपने हाथ किसके लिए जोड़े?”

“तेरे लिए। तूने मुझे बचाया है न...।”

“अरे...! तेरे काफल कहाँ हैं?”

“हाय राम...। मेरा झोला तो वहीं रह गया है। अब मैं क्या करूँ?”

“ये ले, तू मेरा काफलों से भरा झोला ले जा।” कहते हुए उसने रुक्मा को

अपना झोला पकड़ा दिया।

“तू क्या ले जाएगा…?” रूक्मा ने उसके हाथों से काफलों से भरा झोला लेते

“मैं अपनी जेबें भर कर ले जाऊँगा।”

तभी रूक्मा को अपने गाँव के लड़के व लड़कियाँ वापस आते हुए दिखाई

दिए। वे सभी उसी की खोज में वापस लौट आए थे।

“वो देख...मेरे गाँव के लड़के-लड़कियां मुझे खोजने वापस आ रहे हैं।”

उसने मुड़कर उस तरफ देखा। जिधर से रुक्मा को ढंढने उसके गाँव के

लड़के व लड़कियां आ रही थी। उसने जल्दी-जल्दी अपने झोले में से काफल

निकाल कर अपनी जेबें भरते हुए कहा, “अब तू कब मिलेगी?”

“परसों...! इसी जंगल में...। हम एक दिन छोड़कर काफल लेने आते हैं।”

“इतने बड़े जंगल में मुझे कैसे पता चलेगा कि तू कहाँ है?”

“आएगा तो तुझे सब पता चल जाएगा।” कहकर रुक्मा ने एक बार इधर-

उधर देखा और फिर उसने जल्दी से उसके दाएँ गाल का चुम्बन ले लिया था।

उसके मुलायम व पतले होंठों के सपर्श से उसके शरीर में सनसनी सी फेल गई

“क्यों…? लगा न झटका...। अब बता तेरा नाम क्या है?”

“म...म...महेश...।” उसने अपने दाएँ गाल पर हाथ फेरते हुए अचकचाते हुए

“तू हकला क्यों रहा है, और अपने गाल क्यों पोंछ रहा है, चख कर देख

न…? गुड़ की तरह बहुत मीठा है! भुक्की (चुम्बन) है। कोई थप्पड़ नहीं मारा है।

साला...लड़का होकर डरता है।”

अपनी आँखें मटकाते हुए वह तेजी से उस दिशा की ओर चल पड़ी थी।

जिधर से उसके साथी उसकी खोज में आ रहे थे।

उसके चले जाने के बाद वह बड़ी देर तक अपना गाल सहलाता रहा और

फिर वह बार-बार अपने दाएँ हाथ की हथेली को चूमते हुए अपने घर के लिए

उस रात न तो उसकी आँखों में नींद थी और न ही रुक्मा की आखों

में…। दोनों रात के अंधेरे में अपने-अपने घरों में एक-दूसरे की याद में खोये हुए

तारे गिनने की कोशिश कर रहे थे। रुक्मा ने तो सच में कई बार तारे गिनने

की कोशिश की। एक...दो...तीन...। लेकिन जैसे ही उसकी पलकें झपकती तो वह

भूल जाती कि उसने किस तारे से गिनती सुरू की थी।

लेकिन तीसरे दिन महेश अपने गाँव के लड़कों व लड़कियों के साथ लंगोरा

डांडा काफल तोड़ने गया तो वह बहुत खुश था। लेकिन लंगोरा डांडा में रुक्मा

को न पाकर वह उदास हो गया। कहीं किसी भी तरह की थोड़ी सी भी

सरसराहट होती तो वह काफल के पेड़ की टहनियों को इधर-उधर हटाते हुए

देखने लगता कि कहीं रुक्मा तो नहीं आई। तभी गीत के बोल सुनकर वह चैंक

मेरी नणदा सुशीले नणदा

मिठि बेरी खयोंले य।

गीत के बोल सुनते ही उसका चेहरा प्यूँली के फूल की तरह खिल उठा।

अभी कुछ देर पहले जो चेहरा गमगीन व उदास दिखाई दे रहा था। लेकन अब

वह सुर्ख दिखाई देने लगा था।

“अरे यार कितनी सुरीली आवाज है?” उसके एक साथी ने कहा।

“लगता है जैसे कि लता मंगेशकर गा रही हो।” दूसरे साथी ने काफल के पेड़

की टहनी से काफल तोड़कर अपने थैले में डालते हुए कहा।

“यार...इसे तो मुम्बई फिल्मों में होना चाहिए था। क्या गाती है यार…जब

आवाज ही इतनी सुन्दर होगी तो वह कितनी सुन्दर होगी?” तीसरे लड़के ने

काले-काले काफल तोड़कर अपने मुँह में डालते हुए कहा।

“यार कौन होगी ये...किस गाँव की होगी…क्या नाम होगा इसका? जितनी

सुन्दर आवाज है इसकी…उतना ही सुन्दर नाम होगा इसका।”

“तुझे क्या लेना है कि वह कौन है, किस गाँव की है, होगी कोई काफल

वाली! मैं जाकर देखता हूँ।” कहते हुए वह पेड़ से उतर कर आवाज वाली दिशा

की ओर जाने लगा तो उसके दूसरे साथी ने मजाकिए अंदाज में कहा, “अबे वो

सिन्धु घाटी के ताम्र पत्र, मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खोज, सिर मजबूत है न

तेरा।…वो आशिक…सम्भल कर जाना। अगर कहीं रास्ते में तुझे भालू या सुअर

मिल गया न...तो तू सिर में पैर रखकर भागता हुआ नजर आएगा। अबे वो

छूछंदर...! यार ये दिल्ली वाले भी न...पता नहीं...अपने-आप को क्या समझने

लगते हैं? जब ये गाँव में होते हैं तो बड़े शरीफ होते हैं। लेकिन दिल्ली जाने के

बाद तो इनकी आवोहवा ही बदल जाती है। कोई गाँव में आकर लड़कियों के

चक्कर काटने लगता है, कोई बाजार में अपनी कमीज के कालर खड़े करके

दादागीरी दिखाने लगता है, और कोई रंग-बिरंगा कुर्ता-पजामा पहने नेता की

तरह भाषण देने लगता है।”

“अरे यार…बात तो तेरी सौ आने सही है। सड़क छाप मंजनू तो सुना था।

लेकिन आज जंगल छाप मंजनू भी देख लिया है।”

लेकिन वह उनकी बातों की परवाह किए बिना चुपचाप उस पेड़ की ओर

चल पड़ा था। जिस पेड़ पर चढ़कर रुक्मा गीत गाते हुए काफल तोड़ रही थी।

उसे देखते ही रुक्मा के चेहरे पर मुस्कान तैर गई। रुक्मा को अकेले

देखकर वह भी पेड़ पर चढ़ गया। काफल तोड़ते हुए वे दोनों बड़ी देर तक बातें

करते रहे। लेकिन जब उसके गाँव की लड़कियों ने उसे आवाज दी तो वह उसके

गालों को नोचते हुए उनके पास चली गई।

इस तरह से दोनों का मिलना आपसी प्यार में बदल गया। घने जंगल के

बीच पेड़ों की छाँव तले एक-दूसरे को अपनी बाहों में समेटे दो शरीर एक हो गए

थे, और यह प्रेम-मिलाप तब तक चलता रहा जब तक जंगल के काफल समाप्त

काफल समाप्त हुए, मौसम बदला, जीवन प्रस्थितियां बदली और महेश

दिल्ली चला आया। तब से कई साल बीत गए। वह हमेशा जून में गाँव आकर

लंगोरा डांडा जाता। लेकिन उसे रुक्मा फिर कभी नहीं मिली।

पेड़ के तने से अपनी पीठ सटाए वह बीती यादों में खोया हुआ

था...कितना अच्छा गाती है वह लड़की। रुक्मा भी तो कभी ऐसे ही गाती थी।

लेकिन अब रुक्मा कैसी होगी...किस हाल में होगी...उसे याद करती होगी या

नहीं... कौन बताए...?

तभी पत्तों की चर्रड़...चर्रड़ की आवाज सुनकर उसने इधर-उधर अपनी

नजरें दौड़ाई। सामने काफलों से भरा थैला लेकर आती एक औरत को देखकर

वह चौंक पड़ा। उसकी शक्ल रुक्मा जैसी लग रही थी। उसे लगा उस औरत में,

इस जंगल में, व काफलों में जन्म-जन्म का नाता है। जैसे ही वह औरत उसके

पास आई, अचानक ही उसके मुँह से निकला, रुक्मा...!

उसने रुक्मा के चेहरे पर अपनी नजरें गड़ा दी थी। पहले की अपेक्षा उसके

चेहरे पर वह तेज, वह रौनक, और वह ताजगी नहीं थी जो कभी उस वक्त हुआ

करती थी, जब वह अपना मुँह खोले रहता और रुक्मा निशाना साधकर

एक...दो...तीन...गिनती गिनते हुए उसके मुँह में काफल फेंकती रहती। कभी-

कभी तो काफल का कोई दाना महेश के दाँतों से टकराते हुए नीचे गिर जाता

और कभी-कभी रुक्मा जानबूझकर निशाना उसके माथे से साधकर काफल फेंक

देती। जैसे ही काफल उसके माथे से टकराता रुक्मा जोर-जोर से हँसने लगती।

उसे हँसते हुए देख महेश मचल उठता था। वह रुक्मा को अपनी बाहों में

लेते हुए उसके चेहरे पर कई चुम्बन जड़ देता। उस वक्त रुक्मा का चेहरा बुराँस

के फूल की तरह खिला-खिला व ओंस की बूँदों की तरह नहाया हुआ लगता था।

दिन के समय तेज गरमी में भी उसका चेहरा गुलाबी रंग से सज उठता। उस

वक्त उसके चेहरे पर उभर आई पसीने की बूँदों को देखकर ऐसा लगता जैसे कि

आकाश से औंस की बूँदें टपकती हुई उसके चेहरे को भिगो रही हो।

लेकिन आज उसके चेहरे पर कोई हँसी नहीं थी। वह सूखा-सूखा व कठोर

लग रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे कि वह असंख्य दुःखों को झेल कर पत्थर

का बन गया हो। फूलों ने जैसे उसे देखकर खिलना ही बंद कर दिया है। ओंस

की बूँदें उसके चेहरे से रूठ गई हैं। उसके चेहरे पर काली छायाएँ अपना तम्बू

गाड़ चुकी हैं। आँखें धूप को सहन न करते हुए छाँव की तलाश में धीरे-धीरे

अन्दर धँसती जा रही थी।

वे दोनों बड़ी देर तक टकटकी लगाए एक-दूसरे के चेहरे को देखते रहे।

बातों का सिलसिला सुरु करने के लिए उसने कहा, “कैसी हो तुम…?”

“ठीक हूँ। और तुम...?”

“तुम्हारी ही तरह तो हूँ।”

कुछ पल के लिए दोनों के बीच सन्नाटा पसर गया। दोनों की आँखें एक-

दूसरे से सवाल-जवाब करने लगी।

“कभी मेरी याद नहीं आई…?” कहते हुए उसका चेहरा उदास व गमगीन हो

“तुम मुझे हमेशा याद आती हो।”

“अगर तम्हें मेरी याद आती तो मेरी खोज करते हुए मुझे जरूर मिलते।

लेकिन तुमने तो मुझे मिलना उचित ही नहीं समझा।” एकाएक उसकी आँखों में

गीलापन तैर आया था।

“हर साल मैं तुम्हें मिलने गाँव आता रहा। लेकिन तुम ही नहीं मिली। अगर

मिल जाती तो मैं तुझे अपने साथ ले जाकर अपना घर बसा लेता। बहुत

कमजोर हो गई हो तुम...?”

“जिस औरत के पति के बारे में लोग सुबह-शाम, सोते-जागते, उठते-बैठते

पल-पल पूछेंगे तो वह औरत कमजोर नहीं होगी तो क्या मोटी होगी? जब कोई

लड़की आए दिन अपनी माँ से अपने उस पिता के बारे में पूछती है जिसके बारे

में उसे कुछ पता नहीं कि वह कहाँ है, क्या कर रहा है, जिन्दा है भी या नहीं है,

तो उस वक्त उसकी माँ के दिल पर क्या गुजरती होगी यह तुम क्या जानो?”

“बरसों बीत गए। मैंने तुम्हारे हाथों के काफल नहीं खाए हैं। आज मैं तुम्हारें

हाथों से काफल खाना चाहता हूँ। तुम्हारे हाथों के काफल बहुत ही स्वादिष्ट व

मीठे हो जाते हैं। क्या तुम आज मुझे काफल नहीं खिलाओगी...पहले की ही

तरह…गिनती गिनते हुए…?” उसकी नजरें रुक्मा के हाथों में काफलों से भरे

थैले पर अटक गई थी।

रुक्मा ने एक बार उसके चेहरे को देखा और फिर थैले में से काफल

निकाल कर पहले की ही तरह उसे काफल खिलाने लगी थी...गिनती गिनते

हुए...एक...दो...तीन...! काफल खिलाते हुए अचानक ही एक काफल महेश के

माथे से टकराया तो वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। आज एक बार फिर वही

हँसी...! बरसों पहले, वह इसी तरह से हँसती थी...ही...ही...ही...!

तभी एक तितली उड़कर आई और उसके होंठों पर अपने पंख इठलाती हुई

“तुम आज भी वैसा ही हँसती हो, जैसे बरसों पहले हँसती थी। बहुत दिन हो

गए रुक्मा...तुम्हारे मुँह से उस गीत को सुने हुए...! बहुत अच्छा गाती थी तुम।

मैं तुम्हारी खूबसूरत आवाज में उस गीत को फिर सुनना चाहता हूँ। पहले की

ही तरह...सुनाओ न...! मैं देखना चाहता हूँ कि तुम्हारी आवाज पहले की तरह

आज भी सुरीली है या नहीं?”

महेश के प्रेमपूर्ण आग्रह पर रुक्मा के चेहरे पर उदासी की पर्तें रेंगने़ लगी

थी। बड़ी देर तक खामोश रहने के बाद उसने गाना चाहा, लेकिन वह गा न

सकी। उसने गाने की बहुत कोशिश की...लेकिन जब गीत के बोल उसके गले से

बाहर नहीं निकले तो उसे लगा जैसे वह उस गीत को हमेशा-हमेशा के लिए भूल

गई है। तभी दूर से आने वाली एक खूबसूरत आवाज उसके कानों से टकराई।

गीत के बोल सुनते ही वह चैंक पड़ा। हाथ में पकड़े हुए काफल हाथ में ही रह

गए थे। यह वही गीत था जिसे रुक्मा बरसों पहले उसे अपने पास बुलाने के

लिए गाया करती थी।

वह बड़ी देर तक उस गीत को सुनता रहा। और फिर गीत के बोल समाप्त

होते ही उसकी नजरें रुक्मा के चेहरे पर टिक गई। रुक्मा सामने है... फिर वह

गीत कौन गा रहा है। सोचते हुए उसके चेहरे पर उदासी भरी सलवटें तैरने लगी

थी। हृदय की धड़कनों ने एकाएक दौड़ना सुरू कर दिया था। उसकी आँखों में

बरसों पहले का वह दृश्य तैरने लगा। जब वह रुक्मा की गोद में अपना सिर

टिकाए रखता और रुक्मा गीत गाते हुए उसके मुँह में काफल डालती रहती थी।

एक लम्बी गहरी साँस भरते हुए उसने कहा, “बहुत अच्छा गाती है वह

लड़की…ठीक तुम्हारी तरह! ऐसा लगता है कि जैसे वह गीत तुम ही गा रही

हो। पहले तुम भी तो इसी तरह से गाया करती थी। कितनी खूबसूरत आवाज है

उसकी…! कौन है वह लड़की...मैं उससे मिलना चाहता हूँ?”

“वह और कोई नहीं तुम्हारी खुद की अपनी ही बेटी है। वह अपने पिता की

गोद में बैठने के लिए बहुत तरसती है। जब उसे पता चलेगा कि तुम उसके

पिता हो तो तुम्हारी गोद में बैठकर बहुत खुश होगी, बार-बार तुम्हारा चेहरा

चूमने लगेगी।”

रुक्मा के शब्दों को सुनकर वह चौंक पड़ा। माथे पर पसीने की बूँदें

चुहचुहा आई। चेहरे का रंग एकाएक सर्द हो चला। उसे खामोश देखकर रुक्मा ने

कहा, “तुम्हारे जाने के बाद जब मेरी शादी हुई उस समय मैं पेट से थी। शादी

के ठीक सातवें महीने जब मैंने इसे जन्म दिया तो गाँव वाले मेरे बारे में तरह-

तरह की बातें करने लगे। फिर भी गाँव की कुछ-एक बूढ़ी औरतों ने मेरा पक्ष

लेते हुए कहा कि, ’औरत सतौंसी भी तो होती है।’ लेकिन हकीकत क्या थी, यह

तो मैं ही जानती थी या फिर मेरी माँ…! जिसे मेरे बारे में मेरी शादी से पहले

उस वक्त पता चल जब मैं ज्यादा खट्टा खाने लगी। सातवें महीने में बेटी को

देखकर मेरे पति ने मुझे घर से निकालते हुए मेरे गले का चरेऊ तोड़ दिया।

मुझे तो उसने घर से बाहर निकाल दिया, लेकिन वह खुद अपनी बिधवा भाभी

के साथ घर बसाए हुए है।”

रुक्मा के शब्दों को सुनकर महेश सन्न रह गया। वह अच्छी तरह से

जानता था कि इन पहाड़ों में दो ही तरह की औरतों का चरेऊ तोड़ा जाता है।

एक तो उस औरत का जिसका पति मर गया हो, और दूसरी उस औरत का

जिसे उसका पति हमेशा-हमेशा के लिए घर से निकाल देता है।

“लेकिन तुम्हारे गले में यह चरेऊ…?” उसने रुक्मा के गले में पहने काले-

काले छोटे दानों वाले चरेऊ को छूते हुए कहा।

“यह चरेऊ (मंगलसूत्र) तुम्हारे लिए है। इसे मेरे गले में देखकर लखमा इसके

बारे में पूछते हुए मुझसे कई बार पूछ चुकी है कि उसका पिता कौन है, वह कहाँ

रहता है? वह उससे मिलना चाहती है। क्या बताऊँ उसे! कई बार तो वह

आधीरात में अचानक अपनी चारपाई पर बैठकर मुझे झंझोड़ते हुए पूछती है,

‘पिता कब आएँगे माँ…?’ लेकिन मैं उसे कोई जवाब नहीं दे पाती। जितनी बार

लखमा तुम्हारे बारे में पूछती है, उतनी ही बार मैं मरती हूँ। लेकिन उसे सहारा

देने के लिए फिर से एक नया जन्म लेती हूँ। हमेशा एक ही डर रहता है कि

लखमा को जब हकीकत का पता चलेगा तब मैं उसका सामना कैसे कर

पाऊँगी? नहीं जानती...”

“लखमा कौन...?”

“लखमा…तुम्हारी बेटी। जो गीत गा रही है। जिसे आज लोग ‘काफल वाली’

की लड़की कहकर बुलाते हैं।”

“काफल वाली...! मैं समझा नहीं?”

“अपना गुजारा करने के लिए मैं मई-जून के महीने में लंगोरा के इस जंगल

से काफल लेकर बैजरो बाजार में बेचने जाती हूँ तो लोग मुझे ‘काफल वाली...वो

काफल वाली’ और लखमा को ‘ये काफल वाली की लड़की’ कहकर बुलाते हैं। इन

दो महीनों में घर का खर्चा तो ठीक चल जाता है। लेकिन उसके बाद घर का

खर्चा चलाना बहुत मुश्किल हो जाता है। लोगों के साथ उनकी खेती बाड़ी में

काम करते हुए जो मिल जाता है। उसी में सन्तोष करना पड़ता है। मैं लखमा

के लिए स्कूल की ड्रेस नहीं ले पाती। गाँव की स्कूल जाने वाली लड़कियाँ जब

अपने लिए नई ड्रेस सिलवाती हैं तो उनकी पुरानी ड्रेस लखमा के काम आ जाती

है। कितनी खुश होगी हमारी बेटी जब उसे पता चलेगा कि जिस पिता को देखने

के लिए वह रात-दिन तरस रही है वे तो उसके सामने ही खड़े हैं।”

वह खामोश रहकर किसी अपराधी की तरह सिर झुकाए रुक्मा की बातों

को सुनता रहा। उसमें इतनी हिम्मत नहीं रही कि वह उस रुक्मा को कुछ कह

सके, जिसकी तलाश में वह हर साल जून के महीने में दिल्ली से आकर लंगोरा

के इस घने जंगल में काफल तोड़ने आता है।

आज वही रुक्मा उसके सामने बैठी अपनी जिन्दगी का दुःख से भरा एक-

एक शब्द उसे बता रही थी। और वह उसकी बातों को सुनकर पत्थर के बुत की

तरह जड़वत हो गया था।

तभी पहाड़ी गीत के बोल उसके कानों से टकराने लगे थे। वही सुरीली

आवाज, वही सुन्दर गीत।

मेरी नणदा सुशीले नणदा

मिठि बेरी खयोंले य।

(मेरी ननद सुशीला ननद, चल मीठी बेरियाँ खा कर आते हैं)

“लखमा आ रही है, तुम्हारे बारे में पूछेगी तो कह नहीं पाऊँगी।”

तभी लखमा उन दोनों के पास आकर बोली, “चल माँ बहुत देर हो गई है।

अभी काफल बेचने बैजरौ भी जाना है। पिता होते तो हमें इतनी मेहनत करने

की जरूरत नहीं होती। पता नहीं पिता कब आएँगे। चल माँ चल...।”

रुक्मा ने एक बार महेश की ओर देखा। उसकी आँखों में अब भी ऐसे कई

असंख्य प्रश्न तैर रहे थे। जिन्हें वह महेश से पूछना चाहती थी। लेकिन लखमा

के आने से वह कुछ भी नहीं पूछ सकी। लखमा थोड़ी देर बाद आती तो वह

महेश से अपने सवालों के जवाब पूछ लेती। उसने सोचा...अकेले में मिलेगा तो

वह लखमा के साथ आगे बढ़ते हुए बार-बार पीछे मुड़कर देखती जा रही

थी। अचानक ही महेश के मन में खयाल आया कि बेचारी कब घर पहुँचेगी, कब

खाना बनाएगी, और कब बैजरौ काफल बेचने जाएगी? क्यों न वह उसके सारे

काफल यहीं खरीद ले।

सोचते हुए उसने रुक्मा को जोर-जोर से आवाज लगाई, ‘काफल वाली...वो

एकाएक महेश के मुँह से अपने लिए ‘काफल वाली’ सुनकर वह सन्न रह

गई। उसका शरीर झनझना उठा। काफलों से भरा थैला अचानक ही उसके हाथों

से छूटकर नीचे पहाड़ी की ओर लुढ़कते हुए गहरी खाई में समा गया था।

उसे इतना दुःख काफलों गिरने व खोने का नहीं हुआ। जितना दुःख उसे

महेश के मुँह से अपने लिए, ‘काफल वाली...ओ काफल वाली’ सुनकर हो रहा

था। उसे अपनी साँसें उखड़ती हुई दिखाई देने लगी। उसे लगा जैसे पल भर में

उसके प्राण-पखेरू उड़ जाएँगे। अपने माथे पर आए पसीने को अपनी धोती से

पोंछते हुए वह बड़बड़ाई…।

‘तेरे मुँह से रुक्मा शब्द सुनने के लिए बरसों से तरस रही हूँ, और आज

जब तू मिला भी तो तूने भी मुझे उसी तरह से पुकारा जैसे बाजार में अन्य

लोग मुझे पुकारते हैं ‘काफल वाली...वो काफल वाली...!’ एक बार पहले की ही

तरह आज तू अपनी बच्ची के सामने मुझे रुक्मा कहकर बुला लेता तो शायद

मैं तुम्हारी बेटी के सामने सिर उठाकर जीने का साहस कर लेती।’

बड़बड़ाते हुए वह वहीं पर पसर गई। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।

लेकिन आज वह उन्हें पूरी तरह से बहा देना चाहती थी। शायद ये आँसू इसी

दिन के लिए उसकी आँखों में रुके पड़े थे।

(काफल एक पहाड़ी फल है, यह पहाड़ी घने जंगलों में गर्मियों में मिलता है। यह

बहुत ठंडा होता है।)


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