Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

शह और मात

शह और मात

31 mins
14.4K


 अनुराग तीन कारणों से लखनऊ आया था। तीनों ही कारण अपने कार्य से तादात्म्य स्थापित करने में असफल रहे। पहले दो कारण जो निजी होते हुए भी सार्वजनिक और 'परिवार हित' किस्म के थे, उसमें फेल हो जाने का उसे कोई अफसोस नहीं था, बल्कि उसमें से एक कारण तो वह चाहता ही था कि फ्लॉप हो जाए।

दरअसल, लखनऊ में उसके मामा का लड़का रहता था जो 'निट' में कंप्यूटर का डिप्लोमा कर रहा था। पहले तो इसे समय काटने और खुद को कहीं-न-कहीं 'एंगेज्ड' बताने की उसकी चाल समझी गयी, परंतु अपने अंतिम सत्र तक आते-आते जब उसने कर्इ कंपनियों में अपनी शुरुआती जगह तय कर ली, तब समूचे कुनबे को यकायक लगा कि देश अब 'सामंतवाद-पूँजीवाद गठजोड़' से आगे बढ़कर 'सूचना-संचार क्रांति युग' में पहुँच गया है और इतने दिनों तक आलोक ने समय काटने, चुइंगम चबाने, लड़कियों से दोस्ती करने, सिनेमा देखने के अलावा जरूर कुछ ऐसा जान-समझ-सीख लिया है, जिससे उसका परिवार-समाज-राष्ट्र किसी तयशुदा पटरी पर और तेज दौड़ेगा।

समाज और राष्ट्र तो खैर अमूर्त किस्म की चीजें थीं परंतु आलोक के परिवार को इतनी जल्दी और इतना तेज दौड़ने को तैयार देख उसके तमाम नाते-रिश्तेदार-परिचितों को अपनी और अपनी पीढ़ी की तैयारी पर रोना आने लगा। इसी रोते-गाते लानत-मलामत के क्रम में अनुराग के लखनऊ आने का पहला कारण था कि वह लखनऊ में तमाम ऐसे संस्थानों में अपना भविष्य तलाशे, जो इस राष्ट्र का भी भविष्य थे। दूसरा कारण उसका निजी था, परंतु यही निजता उसके जी का जंजाल बन गयी। थी। दरअसल वे दोनों, मतलब अनुराग और आलोक, बचपन में एक ही साथ खेलकर बड़े हुए थे। आलोक के पिता की असमय मृत्यु के बाद अनुराग के पिता को हमेशा महसूस होता था कि उसका जीवित रहना कहीं-न-कहीं अनुराग को अतिरिक्त फायदा पहुँचाएगा। शुरुआती वर्षों में स्कूल के परीक्षाफलों में अनुराग ने यह लौ खुद जलायी थी। परंतु इंटर (साइंस) के बाद जब उसने बीए पढ़ने का फैसला किया, तभी से उन्हें यह लौ टिमटिमाती-सी दिखने लगी थी, अब बुझी, तब बुझी। दूसरी ओर जिस दीये को वे उसके पिता की मृत्यु के बाद बुझा हुआ मानने लगे थे, वह इतनी तेज रोशनी और चमक के साथ भभका कि समूचा कुनबा उसमें अपना रास्ता खोजने लगा। स्साले! एक ही साथ दोनों बैट-बॉल खेलते थे! क्या कमी रखी थी मैंने तुम्हारे लिए? एक साला वो बिना बाप का बच्चा आज इतनी तरक्की कर रहा है, और साहबजादे साहित्य बाँच रहे हैं! 

इसी वक्रोक्ति में अनुराग के लखनऊ आने का दूसरा निजी मामला छुपा था। दरअसल दोनों वाकई एक साथ खेले-कूदे थे, कई सारी बदमाशियों, कई सारी गुस्ताखियों, कई सारी हरामीगीरियों के दोनों एक-दूसरे के प्रति राजदार थे। यदि दोनों महान बनने के बाद दुश्मन हो जाते तो एक-दूसरे की उपलब्धियों को खुद 'लीप देने' लायक स्कूप दोनों धारण करते थे। परंतु अभी वह बात नहीं थी। इंटर के बाद अनुराग दिल मसोस कर रह जाता। परंतु कोई सूरत ही न बनती थी लखनऊ जाने की जहाँ आलोक बी.कॉम. की पढ़ाई अधूरी छोड़कर 'निट' का डिप्लोमा लगभग पूरा कर चुका था। इस बार जब पिताजी ने सूचना-संचार, राष्ट्र और आलोक पर लंबा भाषण देते हुए उसे लखनऊ जाकर कुछ सीख-समझ आने का प्रस्ताव दिया तो उसे प्रसन्नता ही हुई कि न सही सूचना-संचार, न सही 'निट' आलोक से तो मुलाकात हो ही जाएगी, उसी आलोक से जिसके साथ वे 'शांति' सीरिअल के दोनों दोस्तों की तरह एक साथ रहने का स्वप्न देखते थे। 

परंतु वहाँ अनुराग को 'शांति' सीरियल जैसी कोई अनुभूति नहीं हुई, वहाँ 'कसौटी जिंदगी की' चल रही थी जिसमें आलोक अपना बैट-बॉल, गिल्ली-डंडा सब भूल आया था। अनुराग ने लाख कोशिश की कि बातचीत का दायरा निट, नौकरी, भविष्य, कंप्यूटर से बाहर आए, लेकिन आलोक लगभग मुशर्रफ की तरह अपने एजेंडे पर लगातार कायम रहा। 

दूसरे दिन जब बात बर्दाश्त से बाहर हो गयी, तब अनुराग ने भी अपने ज्ञान और अनुभव का पिटारा खोला। उसने आलोक के रुचि न लेने के बावजूद बताया कि हिंदी साहित्य में उसने क्या-क्या पढ़ रखा है। प्रेमचंद, फणीश्वर नाथ रेणु, यशपाल की कहानियों में क्या जादू है, शमशेर की कविताएँ पढ़े बिना कोई किसी से मुकम्मल प्रेम कैसे कर सकता है आदि-आदि। इसमें से कोई भी बात आलोक को उत्साहित नहीं कर सकी थी। इसी क्रम में अनुराग ने अपना तीसरा एजेंडा भी सामने रख दिया जिस पर स्पष्ट रूप से उसकी हाल की रुचियों का प्रभाव था। उसने आलोक को बताया कि लखनऊ वैसा नहीं है, जैसा वह देख या समझ रहा है। उसका क्या है। वह तो कमरे से अपने संस्थान जाने के लिए निकलता है। ऑटो में बैठे, पहुँच गये। ज्यादा से ज्यादा मार्केट घूम आये। किसी महँगे रेस्तराँ में खाना खा लिया, लखनऊ के दो-चार इलाकों का नाम जान लिया, ये हजरतगंज है, ये अमीनाबाद है, ये रकाबगंज है, बस! 

'अरे जनाब, लखनऊ तो चश्मेबद्दूर है, बस उसे देखने के लिए नजर पैदा करने की जरूरत है। शौके-दीदार अगर है तो नजर पैदा कर।' अपने हिसाब से अनुराग ने खास लखनवी अंदाज में कहा था। पहली बार आलोक को उसका अंदाजे-बयाँ कुछ खास लगा। उसे लगा शायद अनुराग वाकई ऐसा कुछ जान-समझ गया है जो उसने करियर, कंप्यूटर और ऐसी ही चीजों में गँवा दिया। 

'तो फिर यार लखनऊ में और क्या है ऐसा जो मैंने नहीं देखा?' तब अनुराग ने तफसील से अपने तीसरे कारण को सामने रखा कि दरअसल वह लखनऊ के नवाबों को देखने के लिए इस शहर में आया था। लखनऊ वह नहीं है कि इन विशाल इमारतों को देखा जाए, बड़ी-बड़ी दुकानों को अपनी चुँधियायी आँखों से घूरा जाए, सजावटी लट्टुओं की तरह से नियोन बल्बों की रोशनी में नहा लिया जाए, लोगों की भीड़ से अपने कंधे छिल जाएं। अनुराग खास शायराना हो गया था, 'जनाब, इन नकलची, बाजारू और बिकाऊ शामों में हमारी 'शामे-अवध' कहीं गुम हो गयी-सी लगती है। आखिर कहाँ गये नवाब वाजिद अली शाह के वे जीन-कसे सफेद अरबी घोड़े। वे इक्के, वे बग्घियाँ, वे घोड़ों की टापें, वो चाबुकों की फटकार!' आलोक को अब अपनी नजर पर शक होने लगा। उसने तो कभी लखनऊ में ये चीजें देखने की कोशिश नहीं की। उसे अपनी पीठ पर वाजिद अलीशाह के सवारों के चाबुक की फटकार महसूस हुई। 

'यार लखनऊ में इतना कुछ है लेकिन कहाँ है?' आश्चर्य से उसने पूछा। 

'वही तो मैं भी पूछ रहा हूँ बरखुरदार। आखिर कहाँ गयीं वो तीतर और बटेर की बाजियाँ, वो कोठों की रवायतें जहाँ नवाब अपने शहजादों को तमीज और तहजीब सिखाने भेजा करते थे। वो उमराव जान अदा, वो मिर्जा हादी रुसवा...' 

कोठे की बात सुनकर आलोक को थोड़ी हिचक हुई। बोला, 'कोठा मतलब जहाँ रंडियाँ रहती हैं... तू वेश्याओं की बात...' 

'अबे रंडियाँ नहीं, तवायफें मेरी जान! यदि तुमने उमराव जान अदा पढ़ी होती तब तुम्हें पता लगता कि आखिर लखनऊ में इतनी तहजीब आयी कहाँ से, कि यहाँ छछूँदर को भी दुममुर्दार कहा जाता था...।' 

'मैं तो भाई बहुत हसरत लेकर आया था कि लखनऊ जा रहा हूँ। नवाब वाजिद अली शाह का लखनऊ, वहाँ की नवाबी शान, वहाँ की शाही तहजीब, शामे अवध... यहाँ तो वैसा कुछ भी नहीं। जानते हो, जब अंग्रेज वाजिद अली शाह को मारने की योजना बना रहे थे, तो नवाब ने खुद उपाय बताया था एक दहीवाली को खट्टे दही के मटके के साथ दो बार मेरे सामने से ले जाओ, उसकी गंध से ही मेरी नकसीर फट जाएगी ओर मैं मर जाऊँगा।' 

अब आलोक को भी नवाब वाजिद अली याद आ गये थे। इंटर में पढ़ी हुई 'शतरंज के खिलाड़ी' वाले नवाब। 'क्यों, वही नवाब न जिनके दो सरदार शतरंज खेलते हुए मर गये थे, लेकिन नवाब को बचाने नहीं गये।' 

'अरे वो सब तो सियासी बातें थीं, नवाब खुद संगीत सुनने में व्यस्त थे जब अंग्रेज उन्हें लेने आये थे, उसमें उन सरदारों का क्या दोष लेकिन थे वे भी नवाब से कम नहीं। मुहरों की खातिर जान लड़ा दी, पीछे नहीं हटे।' हालाँकि आलोक को यह बात कुछ जँची नहीं। लेकिन वह नवाबों के शहर में रहता है और यह बात कुछ खास है। इसलिए उस पर अचानक मेजबानी का भूत सवार हो गया। उसने तुरंत शामे-अवध देखने का प्रस्ताव रखा। अनुराग की बातचीत से उसे लगा कि यह शामे-अवध जरूर पुराने लखनऊ में मिल जाएगी, दोनों पुराने लखनऊ जाने को तैयार हुए। परंतु उस शाम आठ बजे कोई रिक्शा या ऑटो पुराने लखनऊ जाने को तैयार न हुआ, पता चला, कल से ही शहर में किसी अनहोनी की आशंका थी। दूर गुजरात में किसी ट्रेन में कुछ उपद्रवियों ने आग लगा दी थी जिसके बाद पूरा गुजरात जल रहा था और उसकी लपटें यहाँ भी साफ महसूस की जा रही थीं। सारा शहर जैसे बारूद के ढेर पर बैठा था। पता नहीं इस विस्फोट को किस मिर्जा, किस सौदा, किस अनीस के कलामों में रोके रखा था। दोनों जब पुराने लखनऊ जाने के लिए ऑटो वालों से पूछताछ कर रहे थे, तो वे उन्हें बड़ी अजीब नजरों से घूर रहे थे। एक ने तो थोड़ी अजीब आवाज में पूछा ही था, 'उधर के ही रहने वाले हो क्या?' 

'नहीं, रहता तो यहीं पर हूँ।' 

'तो फिर मरने का शौक है क्या?' 

'लेकिन...' आलोक ने कुछ कहना चाहा। लेकिन अनुराग उसे खींचते हुए वापस ले आया। उसका मूड कतई खराब हो चुका था। ऑटो वाले तक को बोलने की तमीज नहीं, यहाँ क्या शामे-अवध होगी? दोनों इतना तो समझ ही चुके थे कि शहर के हालात ठीक नहीं हैं। दूसरे, अनुराग को लौटना था, अब तो वह और भी मुमकिन नहीं। 

इसकी भरपाई करने के लिए आलोक अनुराग को उन सारी दुकानों पर ले गया जिसके साइन बोर्ड पर शाही लिखा था, शाही कुल्फी, शाही चाट, यहाँ तक कि शाही गोलगप्पे भी। लेकिन अनुराग का जायका जो बिगड़ा तो फिर बिगड़ ही गया। 

रात भर आलोक ने अपने समूचे कंप्यूटर ज्ञान को खँगाला। अनुराग का यूँ मायूस लौटना उसे अखर रहा था। सुबह उठते ही उसके दिमाग में बिल्कुल नया आइडिया था। 

'यार, तू कल क्या कह रहा था, वो नवाब वाजिद अली शाह वाली बात, जिसमें दो सरदार शतरंज खेलते थे...' 

'हाँ, क्यों क्या हो गया?' 

'अरे यार, हम लोग क्या बादशाहों से कम हैं। चलो आज बादशाह नगर चलते हैं ओर वहाँ शतरंज खेलते हैं!' 

यह बिल्कुल नये किस्म का आइडिया था। बादशाह नगर लखनऊ के पास का ही एक उपस्टेशन था जहाँ से अनुराग को गोरखपुर के लिए गाड़ी पकड़नी थी। तय हुआ कि गाड़ी पाँच बजे वहाँ से खुलती है। दो बजे ही वहाँ पहुँचा जाए और बिसात बिछायी जाये बिल्कुल नवाबों की तरह और वाकई जब दोनों चेस-बोर्ड, मोहरे और एक चादर के साथ वहाँ पहुँचे तो अपने आपको मिर्जा और मीर से कम नहीं कूत रहे थे। 

शाही अंदाज में बिसात बिछायी गयी। बादशाह नगर वैसे ही छोटा-सा स्टेशन था, दो-चार चाय वालों और एक सर्वोदय बुक स्टोर के अलावा उस स्टेशन पर कोई बाजार नहीं था। ऐसे में दोनों इत्मीनान से नवाबों की तरह बाजी पर बैठे। हुक्का, पेंच, पानदान आदि के विकल्प में विल्स की एक पूरी डिब्बी, माचिस, चिप्स का एक बड़ा पैकेट, पेप्सी की एक बड़ी बोतल करीने से सजा दी गयी। बाजी जीतने से ज्यादा बाजी की फिज़ा को महसूसना जरूरी था। बिल्कुल मिर्जा के-से अंदाज में अनुराग ने चाल शुरू की। 

'लीजिए जनाब, यह रही मेरी चाल और प्यादे ने बढ़ाये दो कदम।' 

तकरीबन पंद्रह-बीस मिनट तक दोनों अपने प्यादों को बढ़ाकर एक-दूसरे की आजमाइश करते रहे। इस बीच पाँच सिगरेटें पी जा चुकीं, आधी चिप्स खायी जा चुकी थी और पेप्सी भी लगभग चौथाई खत्म थी। 

खेल में कोई रंग नहीं था। आलोक अकसर अपने कंप्यूटर पर चेस खेलता रहा था। उसे पता था कि वह चार-पाँच चालों में खेल खत्म कर सकता था लेकिन गाड़ी आने में अभी दो घंटे बाकी थे इसलिए वह इत्मीनान से धीरे-धीरे मोहरे चल रहा था। अनुराग को भी आलोक की जहनियत पर शुबहा नहीं था। बचपन में भी भले वह क्रिकेट, गिल्ली-डंडे में आगे रहा हो, शतरंज-कैरम बोर्ड में वह आज तक उसे शिकस्त नहीं दे पाया था। कभी-कभी तो उसे लगता कि आलोक यदि कुछ न करके, शतरंज ही खेला करता, तो भी उसका बहुत-कुछ बन-सँवर जाता। आज भी उसे लग रहा था कि आलोक तो कभी भी खेल खत्म कर सकता था। सिर्फ ट्रेन के इंतजार के लिए इन मोहरों की चाल ली। लेकिन, फिर उसे लगा कि इससे तो बेहतर है कि बाजी खत्म करके थोड़ा घूम-फिर आया जाए! यह सोचकर उसने आक्रामक खेलने के लिए, ताकि खेल में तेजी आए और यह खत्म हो, जैसे ही वजीर को निकालना चाहा वैसे ही ठीक उसके सिर के ऊपर से आवाज आयी, 'नहीं, नहीं भाई साहब, यह क्या कर रहे हैं, उसे वहीं रहने दें आप हाथी के आगे से प्यादे को हटाइए।' दोनों ने चौंककर आवाज वाली दिशा में देखा। वह एक 35-40 साल का शख्स था, दाढ़ी-बाल खिचड़ी हो चुके थे। आदमी ने हालाँकि सफारी सूट पहन रखा था लेकिन लगता था जैसे वह कई दिनों से सफर में हो। 

न जाने उस आवाज में ऐसा क्या था कि अनुराग ने फौरन हाथी के आगे से प्यादा हटा दिया।

आलोक को अनुराग से इस चाल की अपेक्षा नहीं थी। उसने एक प्रशंसात्मक निगाह उस अनचाहे मेहमान पर डाली। उसने देखा कि और दो-तीन लोग उसकी बिसात के पास खड़े होकर उसके खेल को देख रहे हैं और वह शख्स तो अपने घुटनों पर हाथ देकर अनुराग पर इस कदर झुका हुआ तल्लीन है कि सिवा मोहरों के उसे किसी चीज में दिलचस्पी नहीं हो। आलोक को लगा कि यह शख्स शतरंज को अच्छा जानकार है। उसने बिना दबाव में आते हुए अपने घोड़े को बाहर निकाला। घोड़ा ठीक ऊँट की मार में था। अनुराग ने तुरंत ऊँट पर हाथ डाला कि फिर उस शख्स ने टोका, 'नहीं, नहीं भाई साब, इतनी जल्दी नहीं। आप सिर्फ इस प्यादे को आगे सरका दें।' इस बार उसने अनुराग के मोहरे छूने का भी इंतजार नहीं किया बल्कि खुद अपने हाथों से प्यादे को आगे बढ़ा दिया। इन दो चालो में ही खेल दिलचस्प हो गया था। आलोक को लग गया कि यह खेल सामान्य नहीं होने जा रहा है। उसने फिर से अपने मोहरों की पोजीशन पर गौर किया। काफी सोचते हुए उसने फिर अपने घोड़े को वापस किया। 

'हाँ अब चलिए अपना हाथी।' कहते हुए उस शख्स ने खुद ही हाथी की एक उम्दा चाल चली। 

इस चाल ने आलोक को काफी देर तक सोचने पर मजबूर कर दिया। शतरंज के अपने सारे अनुभव को बटोरकर आखिर फिर उसने आक्रामक खेलने का मन बनाया और वजीर को बाहर निकाला। वजीर को ठीक मार करने वाली स्थिति में लाकर उसने अनुराग की ओर देखा। सामने अनुराग की जगह वही शख्स अब आराम से बैठ गया था और अनुराग बगल में बैठा हुआ मोहरों को देख रहा था। उस शख्स ने बिना किसी तकल्लुफ के उन्हीं की डिब्बी से एक सिगरेट सुलगा ली थी ओर चिप्स के पैकेट में भी आराम से हिस्सेदारी कर रहा था। 

आलोक को हालाँकि उसकी यह बेतकल्लुफी अखरी लेकिन अब सीधे-सीधे कुछ कहना उसे थोड़ा अटपटा लगा। अब उनका खेल देखने वालों की संख्या भी थोड़ी बढ़ गयी थी। ये लोग दो-तीन से पाँच-छह की संख्या में हो गये थे। सामने वाले शख्स ने बिना वजीर की परवाह किये अपना हाथी उसके सामने रख दिया। अब हाथी की शर्त पर प्यादे के हाथों वजीर को जाना था। आलोक को मजबूरन अपना वजीर वापस रखना पड़ा। खेल अब लंबा खिंचने की स्थिति में था। दो-एक साधारण चालों के बाद जब आलोक ने पुनः घोड़े की चाल चलनी शुरू की तो अचानक वह शख्स फिर बोल उठा, 'भई वाह! यह हुई वाकई शतरंज की चाल आपने तीन चाल चली और तीनों घोड़े की। अनाड़ी ही सारे मोहरों से खेलते हैं।' कहते हुए उसने फिर से हाथी को दाहिने खींचा। 

आलोक ने तय किया कि वह शख्स किसी-न-किसी प्रकार से हाथी को केंद्र में रखकर खेल रहा था। उसने भी थोड़े प्रशंसा के भाव से कहा, 'आप भी कोई पहुँचे हुए खिलाड़ी लगते हैं।' 

'अरे कहाँ जनाब! हम क्या खाकर खिलाड़ी होंगे।' पेप्सी की बोतल उठाते हुए उसने फरमाने जैसे अंदाज में कहा, 'वैसे आपकी चालें देखकर मुझे बेगम नूरजहाँ की याद हो आयी।' 

'कौन बेगम?' आलोक ने अपने मुहरों को सोचते हुए पूछा। 

'अरे नूरजहाँ! जहाँगीर की बेगम' - अनुराग ने तपाक से कहा। 

'हाँ... अरे आप तो काफी मालूमात रखते हैं।' कहते हुए उस शख्स ने सामने देखा। अनुराग अब आलोक के बगल में बैठा हुआ था। 

'तो जनाब! इस शतरंज की शुरुआत बेगम नूरजहाँ ने ही की थी। और पता है आपको, वो हमेशा घोड़े की चाल चलती थीं। जैसे आप...।' 

आलोक और अनुराग ने एक-दूसरे को मुस्कराकर देखा। उन्हें भी अब इस शख्स में काफी मजा आने लगा था। 

'...वैसे खेलते तो बादशाह जहाँगीर भी बढ़िया थे लेकिन वे हाथी की चाल चलते थे, बिल्कुल बादशाहों की तरह।' कहते हुए उस शख्स ने पुनः हाथी आगे बढ़ाया। हाथी-घोड़े की इस चाल में अचानक अनुराग को एक ऊँट की सुरक्षित चाल दिखी जिससे सामने वाले का प्यादा कट रहा था और ऊँट का कोई नुकसान भी नहीं था। आलोक ने भी अनुराग की बात मानी और फर्जी पीट लिया। इस अचानक चाल परिवर्तन से सामने वाला थोड़ा अचकचाया, लेकिन फिर आराम से एक नयी सिगरेट सुलगाते हुए बोला, 'पहले तो जनाब इन मोहरों से खेल थोड़े ही हुआ करते थे। सचमुच के जिंदा आदमी इन मोहरों के नकाब पहने खड़े हुआ करते थे। आमने-सामने बड़े-बड़े सिंहासनों पर बेगम और बादशाह बैठा करते थे और सोने की लंबी-लंबी डंडियों से वे अपने मोहरों को आदेश देते थे।' 

'अच्छा!' अनुराग के मुँह से निकला। अब तक पढ़ी गयी किताबों में उसे कहीं भी इस तरह का प्रसंग नहीं मिला था। 

'और क्या भाई साहब! और यदि बादशाह की किसी गलती से कोई मोहरा पिट जाता था तो कई बार गुस्से और खीझ में वे सच में मोहरे को फाँसी चढ़वा देते थे।' कहते हुए उस शख्स ने कटे हुए प्यादे को इस तरह घूरकर देखा जैसे कि यदि वह बादशाह जहाँगीर हुआ होता तो वह प्यादा तो गया था, अपनी जान से। 

खेल काफी दिलचस्प हो गया था और साथ ही उस शख्स की बातें भी! 'तो भाई जान! नूरजहाँ वाकई बहुत बढ़िया खेलती थीं और खेलें भी क्यों न। आखिर इस खेल की ईजाद की थी उसने। लेकिन आप जानते हैं इस खेल में अपने घोड़े की उम्दा चालों के बावजूद वह जहाँगीर से कभी नहीं जीत पायी। बता सकते हैं आप लोग कि आखिर इतना बेहतरीन खेलते हुए भी वह जहाँगीर से जीत क्यों नहीं सकी?' आलोक और अनुराग दोनों एक-दूसरे का मुँह देखने लगे, उन्हें ठीक-ठीक कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। फिर भी अनुराग ने कहा, 'हो सकता है जहाँगीर नूरजहाँ से भी बेहतर खेलते हों।' 

'नहीं भाई साहब! जहाँगीर नूरजहाँ से बेहतर नहीं खेलते थे। असली शतरंज वह नहीं थी जो जहाँगीर-नूरजहाँ उन फर्जियों और किश्तियों से खेलते थे। असली शतरंज तो सियासत के अंदर चलती थी जिसमें नूरजहाँ ने हमेशा जहाँगीर को शिकस्त दी। ...यह लीजिए शह!' बातों ही बातों में हाथी ठीक बादशाह के सामने आ गया था। 

इस शह से बचने के लिए आलोक और अनुराग दोनों को काफी देर तक मोहरों को घूरते रहना पड़ा।

'...तो जनाब नूरजहाँ जानती थी कि जिस दिन उसने शतरंज में बादशाह को मात दी उसी दिन सियासी बाजी में उसकी मात हो जाएगी।'

आखिर आलोक को उस शख्स की शह की काट मिल गयी थी। न सिर्फ उसने अपनी बाजी बचायी, बल्कि दो-तीन बेहतरीन चालों से उसने सामने वाले शख्स की पेशानी पर बल भी ला दिया। 

अब आलोक ने आराम से एक सिगरेट सुलगायी और कहा, 'भाई साहब, आप तारीफ तो नूरजहाँ के घोड़ों की चाल की कर रहे हैं और खेल रहे हैं हाथी से...' 

सामने वाला आलोक की इस टिप्पणी पर थोड़ा खुलकर हँसा लेकिन उसने अपनी नजरें बिसात से हटायीं तक नहीं। 

'तारीफ तो ऐसा है दोस्त कि जहाँगीर भी करते थे नूरजहाँ की और इसी तारीफ की बदौलत तो वह समूचे हिंदुस्तान की मलिका थी।' नजरें झुकाये हुए ही वह कह रहा था। 'लेकिन कई बार उसे लगता था कि जब मलिका वही है तो वह खुद जहाँगीर की तरह हिंदुस्तान के तख्त पर क्यों न बैठे।' 

'अच्छा, लेकिन इतिहास में ऐसा जिक्र नहीं मिलता।' आखिर अनुराग से रहा नहीं गया। 

'इतिहास में तो जनाब कर्इ बातों का जिक्र नहीं मिलता। जहाँगीर-नूरजहाँ के बिसातों की क्या बिसात कि वह इतिहास के हर्फों में जगह पा जाए। आखिर इतिहास कोई बादशाहों की बाँदी होता नहीं, लेकिन नूरजहाँ ने एक बार तो वाकई जहाँगीर को शतरंज में शिकस्त देने की ठानी।' 

उस शख्स की आँखें बाजी पर बिल्कुल जमी हुई थीं। आलोक को भी लग रहा था कि उसकी एक गलती बाजी खत्म कर सकती है। 

'तो भाई साहब! नूरजहाँ ने बादशाह को अपने घोड़ों से घेरा कि बादशाह को पसीने आ गये। उन्होंने लगभग थकी आवाज में कहा, 'बेगम, यह बाजी तो आप जीत गयीं।' नूरजहाँ के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान आ गयी। उसने बड़ी संजीदगी और शाइस्तगी से कहा, 'नहीं जहाँपनाह एक चाल है आपके पास और बाजी पलट सकती है।' 

'बादशाह ने लाख जोर लगाया लेकिन वह चाल नहीं सूझी।' 

'कौन-सी चाल है?' लाचारगी से कहा उन्होंने।  

'वह चाल आपको सिर्फ मैं बता सकती हूँ। लेकिन इसके बदले में आप मुझे क्या देंगे?' 

आलोक और अनुराग दोनों को अपनी जीत की खुशी साफ दिखाई दे रही थी। सामने वाला शख्स अब अपनी ही चाल में फँस गया था। अनुराग ने घड़ी देखी, ट्रेन आने में अब भी पंद्रह मिनट बाकी थे। लेकिन वह शख्स लगातार बाजी पर नजरें गड़ाये था। जैसे उसने अपनी आँखें वहीं रख दी हों। 

'तो दोस्त! बादशाह ने नूरजहाँ की ओर प्यार से देखा। कहा, 'मलिका, सब कुछ तो आपका ही है। अब आपको और क्या चाहिए?' 

'मुझे हिंदुस्तान...।' नूरजहाँ की आवाज में बर्फ का-सा ठंडापन था।' 

'बादशाह यकायक संजीदा हो गये। वो सारा आवेग सारा आराम कहीं परे चला गया। सामने वाले की आवाज में अचानक तुर्शी आ गयी थी। पेशानी के बल ज्यादा हो गये थे। पसीने की कुछ बूँदें उस पर चमकने लगी थीं।' 

'तो फिर... ' आलोक के मुँह से निकला। 

'तो क्या बादशाह ने अपना सारा दिमाग लगाया और उनके मुँह से निकला, 'हिंदुस्तान की शर्त पर... कभी नहीं।' 

'लीजिए जनाब, ठीक यही चाल जहाँगीर ने उस समय चली थी, आपकी मात हो गयी। क्यों, है कोई रास्ता अब?' 

सामने वाले ने एक जोर की साँस छोड़ी आलोक और अनुराग भौचक-से उस चाल को देख रहे थे। हाथी की चाल चलते-चलते कब घोड़े ने वह ढाई घर चली कि दोनों को सहसा यकीन नहीं हुआ। दोनों चुपचाप सिर झुकाये बिसात को देख रहे थे। 'अरे भाई जान! निराश न हों। आप वाकई बहुत उम्दा खेलते हैं। खुदा कसम मजा आ गया। इस बाजी से।' 

उसने आराम से चिप्स का पैकेट उठा लिया था और निहायत बेशर्मी से खा रहा था। आलोक और अनुराग दोनों को उस शख्स पर अब बेतरह गुस्सा आ रहा था। साला जहाँगीर की औलाद। बातें तो ऐसे बना रहा था जैसे खुद जहाँगीर के साथ ही रहता आया हो। 

आलोक ने फौरन अपनी चादर समेटी। बाजी समेटे जाने तक दोनों एक-दूसरे से नजर नहीं मिला रहे थे। दोनों फौरन से पेशतर उस शख्स से अलग हो जाना चाह रहे थे। अपनी शुरुआती चालें उस शख्स के कहने पर चलने से अनुराग को थोड़ी खुशी तो हो रही थी, परंतु बाद में जब वह आलोक के बगल में बैठा था तब जैसे उस शख्स ने अकेले ही दोनों को शिकस्त दी। आलोक तो जैसे किसी सदमे में था।

 

इस बादशाह नगर रेलवे स्टेशन पर शतरंज खेलने का सुझाव उसी का था लेकिन गुस्सा उसे अनुराग पर आ रहा था। बड़े आये नवाबों का शहर देखने वाले। शामे-अवध हुंह! 

लेकिन दोनों एक-दूसरे से कुछ बोल नहीं रहे थे। अचानक उस शख्स ने कहा, 'अरे भाई साहब, इजाजत दीजिए, मेरी ट्रेन आ गयी है। बादशाह खान नाम है मेरा। इंशा अल्लाह फिर कभी इसी तरह मुलाकात होगी। आप कौन-सी ट्रेन में हैं?' 

'इसी ट्रेन में,' अनुराग ने बुझे स्वर में कहा... हालाँकि कहते हुए उसे अफसोस हुआ कि कहीं यह शख्स पीछे ही न पड़ जाए। देखने में वैसे भी वह खासा अस्त-व्यस्त लग रहा था। और कोई सामान भी नहीं था उसके पास। और जिस धड़ल्ले से वह उनकी सिगरेटें पी रहा था, चिप्स खा गया था और पेप्सी चढ़ा ली थी उससे तो वह खासा चलता-पुर्जा लगा रहा था। 

'चलो आलोक, अपना कोच ढूँढ़ें।' कहते हुए बिना उस शख्स से हाथ मिलाये या विश लेते हुए अनुराग आलोक को लगभग खींचते हुए आगे बढ़ गया। आलोक भी चुपचाप वहाँ से चल पड़ा। दोनों ऐसे खामोश थे जैसे न जाने कितनी प्यारी चीज उनसे किसी ने जबर्दस्ती छीन ली हो या किसी खास स्वजन की चिता फूँक के आये हों। अनुराग का कोच सामने ही था, अपना बैग अपने सीट पर रखकर वह फिर स्टेशन पर उतर आया। गाड़ी के छूटने का समय हो चुका था। यूँ ही माहौल के तनाव को कम करने के लिए उसने आलोक के कंधे पर हाथ रखा, 'अच्छा जहाँपनाह, इजाजत दीजिए। इंशाअल्लाह फिर जल्द ही मुक्का-लात होगी।' 

आलोक ने एक फीकी-सी हँसी से उसके फिकरे का जवाब दिया। गाड़ी सरकने लगी थी। अनुराग लपककर डिब्बे में चढ़ गया। जाते-जाते बोला - 'सच में यार! बड़ा बेवकूफ था।' 

आलोक फिर मुस्कराया और सरकती गाड़ी के साथ-साथ बिना कुछ कहे आगे बढ़ने लगा। आलोक से फारिग होकर अनुराग जब अपनी सीट पर वापस आया तो डिब्बा खचाखच भर चुका था। अंदर काफी गर्मी थी। कुछ लोग जोर-जोर से बोल रहे थे जिससे उमस और बढ़ती महसूस हो रही थी। अनुराग ने गौर किया। इन सब में एक तुंदियल बनियानुमा चेहरे वाले आदमी की आवाज सबसे तेज थी। उसने भगवा बनियान पहन रखी थी। खिचड़ी दाढ़ी के ऊपर माथे पर लाल टीके ने उसके भरे चेहरे को थोड़ा डरावना-सा बना दिया था। ये लोग किसी एक मुद्दे पर ही जोर-जोर से बोल रहे थे। थोड़ी देर में अनुराग को बातें समझ में आने लगीं। उसे महसूस हुआ कि डिब्बे की गर्मी सिर्फ मौसम के कारण नहीं थी। कल से जिस सुदूर गुजरात में जल रही आँच से पूरा शहर तपता-सा महसूस हो रहा था, वो आँच यहाँ तेज लपटों के रूप में मौजूद थी। वह डरावना-सा दिखने वाला आदमी जोर-जोर से बोल रहा था, 'भइया! हमने तो अपनी जिंदगी राम के नाम कर दी है। दो बेटे हैं हमारे अभी जीवित। वैसे तीन थे : एक को मैंने घर से भेजा था अयोध्या। कार सेवा करने। वहाँ वह शहीद हो गया। बिल्कुल इस बच्चे की ही तरह था।' उसने अचानक अनुराग की तरफ इशारा किया तो वह जैसे सकपका गया। बातचीत में शामिल तमाम लोग अनुराग की तरफ उत्सुकता से देखने लगे। वह बनिया लगातार जारी था, 'तो भइये! यह जीवन किसका है श्रीराम का। मेरे बेटे के शहीद होने पर मुझे गर्व हुआ। अभी तो दो जीते हैं। बीस बेटे भी होते तो मैं उन्हें राम के नाम पर बलिदान करने से नहीं हिचकता।' 

उसके प्रलाप का डिब्बे पर खासा असर दिख रहा। लोग श्रद्धा और भय से उसकी ओर देख रहे थे।

'अभी देखिए गोधरा में क्या हुआ। हमारे आप जैसे लोग अयोध्या से लौट रहे थे। भगवान की सेवा करके लौट रहे थे। यूँ डिब्बे को चारों तरफ से बंद कर आग लगा दी गयी। आखिर वो मरने वाले हमारे ही भाई-बंधु थे।' 

'जनाब, इन मुसल्लों को तो हमारी सरकार ने ही सिर पर चढ़ा रखा है। वोट की खातिर इनकी पूजा करो फिर इनकी तलवारें झेलो।' एक सज्जन ने तलवार भाँजने का ऐसा अभिनय किया कि लगा अभी कोई गर्दन डिब्बे में कट जाएगी। 

बनिये ने फिर बात लपक ली थी, 'सिर्फ सरकार को दोष देने से क्या होगा भाई साहब! हमारे नौजवानों के अंदर का खून भी तो पानी हो गया है, नहीं तो 68 करोड़ की जनसंख्या है हमारी। एक दिन में हम अपनी पवित्र मातृभूमि को म्लेच्छों से आजाद कर सकते हैं। क्यों नौजवान!' उसने फिर अनुराग की तरफ देखा। वह बिना वजह इस तरह बातचीत में घसीटे जाने से खासा परेशान था। लेकिन अभी-अभी जिस शख्स बादशाह खान के कारण उसका मूड चौपट हुआ था, गाली उसी की कौम को दी जा रही थी। न चाहने के बावजूद, उसे थोड़ा-सा अच्छा लगा। धीरे-से उसने कह दिया, 'ठीक कहते हैं।' फिर कहीं उसे इन तरह न घसीटा जाए, अनुराग ने उस भीड़ से परे देखना शुरू कर दिया कि अचानक उसे सामने से बादशाह नाम का वही शख्स आता दिखा जो यकीनन किसी को ढूँढ़ता दिख रहा था। अनुराग समझ गया कि वह उसी को ढूँढ़ रहा था। अब यदि वह यहाँ आकर बैठ जाए तो जिस तरह की बातें यहाँ चल रही थी... अनुराग को अचानक अनहोनी की आशंका हुई। वह लपककर उसके पास पहुँच गया। 

'अरे बादशाह भाई, किसी को ढूँढ़ रहे हैं क्या?' अनुराग ने उसे पैसेज की तरफ ले जाते हुए पूछा। 

'अरे जनाब। आप यहाँ हैं, मैं तो काफी देर से आपको ढूँढ़ रहा था।' अनुराग की इच्छा हुई कि पूछे – क्यों ढूँढ़ रहे थे, क्या काम है आपको मुझसे, लेकिन वह सिर्फ मुस्कराकर रह गया।

'है क्या आपके पास? वो कहाँ है?' बादशाह भाई के हाथों के आकार को ऐसे दिखाया कि अनुराग तुरंत समझ गया कि जनाब शतरंज के बारे में पूछ रहे हैं। 

'नहीं। वो तो आलोक ले गया वापस।' अनुराग ने ऐसे कहा जैसे जान छूटी हो। लेकिन उसके इस जवाब से बादशाह भाई का चेहरा उतर आया। 

'अरे! होता तो एक-एक बाजी हो जाती।' लाचारी और अफसोस प्रकट करने वाली उनकी एक हताश आवाज निकली। 'खैर... आपके साथ खेलकर सचमुच बड़ा मजा आया था।' 

अनुराग को लगा जैसे वह उसकी पराजय को याद दिला रहा हो लेकिन अब यदि तारीफ कोई कर रहा हो तो आप उससे झगड़ तो नहीं सकते। इसी बीच एक चाय वाला उधर से गुजरा तो अनुराग ने दो चाय ले ली। बादशाह भाई ने भी मना नहीं किया जैसे वे तैयार ही थे चाय पीने के लिए। चाय पीते-पीते बादशाह भाई ने फिर दो-तीन बार शतरंज के न होने का अफसोस जताया। इस बीच हालाँकि उन्होंने अनुराग से उसके परिवार, शिक्षा आदि के बारे में भी जानकारी ली। अपने बारे में बताते हुए वह थोड़ा झिझकता-सा दिखा और बताया कि दरअसल वह गुजरात के अहमदाबाद का रहने वाला है। वहाँ उसका लखनवी चिकन का कारोबार था। पिछले दिनों की दुर्घटनाओं में उसकी दुकान जला दी गयी थी और फिर से व्यापार सँभालने के सिलसिले में वह कुछ मित्रों से मिलने की कोशिश में था। अनुराग को अचानक उस पर तरस आने लगा। उसने कुछ और पूछने की कोशिश की लेकिन बादशाह भाई बार-बार शतरंज के न रहने पर ही अफसोस करते रहे। अनुराग को हैरत हुई कि ऐसी परेशान स्थिति में आखिर वह आदमी शतरंज खेलने को लेकर संजीदा कैसे है। 

इस बीच पेंट्री कार वाले के कारिंदे ब्रेड कटलेट आदि लेकर गुजरे। अनुराग को भूख लग आयी थी, उसने दो प्लेट कटलेट लिये। बादशाह भाई ने उसे सहजता से ले लिया। 'हाँ भाई! भूख तो मुझे भी लग आयी है। वहाँ आपके साथ खेलते हुए खाने का होश ही नहीं रहा।' अनुराग को लगा, इस परेशान आदमी के साथ रुपये-पैसों की भी किल्लत होगी। उसने कटलेट के बाद फिर से चाय मँगवायी और एक सिगरेट उसे पेश करते हुए खुद भी जला ली। 

'अरे आपने भी जला ली। एक से ही काम चल जाता।' बादशाह भाई ने उसे टोका। 

'नहीं, ठीक है।' 

'वैसे आगे कौन-सा स्टेशन है? मैं तो इस रास्ते पर पहली बार हूँ।' 'बाराबंकी है। जंक्शन है।'

'अरे तब तो ठीक है। वहाँ जरूर किसी स्टॉल पर शतरंज मिल जाएगी।' अनुराग को जबर्दस्त खीझ हो रही थी। लेकिन अब इतना तो परिचय हो ही गया था कि वह सीधे-सीधे पल्ला नहीं झाड़ सकता था।

'ठीक है, देखते हैं।' 

थोड़ी ही देर में बाराबंकी आ गया था। बादशाह भाई लपककर उतरे। अनुराग को साथ लिये वे दो-तीन दुकानों पर लगातार पूछ आये। संयोग की बात। कहीं भी शतरंज नहीं मिली। अनुराग ने राहत की साँस ली। गाड़ी यहाँ पंद्रह मिनट रुकती थी। बादशाह भाई लगातार शतरंज ढूँढ़ रहे थे। यहाँ तक कि आजिजी में उन्होंने बिस्कुट, कोल्डड्रिंक वाले स्टॉल में भी दरियाफ्त कर ली। 

'अजीब स्टेशन है। एक शतरंज तक नहीं मिलती।' 

अनुराग ने सोचा एक शतरंज ही तो नहीं मिलती। अब बाराबंकी में किसे पता था कि बादशाह जहाँगीर एक बार इस स्टेशन पर शतरंज खोजते आएंगे। लेकिन कहा नहीं कुछ उसने। चाय पीने का प्रस्ताव रखा। वहाँ स्टाल पर चाय पीते हुए उनको चाय वाले से पता चला कि उस दिन तमाम गाड़ियाँ अस्त-व्यस्त चल रही हैं। कहीं दंगा वगैरह की स्थितियों के कारण गाड़ियाँ फँसी हैं। अब यह ट्रेन भी एक-डेढ़ घंटे से पहले नहीं चल पाएगी। 

यह सुनकर अनुराग को जहाँ बेचैनी महसूस हुई, बादशाह भाई की आँखें चमक उठीं, 'अरे यह तो बढ़िया हुआ भाई साहब! आइए जरा स्टेशन के बाहर दरियाफ्त कर लें। शायद वहाँ मिल ही जाए।' और वे लगभग खींचते हुए अनुराग को बाहर निकाल लाये। 

अनुराग की किस्मत वाकई अच्छी थी। बाहर भी वे तमाम दुकानों में पूछ चुके। वहाँ ताश, लूडो वगैरह तो था लेकिन शतरंज नहीं थी। 

बादशाह भाई बहुत मायूस हो गये। 'यदि पता रहता कि सफर में आपका साथ रहेगा तो मैं लखनऊ से ही रख लेता।' इस तरह कहा उन्होंने जैसे कितनी बड़ी बात आज हो जाएगी यदि शतरंज न खेली गयी तो। 

'अरे कोई बात नहीं बादशाह भाई, न सही शतरंज, बातचीत में ही सफर कट जाएगा।' 

'हाँ, वो तो ठीक है लेकिन जैसे अभी देखिए गाड़ी खड़ी है, एक बाजी तो अभी हो जाती।' 

अनुराग आजिज आ गया। तभी बादशाह भाई फिर बोल उठे, 'अभी गाड़ी खुलने में वक्त है काफी। भूख लग आयी है। कहीं चल के कुछ खा लिया जाए।' 

अनुराग अजीब मुसीबत में था। मान न मान मैं तेरा मेहमान। अजीब आदमी है भाई। खाना है तो जाइए, मुझे बख्शिए। 

लेकिन औपचारिकतावश चुप ही रहा। जब इतना झेल ही लिया हे तो चालीस-पचास और सही।  

'चलिए,' उसने आस-पास के ढाबों पर नजर दौड़ायी। लेकिन बादशाह भाई उसका हाथ थामे क्वालिटी रेस्तरां की तरफ बढ़ गये। रेस्तरां की चमक देखकर ही अनुराग के चेहरे का रंग उड़ गया। शाकाहारी-मांसाहारी का उत्तम प्रबंध था। स्लोगन उसे अपने सीने में धँसा-सा महसूस हुआ। उसने हिसाब लगाया, कुल तीन सौ रुपये थे उसके पास, सौ-डेढ़ सौ तो गये ही आज। एक पल के लिए उसे लगा कि वह हाथ-छुड़ाकर सीधा भाग जाए अपने डिब्बे में। सरेआम यह आदमी उसकी गर्दन पर छुरी रखे था ओर वह सिर्फ हुजूर आहिस्ता, जनाब आहिस्ता कह पा रहा था। 

बोझिल कदमों से वह रेस्तरां में दाखिल हुआ। बैठते ही एक चुस्त वेटर उनकी सेवा में हाजिर हुआ। बादशाह भाई ने मीनू हाथ में उठा लिया और उसे उलटने-पलटने लगे। अनुराग ने गौर किया उनकी आँखें नॉन वेजिटेबिल वाले खानों को टटोल रही हैं। उसने फौरन वेटर की तरफ देखते हुए कहा, 'दाल फ्राई और रोटी।' 

'अरे, आप बस दाल फ्राई खाएंगे। मैं तो भाई कई दिनों से सफर में हूँ। आज मैं तो कुछ बढ़िया खाऊँगा।' 

अनुराग को लगा जैसे वह कह रहा हो, आज तो मैं आपकी जान ही ले लूँगा। अजीब बेशर्म आदमी है। एकदम फेवीकोल ही हो गया है। खैर, उसने हिसाब लगाया, तीन सौ रुपये हैं उसके पास। कितना भी बढ़िया खायेगा, तो ढाई-पौने तीन सौ में हो सकता है। चलो इज्जत नहीं जाएगी। 

'चलो भाई फिलहाल तो रोगनजोश और रूमाली रोटी ले आइए।' अनुराग को रोना आ गया। अजीब मुसीबत गले पड़ी है। साला रोगनजोश खा रहा है और फिलहाल कह रहा है। मतलब और भी कुछ खाएगा। उसने उस घड़ी को कोसा जब पहली बार उसने इसके कहने पर हाथी के सामने से प्यादे को हटाया था। अब तो वह खुद हाथी हो गया था और उसकी जान के पीछे पड़ा था। 

'भाई, रेस्तरां तो ठीक-ठाक लग रहा है। अब खाना भी लजीज हो तो क्या कहना। वैसे आप सिर्फ दाल फ्राई क्यों मँगवा रहे हैं?' 

अनुराग के चेहरे पर लाचार मुस्कुराहट आ गयी, 'वो क्या है कि सफर में मैं हल्का ही खाता हूँ।' मन में उसने उस सादगी को पचास लानतें भेजीं, साला तुम खाओ न मेरी जान। माले मुफ्त दिले बेरहम। 

बेयरा ऑर्डर सर्व कर गया। सामने रोगनजोश देखकर अनुराग का कलेजा मुँह को आ गया। अपनी दाल-फ्राई को देखकर उसकी इच्छा फूट पड़ने को हुई।

रूमाली रोटी की पहली परत उतारते हुए बादशाह भाई बोल उठे, 'वाह खुदा कसम, दोस्त, खुशबू बता रही है कि खाना वाकई शानदार है। आपको जरूर चखना चाहिए।' 

अब अनुराग का धैर्य दूट चुका था। उसे लगा कि जब पैसा देना ही है तो क्यों वह सामने वाले को रोगनजोश खिलाए और खुद दाल फ्राई खाए। उसने वेटर को इशारे से बुलाया और कहा, 'भाई, एक प्लेट चिकन रोस्ट ले आना। उसे लगा कि दाल फ्राई के साथ रोस्टेड आइटम ही ठीक रहेगा।' तभी बादशाह भाई बोल उठे, 'अरे सुनो भाई एक ग्रीन सलाद ले आना।' 

बेयरा थोड़ी देर में दोनों सामान रख गया। जब वह चलने को हुआ तो बादशाह भाई फिर बोल उठे, 'भाई, जरा दही भिजवा देना।' 

'मुझे भी एक दही ला देना।' अनुराग के दिमाग में भयानक उथल-पुथल हो रही थी।

इसके बाद तो खाने की वह टेबल जैसे शतरंज की बिसात बन गयी थी। दही, पापड़, रायता, आइसक्रीम की चालें चली जाने लगीं। बादशाह भाई न जाने कितने दिनों से भूखे थे या कि खाना ही लजीज बना था कि वो न जाने कितने आइटम मँगवाये जा रहे थे। अनुराग भी अब जान पर खेल गया था। 

बादशाह भाई कुछ भी ऑर्डर करते, वह केवल चीखकर कहता, दो ले आना। 

बादशाह भाई का चेहरा गजब मुदित हो रहा था। 'वाह! वाह! क्या बात है, लजीज है। ये तो बहुत ही उम्दा है' जैसे शब्द वे बार-बार बोल रहे थे। 

अनुराग का चेहरा सख्त था। फिर आर्डर देते समय उसकी आवाज निकल रही थी जोर से - दो ले आना, मेरे लिए भी। दूसरी टेबल से यदि कोई इन दोनों को देखता तो लगता कि खाने से ज्यादा जंग लड़ी जा रही हो यहाँ पर। 

आखिर खाना खत्म हुआ। बादशाह भाई ने एक लंबी डकार ली, 'भई मजा आ गया। आज का दिन तो वाकई बहुत बढ़िया रहा।' 

'हाँ, जब कोई मुझ-सा असामी फँस जाए तो दिन तो बढ़िया जाएगा ही।' चीत्कार करते हुए मन में अनुराग ने सोचा। 

बेयरा बिल ले आया था। धड़कते दिल से अनुराग ने बिल पर नजर डाली, चलो बच गये, दो सौ पिचानवे रुपये ही हुए। इज्जत बच गयी।

'चला जाए।' कहते हुए उसने जैसे ही जेब में हाथ डाला कि बादशाह भाई ने उसकी कलाई पकड़ ली, 'अरे रे... क्या करते हैं भाई साहब। मैं बड़ा हूँ आपसे... पैसे तो मैं दूँगा...'

अनुराग का भेजा घूम गया। उसे सुनाई दिया, 'भाई जान! बादशाह जहाँगीर ने ठीक यही चाल चली थी। इज्जत की कीमत पर कतई नहीं। लीजिए हो गयी मात। कोई रास्ता है आपके पास।  

 

एक ही दिन में दूसरी बार मात खायी थी उसने। कनखियों से उसने टेबल की ओर देखा। खाते हुए उसका चेहरा उसे खुद ही अश्लील दिखा। 

उसने आखिरी कोशिश की, 'नहीं भाई साहब बिल तो मैं...'

'क्या बात करते हैं, जनाब। ऐसा भी कहीं होता है? यह तो तहजीब में नहीं है हमारे।' बादशाह भाई ने तत्काल तीन सौ निकालकर प्लेट में रख दिये। चलिए चला जाए। 

रेस्तरां के बाहर आकर दोनों पान की गुमटी की तरफ बढ़े। वहाँ से सिगरेट सुलगाकर उन्होंने स्टेशन पर खड़ी गाड़ी के बारे में दरियाफ्त की। पता चला वह तो तीन घंटे से पहले खुलने से रही। 

अनुराग का मन अजीब हो रहा था, उसे रह-रहकर खाने की टेबल की अपनी हरकतें याद आ रही थीं। तो क्या यह शख्स सब कुछ जान रहा था? उसने बादशाह भाई की तरफ देखा, वे सिगरेट पीने में मशगूल थे। अचानक उन्होंने कहा, 'देखिए भाई साहब। एक दोस्त मेरा यहाँ भी रहता है। मेरे पास तो सामान वगैरह कुछ है नहीं। मैं ऐसा करता हूँ, उससे यहीं मिलने की कोशिश करता हूँ। बुरे वक्त में कौन काम आ जाए।' 

'वैसे आपसे मिलकर आज मजा आ गया। अल्लाह सफर का ऐसा दोस्त सबको मुबारक करे, तो फिर जरूर मुलाकात होगी। इजाजत दीजिए।' 

हाथ मिलाकर और लगभग गले लगकर बादशाह भाई सामने रिक्शे वाले की तरफ बढ़ गये।

अनुराग की इच्छा तेज आवाज में रोने की हो रही थी। कौन था यह आदमी। नवाब बादशाह वाजिद अली शाह, जहाँगीर या फिर उसके सफर का दोस्त बड़ा भाई। उसका सिर भारी हो गया। थके कदमों से वह वापस स्टेशन पर आया। गाड़ी के अधिकांश लोग प्लेटफार्म पर चहलकदमी कर रहे थे। जितने लोग उतनी चर्चाएँ। वह चुपचाप अपनी सीट पर चला गया। वहाँ वह तिलकधारी यथावत बैठा हुआ भाषण दे रहा था। अनुराग को हैरत हुई कि साला इतना बोलते हुए भी यह थक क्यों नहीं रहा है। अनुराग को देखते ही वह बोल उठा, 'अरे नौजवान! कहाँ चले गये थे। हम लोग तो भयभीत हो गये थे। वातावरण ठीक नहीं है अभी।'

'क्यों? क्यों भयभीत हो गये थे आप? बताइए कौन हैं आप?' अनुराग अचानक चीख उठा। उसके इस कदर चीखने से वह बनियानुमा आदमी थोड़ा सहम गया। आसपास के लोग भी खामोश हो गये।

'मैं तो पिता समान... पुत्रवत्...' बनिये की हकलाई-सी आवाज आयी।

'नहीं, कोई नहीं। कुछ नहीं हूँ आपका और आप भी मेरे कोई नहीं लगते। समझ गये।'

न जाने अनुराग की आवाज में कौन सी गुर्राहट थी कि वह आदमी सिटपिटा कर चुप हो गया और खिड़की से बाहर देखने लगा। उस अपार्टमेंट में काफी देर तक चुप्पी छायी रही, यहाँ तक कि ट्रेन खुलने के बाद तक भी।

 


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Abstract