मित्र
मित्र
जब दादा दादी के घर गया था तो देखा आँगन में कुछ पेड़ लगे थे। पूछने पर दादा ने मुझे बड़े चाचासे हर पेड़ के पीछे की एक कहानी सुनायी। हर एक पेड़ किसी की याद में लगाए गए थे, जैसे बुआ के होने पर एक आम का, पापा के होने पर एक अमरुद का और चाचा के नाम का एक नीम का पेड़ था। और बुआ ने चाचा को छोड़ते हुए कहा "जिसका जो पेड़ है वो वैसा ही है, इसलिए तो चाचा इतने कड़वे हैं।" तभी चाचा ने तपाक से कहा, "हाँ और तुम भरी भरी मीठे मीठे आम जैसी”. इस प्यारी सी नौक जाहुनक में गर्मियुओं की छुट्टी कहाँ निकल गयी पता ही नहीं चला।
उन पेड़ों के इर्द गिर्द कभी छुपन छुपायी होती तो शाम के वक़्त बातों की बैठक,चाय की चुस्कियों और पकोड़ों के संग। कभी रस्सी का झूला डाल देते हम बच्चे लोग तो कभी क्रिकेट के स्टाम्प बना देते। छुट्टियों के बाद जब वापस अपने घर गए तो उस आँगन की और पेड़ों की याद बहुत सताती। मैंने एक दिन बाबूजी से कहा, "मेरे होने पर आपने कोई पेड़ क्यों नहीं लगाया।" दादा की तरह, बाबूजी ने बड़े उदास मन से कहा "मन तो मेरा भी बाहयुत था बेटा पर यहाँ शहरों में न तो आँगन न डालें बस इमारत ही इमारत कहाँ लगाये कोई पेड़”,फिर भी में ज़िद पे अड़ा रहा। मेरा मन रखने के लिए बाबूजी एक अमरुद का पेड़ ले आये और हमारे घर की बिल्डिंग के बाहर थोड़ी सी जगह जो खाली पड़ी थी वह लगा दिया। मुझसे कहा "ये तुम्हारा दोस्त है, ये तुम्हारा मित्र है, तुम्हारे साथ साथ बड़ा होगा तुम इसका ध्यान रखना। उस दिन में बहुत प्रसन्न था अपने नए मित्र को पा कर। बड़े प्यार से उसमें पानी डालता, खाद डालता.मैं स्कूल से आता तो सब से पहले उसके गले लगता और फिर घर जाता. शाम को भी उसके साथ बातें करना न भूलता।
जब पहली बार उसमें फल आये थे तो सारे बिल्डिंग के बच्चों को बुला कर उसके अमरूद खिलाए थे। जब पड़ोस की निशा को देख कर पहली बार मुझे कुछ हुआ था तो अपना ये एहसास सिर्फ इसी पेड़ को बताया था। इसकी छांव के नीचे बैठ कर कई प्रेम पत्र लिखे थे पर देने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाया और जब उनमें से एक प्रेम पत्र बाबूजी के हाथ लग गया तो बहुत मार पड़ी थी। तब भी अपने भीतर का दर्द सिर्फ इसी पेड़ को बता कर घंटों रोया था, गुस्से में खाना भी नहीं खाया और उसी के पास बैठा रहा। तभी उस पर से एक पका हुआ अमरुद मेरी गोद में गिर पड़ा और ऐसा लगा जैसे मेरा मित्र मेरे लिए खाना लाया हो, बड़ा ही विचित्र बंधन था ये। जब में कॉलेज की पढ़ाई के लिए हॉस्टल जा रहा था तब भी उसे लिपट कर बहुत दुखी हुआ था और माँ को कह कर गया था इसका ध्यान ख्याल रखें।
इस बार जब पढाई पूरी करके घर आया तो देखा घर के बाहर की वो थोड़ी सी खाली जगह पर किसी ने एक बिल्डिंग बना ली है,सरकारी कार्यालय बन गया है. मैं घबराया हुआ माँ के पास भागा और अपने पेड़ के बारे में पुछा। मां दुखी मन से बताया कि सरकार ने कार्यालय बनाने के लिए उसे काट दिया। दिल दहल गया। न खाना खाया गया न ही रात को नींद आये। अपने कमरे की खिड़की से बस उस बिल्डिंग को ताकता रहा। दुसरे दिन बाबूजी ने कहा, "तेरे लिए एक नौकरी का अवसर है सरकारी नौकरी घर के एकदम पास, वेतन भी अच्छा है। जा कर इंटरव्यू दे आओ. ज़िन्दगी आराम से गुज़र जायेगी।" बाबूजी की बात रखने के लिए में चला तो गया पर जी बहुत उदास था, घुसते समय ऐसा लगा जैसे कार्यालय में नहीं शमशान में जा हो रह्या हूँ जहाँ मेरे मित्र की चिता जली थी। थोड़ी ही देर बाद बिना किसी से मिले ही वहां से लौट आया। शाम को बाबूजी ने नौकरी के बारे में पुछा तो बस इतना ही कह पाया "चिंता न करो कहीं और ढूँढ़ लूँगा पर यहाँ काम न कर पाऊंगा।”
मन में यही बात चल रही थी, कैसे काम करूँगा वहाँ जहाँ मेरे मित्र की याद सताएगी, अपने मित्र की चिता की आग से अपने जीवन की रोटियां नहीं सेकी जाएंगी मुझ से।