अधूरा आँगन
अधूरा आँगन
"हरीश इतनी देर से स्टडी रूम में क्या कर रहे हो ?
डिनर ठंडा हो रहा है। आ भी जाओ। "छाया डाइनिंग टेबल पर बैठी अपने पति को बुला रही थी।
"अभी आया। "कहते हुए हरीश बाहर आ गया। दोनो भोजन करने लगे बिल्कुल खामोश। छाया बोलती जा रही थी और हरीश हाँ और न में जवाब देता जा रहा था।
"टहलने चल रही हो क्या ?"हरीश ने हाथ तौलिये से पोछते हुए पूछा।
"हाँ आती हूँ अभी तुम जाओ। "हरीश बाहर चला गया। जिज्ञासावश छाया स्टडी रूम में चली गयी।
मेज पर पेपर वेट से दबे पत्र को पढ़कर उसकी आँखें भर आईं। पत्र जोकी हरीश ने अपने मम्मी पापा के नाम लिखा था।
आदरणीय मम्मी और पापा जी
सादर प्रणाम ,
"मम्मी जब से आप गयीं हैं यहाँ से, यह घर जैसे काटने को दौड़ता है। न मम्मी की प्रेम भरी आवाज सुनाई देती है और न ही पापा जी की खाँसी मठार। इतना बड़ा घर जैसे खाने को दौड़ता है। जब भी छाया को दोनो बच्चों को प्यार करते हुए देखता हूँ मम्मी तुम्हारी बहुत याद आती है। मेरा बचपन याद आ जाता है। जब हम छोटे से घर में कितने प्यार से रह लेते थे। और आज जब मैंने सब कुछ पा लिया तो अपनों से यह दूरी .....बहुत कचोटती है। छाया थोड़ी जिद्दी है मगर क्या तुम मेरे लिये सामंजस्य नहीं कर सकती। मम्मी पापा वापस आ जाओ अपने घर आपके बिना यह घर अधूरा सा है। फोन पर मैं यह सब नहीं कह सकता था। अपने जज्बातों को बयान नहीं कर सकता था, इसलिए यह पत्र भेज रहा हूँ।"
आपका पुत्र हरीश।
छाया की आँखों से पश्चाताप के आँसू बह निकले और पत्र पर जा गिरे। जिससे कुछ अक्षरों की स्याही फैल गयी। अब छाया मन ही मन अधूरे आँगन को पूरा बनाने का प्रण कर चुकी थी।