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Divik Ramesh

Others

0.8  

Divik Ramesh

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एक सूरज और

एक सूरज और

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अक्सर बहुत उदास होने पर मैं अपने कमरे के झरोखे के करीब बैठ जाया करता हूं। उसके पार आकाश के नीचे बने मकानों के अजीब-अजीब कटावों में कुछ देर उलझे रहने का मौका मिल जाता है। अचानक ही घंटी बजती है। शायद केशव आया है, और आ ही कौन सकता है इस अकेले आदमी की बरसाती में। मुझे हंसी आ जाती है। लोगों का ‘बरसाती’ में रहने वालों को देखने का एक अलग ही नजरिया होता है - चाहे वह कितना ही पैसे वाला या पढ़ा-लिखा ही क्यों न हो। मेरे साथ भी कुछ अजीब दिक्कत रही है। केशव कितनी बार कह चुका है कि तुम्हारे स्तर के व्यक्ति को ‘बरसाती’ में नहीं रहना चाहिए, लेकिन..... घंटी दुबारा बजती है। कुछ भी बोले बिना चुपचाप दरवाजा खोल देता हूं.।

 

‘अरे तुम, ...... इस वक्त’ मैं भौचक्का सा पूछता हूं। एक बोझ जैसे उड़ गया और एक नया लद गया।

 

उसने मेरे आश्चर्य की कोई परवाह नहीं की और कदम बढ़ाती हुई अन्दर आ गयी। दरवाजे खुले छोड़ मैं भी अन्दर आ गया।

 

‘बैठिए न’, उसने मुझसे कहा। मैं चुपचाप बैठ गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था। कुछ दिन पहले ही तो इसका ट्रंककाल आया था। तब मैंने कितनी बेरूखी से ‘रिसीवर’ पटक दिया था और मिलने से भी मना कर दिया था।

 

‘मैं समझती हूं ‘रमी’, सब कुछ समझती हूं। तुम्हें मुझे देखकर आष्चर्य होना कितना सहज है यह भी समझती हूं’।

 

‘लेकिन मीना तुम.......’

 

‘हां मैं अकेली आयी हूं - इस समय रात के ग्यारह बजे और सुबह तक तुम्हारे पास ही रहूंगी - तुम्हारे साथ’ ।

 

‘लेकिन यह कैसे हो सकता है मीना?’

 

‘क्यों नहीं हो सकता - इस दुनिया में सब कुछ हो सकता है - ‘दार्शनिकों की तरह वह बोली और आराम कुर्सी पर लगभग लेट सी गयी।

 

‘तुम्हारे लिए चाय.....’,

 

‘ओह नो - तुम सिर्फ कुर्सी पर बैठे रहो - मुझे जरूरत होगी तो खुद बना लूंगी - है ना?’

 

‘है ना’ ने मुझे चैंका दिया। लगा जैसे पूरी तरह झकझोर दिया गया हूं। यह उसकी बहुत पुरानी आदत है। मुझे उसकी दो ही आदतें बहुत पसंद थी। एक यह और दूसरी जब भी कभी मैं क्रोध में आता था तो वह बड़े ही भोलेपन से कनखियों से देखती हुयी कहा करती थी - ‘ओय होय, होये, रूठ गए जी.... और फिर स्वयं ही शर्माकर मुस्कराती रहती थी। मुझे कितनी कितनी षांति मिलती थी कितना-कितना सुख।’ लेकिन! ओह, यह सब मैं क्या सोच गया हूं -- यह सब मैं भूल चूका हूं पूरी तरह भुला चुका हूं - मीना को लेकर सोचना भी पाप है।

 

मीना चुपचाप मुझे देख रही थी। षायद मेरे चिंतामग्न चेहरे को उसने भांप लिया था। उसके आधे चेहरे पर ‘शेड’ पड़ रही थी। इससे आकृति और भी लुभावनी हो गई थी। मैं टेबल पर पड़ी ‘मैगजीन’ को उलटने पलटने लगा था। ‘यह तुम क्या करते हो - हमें बोर करने का ठेका ले लिया है क्या - कितनी बार कहा है जब हम तुम्हारे पास हो तो मैगजीन नहीं पढ़ा करो। तुम्हें कुछ भी नहीं करने दिया करेंगे ।

 

ओह एक पीड़ा की लहर सी सारे शरीर में उमड़ पड़ती है।

 

‘तुमने अभी तक मकान नहीं बदला ।

‘तुम्हें इससे मतलब?’ मुझे कुछ झल्लाहट सी हो आई थी।

‘नहीं, यूं ही - मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं - मेरे एक जानने वाले काॅरपोरेषन में हैं’।

‘नहीं मुझे कोई मदद नहीं चाहिए - अगर मुझे जरूरत होती तो मेरे एक दोस्त भी उसी विभाग में हैं।

 

यह कहते-कहते मुझे लगा कि शायद कुछ गलत कह गया हूं। सच तो यह है कि मेरा कोई दोस्त यहां नहीं है। मैं कुछ आगे सोचता इससे पहले ही वह बोली - ‘तुम्हारी पुरानी आदत अभी तक गयी नहीं रमी’। मैं चुप रहा। वाकई इसी आदत ने बार बार मुझे उपलब्धियों से वंचित किया है। वह घटना कभी मेरा पीछा नहीं छोड़ती। कितना असह्य है यह सब।

 

मीना से उन दिनों मेरा नया-नया परिचय हुआ था। और बहुत ही तीव्र गति से हम एक दूसरे के निकट आते चले गये थे। मीना को मैंने सभी दोस्तों से मिला डाला। हम प्रायः बड़े से बड़े होटलों में जाते। मीना को इन चीजों पर बड़ी आपत्ति होती लेकिन मेरे बार-बार आग्रह करने पर ही वह मेरे दोस्तों के साथ ‘मिक्स अप’ होती गयी। अब वह पहले जैसी संकोची नहीं रह गई थी और न ही कटी कटी सी। वह खूब खुलकर बातें कर सकती थी सबसे। वह ‘बीयर’ भी आसानी से पी लेती थी और व्हिस्की पीने की इच्छा रखती थी। मैं यह देखकर बड़ा खुष होता था।

 

और शादी के बाद - एक अजीब परिवर्तन महसूस करने लगा था मैं अपने भीतर ही भीतर। अब मुझे मीना का इस प्रकार का व्यवहार बिल्कुल पसन्द नहीं आता। मैं नहीं चाहता था कि मेरी अनुपस्थिति में मीना मेरे किसी दोस्त को घर में बिठाए भी। न जाने क्यों मुझे दुनिया भर के शक होने लगते थे। मीना को सब के साथ खुलकर बातें करते देख मेरे चेहरे पर एक अजीब सा कम्पन दौड़ जाता था। मैं बुझा बुझा सा उस समय की प्रतीक्षा करता जब वह इस वातावरण से निकल कर एकान्त में होती। तब मैं चीखकर उसे कहता - ‘‘मीना मुझे यह सब कुछ पसन्द नहीं है। तुम्हारी ये सब हरकतें न जाने मुझे क्या क्या सोचने पर मजबूर करती हैं।’’

 

‘लेकिन रमी - यह सब तुम्हीं ने.... ‘हां मैंने ही कहा था और अब भी मैं ही कह रहा हूं। तुम्हारी ये सब हरकतें न जाने मुझे क्या क्या सोचने पर मजबूर करती हैं।’

‘रमी मैं तुम्हारी गुलाम नहीं हूं कि दासियों की तरह तुम्हारी हर बात मानूं मेरी भी अपनी इच्छायें हो सकती हैं। मैं तुम्हारे लिये अपने आपको कमरे में डेढ़ गज लम्बे घूंघट में बन्द नहीं कर सकती।

 

‘मीना....’ मेरा खोखलापन बुरी तरह कांप गया था।

‘गुस्सा दिखाने की कोई जरूरत नहीं है रमी।’

 

इस वाक्य ने बुरी तरह आहत कर दिया था मुझे। मन में आया था कि तोड़ लूं सभी सम्बन्ध इससे और कह दूं कि निकल जा यहां से - लेकिन कुछ भी तो न कह सका था। बाहर कितनी बारिश होने लगी थी और भीतर का उबलता लावा बाहर निकलने का स्थान नहीं पा रहा था। इतना असमर्थ मैंने कभी महसूस नहीं किया था अपने आपको। न जाने कब मुझे चक्कर सा आया और नीचे गिर गया था - जब होष में आया तो मीना को अपने ऊपर झुका सा पाया। वह पूछ रही थी - क्या हो गया रमी?’

 

‘कुछ नहीं’। एक अजीब पीड़ा सारे षरीर में व्याप्त हो गई थी।’ वितृष्णा-आत्मग्लानि और मीना के प्रति अपार घृणा एक साथ उमड़ रही थी। काष कि मुझे उस समय इतना सहारा मिल जाता कि मैं चीख पड़ता - ‘मीना तुम मर गयी आज से, मेरे लिए तुम्हारा अस्तित्व समाप्त हो गया, तुम चली जाओ यहां से, मैं अपने आपको तिल तिल कर नहीं मारना चाहता। तुम मेरी हत्या कर दोगी एक दिन - मुझे षक है तुम पर - पूर्ण शक।

 

लेकिन हंसी आती है मुझे। मैंने एक सिगरेट निकालकर पीनी षुरू कर दी थी। मुझे पता था कि मीना सिगरेट पसन्द नहीं करती थी। मैं चाह रहा था कि वह प्रतिवाद करे। मुझे रोके तो मैं भी कहूं - ‘मैं तुम्हारा गुलाम नहीं हूं मीना कि तुम्हारे लिये तुम्हारी हर बात मानूं लेकिन वह कुछ नहीं बोली। मैंने अपनी सिगरेट आधी ही बुझा दी और बिना कुछ बोले बाहर चला आया।

 

एक लंबे से मौन को तोड़ती हुई मीना बोली - ‘अभी तक देखती हूं - तुम्हारा ‘इमेजनरी’ अहं उसी अवस्था में है। देखो रमी, आज इतने महीनों बाद मैं तुम्हारे पास किसी खास प्रयोजन से आई हूं। मुझे पता चला कि एक अच्छी जगह से तुम्हें षादी का ‘ऑफर’ मिला है और तुमने उसके लिये मना कर दिया है। खैर यह तुम्हारा निजी मामला है - कुछ भी निर्णय ले लो। मैंने भी दूसरे विवाह की बात सोची थी बल्कि मेरे पिता ने तो एक लड़का तय कर लिया था, और सच तो यह है कि एक-आध बार मैं उसके साथ इधर-उधर अकेली गयी भी। लेकिन एक बहुत बड़ी गलती महसूस करती हूं मैं। तलाक लेने को मैं बुरा नहीं मानती लेकिन दूसरे विवाह की पक्षधर भी नहीं हो सकती। कोई जरूरी नहीं कि हम नये साथी के साथ संतुष्ट ही रहें। फिर रिस्क क्यों लें। मुझे तो कम से कम एक गिरावट सी महसूस होने लगी थी। जानते हो जिस लड़के की बात मैं कर रही थी वह तुम्हारे बारे में एक दिन क्या बोला - ‘नपुंसक होगा साला जो तुम्हें छोड़ बैठा।’ बहुत गुस्सा आया था मुझे। मैं जानती थी कि मुझे रिझाने के लिए वह ऐसा सब कह रहा था। मैंने उस दिन से निर्णय ले लिया था कि किसी से भी दूसरा विवाह नहीं करूंगी। मैं नहीं जानती कि कब प्रेम किसके प्रति अधिक हो जाता है और कहां वह ऊंचा उठा देता है या नीचे गिरा देता है। बस रमी उस दिन एक झटका सा लगा और तुम्हारे लिये जैसे सब कुछ समर्पित होता चला गया। और फिर वह लड़का था भी बड़ा दब्बू किस्म का - एकदम लिज-लिजा सा। जो बात कहती झट से मान लेता। मुझ पर वह अपनी कोई इच्छा या तो जाहिर ही नहीं करता अथवा बहुत ही डरते हुए कर पाता। तुम सोचोगे कि फिर भी वह मुझे पसन्द नहीं आया। रमी मुझे पुरूष चाहिए, मशीन नहीं। मुझे आदमी चाहिए - और आदमी के साथ ‘एडजस्ट’ करना होता है। मेरे दिमाग में हर वक्त वही आदमी आदर्श रहा है जो मेरे अहं को ठेस पहुंचाये बिना मुझसे सब कुछ मनवा ले। सच रमी तुम मुझसे सब कुछ मनवा लेते थे - लेकिन तुम सदा अपने ही अहं को महत्व देते थे - और यही एक कमी थी तुम में। तुम यह भूल जाते थे कि नारी का भी ‘अहं’ होता है - यानी स्वाभिमान। और फिर जमाने और परिस्थितियों को समझे बगैर तुम हर बात मुझ पर लादना चाहते थे -- मुझे समझने का, एडजस्ट करने का जरा भी मौका दिए बिना। काष कि तुम लादने की बजाय प्यार से मुझे अपनी बात मनवाने पर विवष करते रमी - तो.... तो.....’

 

मीना की आंखों में पानी का समुद्र उभर आया था।

 

‘मीनू’ मैं भावुक हो उठा। जी मैं आया कि उसे गले से लगा लूं। मीना को भी शायद याद होगा कि मैं उसके आंसू कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता। मुझे चाहे उसके लिए कभी कभी अपनी दृष्टि में कितना ही नीचा क्यों न देखना पड़ा हो।

 

‘रमी’ - वह मेरे घुटनों पर खिसक आयी थी और जोर-जोर से मुझे हिलाने लगी थी - ‘तुमने हमें क्यों जाने दिया - क्यों करने दिया यह सब? हम नीच हैं - कितना प्यार करते थे तुम हमें.... फिर....फिर.... तुमने क्यों नहीं रोक लिया था हमें। क्यों ले लेने दिया था तलाक?’

 

मुझे याद है सब कुछ याद है। मेरे दिमाग में उस दिन का चित्र खिंच गया था। पता नहीं किस बात पर झगड़ा हो गया था। मैंने क्रोध में कहा था - ‘मीना मुझे लगता है कि हमारे विचार कभी नहीं मिल सकते - हम एडजस्ट भी नहीं कर सकते - ’ ‘हां रमी मैं भी यह महसूस करती हूं - ‘तुम चाहो तो मुझसे तलाक ले सकते हो।’

 

‘मीना, क्या तुम एडजस्ट नहीं करना चाहती - ‘मैं दबी आवाज में बोला। ‘नहीं रमी - इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सकती।’

तब हम दोनों चुप हो गये थे। अगले ही दिन मीना ने अपना सामान बांध लिया था और वह अन्तिम बार जैसे मेरे पास आई - कहने लगी - ‘मैं जा रही हूं रमी -’

 

मैं चुपचाप बैठा रहा था। कुछ नहीं बोला - बोल ही नहीं सका था - इस बात की कल्पना भी नहीं की थी मैंने कि मीना इस प्रकार मुझे छोड़कर भी जा सकती है। और वह चली गयी। कुछ महीनों के बाद बिरादरी के सामने तलाक और उसके बाद जिंदगी का एक अजीब घिसटना। मीना अभी तक सिसकियां ले रही थी। मैंने उसका मुंह ऊपर उठाया - ‘छिः मीना यह क्या करती हो। रोना कोई अच्छी बात है - कितने महीनों बाद मिली हो, तब भी....’

 

‘हां महीनों बाद शायद, साल भी हो जाते - तुम तो अब भी मिलने को तैयार नहीं थे। तुमने फोन पर भी हमारी बात नहीं सुनी। हम तो दुबारा तुम्हारे साथ शादी करना चाहते थे - हां चाहते हैं। है ना’ और मुस्करा दी।

 

मैं आंखें फाड़कर उसे देखता रहा। ‘रमी अब हम तुम्हारे साथ ही रहा करेंगे। रखोगे न?’

 

मैं एक बार चुप हो गया था। इतनी विपत्ति में मैं मीना को सहारा न दूंगा तो कौन देगा। फिर मैंने तो इससे प्रेम किया था और फिर भूल भी तो मेरी ही थी। मैं उस दिन इसे नहीं जाने देता तो। अगर जबरदस्ती करता तो। ‘हां मीना’ वह मेरे आलिंगन में सिमट आई थी और सुबह तक हम बेसुध से पड़े रहे। सुबह होते ही मीना चाय बना लायी थी। इसके बाद वह बोली - अच्छा मैं चलूं - ‘मीना’।

‘हां मैंने कहा था न सुबह तक रहूंगी। बस रमी मैं सफल हो गयी। तुम मुझे भूल नहीं सके, यह मेरी सफलता है - मेरे प्रेम की सफलता। मुझे दुःख था तो यह कि तुमने मेरी कोई सुध नहीं ली - कहां हूं, कैसी हूं। मैंने समझा तुमने मुझे दिल से निकाल दिया लेकिन कितना सुख मिल रहा है मुझे’।

 

‘मीना, लेकिन तुम जा कहां रही हो’

‘रमी - अब मैं उस दिन की प्रतीक्षा’ में हूं जिस दिन तुम मुझे लेने आओगे’ यह कहती हुई वह चली गयी।

 

एक बार फिर मेरा अहं जाग्रत हुआ.... ‘मॆं क्यों लेने जाऊंगा। उसे जरूरत है तो खुद आ जाए।’ लेकिन अभिव्यक्त नहीं कर सका। सूरज काफी चढ़ आया था।

 


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