पढ़ा हुआ पाठ
पढ़ा हुआ पाठ
"आ गए साहबजादे!" माँ के चुप रहने के इशारे के बाद भी शाम ढले घर में घुसते ही, उसके पिता का बड़बड़ाना शुरू हो गया। "जाने कहाँ आवारागर्दी करता फिरता है ये लड़का सारा दिन।"
"कुछ गलत न करे है मेरा बेटा, अब किताबों में भी कितनी मगजमारी करे, कुछ देर दोस्तों में गुजार आवे है तो हर्ज ही क्या है?" माँ ने उसकी तरफदारी की कोशिश की।
"तो वही जाहिल लोग रह गए है दोस्ती के लिए।" पिता ने माँ को भी डांट की लपेट में ले लिया।
"पिताजी, अब ऐसे भी जाहिल न है वे लोग।" वह चुप न रह पाया।
"तो उस 'स्लम बस्ती' के 'नौनिहालों' के साथ मिलकर वहां कौन सा परम ज्ञान बांटते हो तुम! जरा हमे भी तो पता लगे।" पिताजी की आवाज थोड़ी तेज हो गयी।
"पिताजी आप अपनी ईश्वर-भक्ति के लिये दान-पुण्य और कई तरह का पूजा पाठ करते है न...!"
“तो...?” उत्तर की जगह बेटे के प्रश्न से पिता के चेहरे पर लकीरें खिंच गयी।
"...बस मैं और मेरे जाहिल दोस्त भी थोड़ी सी भक्ति कर लेते है। हमने वहां एक छोटा सा रक्त दान शिविर शुरू किया है जो ब्लड बैंक के साथ तालमेल करके उन गरीबों के लिये निशुल्क रक्त का इंतजाम करता है जो बेचारे हर तरफ से लाचार है।"
"ओह! तो अब उन ‘अछूतों’ के बीच तुम्हें धर्म और संस्कार के मायने भी भूल गए।" पिता के चेहरे पर व्यंग्य झलक आया।
"नहीं पिताजी, ये संस्कार ही तो हैं जो मुझे प्रेरणा दे रहे है और धर्म.., धर्म तो सदा कर्मों के पीछे-पीछे चलता है।" बेटे की आँखें अनायास ही पिता की आँखों से जा मिली थी। "यही पाठ तो पढ़ाया था आपने वर्षों पहले, जब इसी ‘स्लम बस्ती’ के एक अछूत ने अपना खून देकर माँ का जीवन बचाया था।