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Asha Pandey 'Taslim'

Inspirational

2.5  

Asha Pandey 'Taslim'

Inspirational

रेशमी धागा

रेशमी धागा

3 mins
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मनस्वी ये नाम रखते हुए बाबा ने सोचा होगा कि उनकी बिटिया सब से बुद्धिमान, गहरे विचारों वाली होगी ,ये सोचते हुए मनस्वी मुस्करा उठी और चाय का कप लिये बालकनी में दिसंबर के धूप संग आँख मिचौली खेलने लगी।

और यादों के धुंध कुछ छटने लगे, बहुत सी बातें याद आने लगी जब वो खूब बोलती थी, लड़ती थी, आंसू जैसे पलकों के कोर पर इंतज़ार करते थे कोई बात ज़रा दिल को लगी और झट वो गालों पर मुस्कुराते, नाक लाल हो जाती और काज़ल से गाल काले।

किताबों को पढ़ते गुनते जाने कब एक अलग दुनिया बसा ली मनस्वी ने अपनी, जहाँ चुप उन एहसासों को जीने की कोशिश करती जो पढ़ती रूमानी किताबों में। पर पढ़ने और जीने में फ़र्क होता है न सो हुआ, जो मिला जीवनसाथी वो सब बना बस साथी नहीं बन पाया न कभी कोशिश की उसने।

वो एक रुतबेदार, वो एक बेहतरीन पिता, वो एक क़ाबिल ऑफिसर, वो एक लायक बेटा और समाज के नज़र में एक अच्छा पति भी तो हैं, न न वो मनस्वी को अकेले में कभी मारता पीटता नहीं, मायके का ताना भी नहीं देता। वो दरसल कुछ भी नहीं देता न प्यार न सम्मान न वक़्त ये तीनों ही बीवी को देकर ख़र्च करने के हक़ में वो नहीं इतने देर में तो 4 फाइलों को निपटा कर अपना दबदबा बनाया जा सकता विभाग में या कहीं घूमने जाया जा सकता।

घूमने भी वो अकेले मनस्वी के साथ नहीं जाता क्या बात करता वो इस सिरफिरी औरत से जो अंदर से 16 साल की बच्ची जैसी अजीबोगरीब है।

तामझाम के बीच मनस्वी कभी उसका हाथ भी पकड़ने की कोशिश करती तो आँखों से आसपास के लोगों को दिखाता वो।

ज़िन्दगी कट ही रही थी और कट ही जाती कि....

तबादले ने नये महानगर में लाकर बिठा दिया और महानगर के भीड़ में मनस्वी डरी हुई सी दुबक गई पिजरें में और तब मनस्वी को मिला एक साथी जो किसी भी साँचें में नहीं बैठता फ़िट लेकिन दो बच्चों की माँ को उसने कम्प्यूटर से परिचित करवाया, महानगर के भीड़ में चलना सिखाया, मैट्रो की सवारी सिखलाई, भाषा पर पकड़ और आँखों मे काज़ल को आसूं का मेड बनाना सिखलाया। अपनी सूरत पर इठलाना और थोड़ी सी चोरी सिखलाई वक़्त की जो मनस्वी भूल गई थी अपने लिये।

धीरे-धीरे मनस्वी चलने लगी बिना किसी सहारे के तब वो साथी रूठने लगा, जैसे वो कर्ता हो जैसे वो दाता हो।

साथी अब जीवनसाथी के तर्ज़ पर व्यवहार करने लगा और छिटक गया हाथ से जैसे दिसंबर की धूप

तब दोस्त को बतानी चाही ये बात मनस्वी ने एक रात "एक रेशमी धागा तोड़ आई हूँ दोस्त आज की रात"....जाने उस दोस्त ने क्या समझा, क्या सुना और क्या बुना कि सरकने लगा हैं अब वो भी दूर...ऐसा क्यों होता हैं कि पुरूष जिस भी रूप में आये जीवन में फैसला लेने का या तो हक़ रखता है या देता है? यानी मनस्वी हमेशा याचक ही होती है क्या....


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